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By प्रभु चावला
कभी विपक्ष में बड़े नेताओं का वर्चस्व था, पर आज वह ऐसे स्वयंभू शासकों का समूह है, जो अपने प्रभाव की भौगोलिक सीमाओं में बंधे हुए हैं. इसी बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का साम्राज्य शक्ति और आकार में बढ़ता गया है. किसी भी क्षेत्रीय राजनीतिक राजवंश या दीवान में अकेले केसरिया किले पर हमले की क्षमता नहीं है, लेकिन सत्ता का आकर्षण ऐसा होता है कि वे मृग मरीचिका में उम्मीद देख रहे हैं, खासकर तब जब 2024 का चुनाव नजदीक आ रहा है.
विपक्षी नेतृत्व के लिए मोदी शक्ति ने आत्ममंथन का क्षण ला दिया है. तीसरी लहर उनके राजनीतिक अस्तित्व को क्षीण कर देगी और भारतीय लोकतंत्र में उनका असर लुप्त हो जायेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कांग्रेस-मुक्त भारत के घोषित लक्ष्य का एक नतीजा यह हो रहा है कि राष्ट्रीय विपक्ष-मुक्त भारत बन रहा है, जो कहीं से भी ठीक नहीं है. आंतरिक खेमेबंदी, व्यापक भ्रष्टाचार और परिवारवाद से ग्रस्त विपक्षी नेता एजेंसियों से डरे हुए हैं तथा या तो वे जेल जा रहे हैं या शर्तों के साथ सत्ताधारी दल में शरण ले रहे हैं, पर अब भी कुछ ताकतवर क्षेत्रीय नेता हैं. विभाजन से हुए पतन से उठने के लिए उन्हें एक होना होगा.
बीते सप्ताह विपक्षी एकता के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की कोशिशें सुर्खियों में थीं. वे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलने पटना गये थे. दोनों नेता संभावित प्रधानमंत्री के रूप में देखा जाना पसंद करते हैं, भले वे इसका उल्लेख नहीं करते. बीते कुछ महीनों से सोनिया गांधी, शरद पवार, एमके स्टालिन, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और अन्य विभिन्न समूहों में मिलते रहे हैं,
ताकि भाजपा का कोई व्यावहारिक भरोसेमंद विकल्प बनाया जा सके, लेकिन विभिन्न विचारधाराओं को साथ लेकर एक ठोस मंच की संभावना अभी नहीं दिखती, जैसा राजीव गांधी के विरुद्ध चेन्नई में 18 राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दल एक साथ आये थे. हर नेता किसी दूसरे को आगे करने की जगह खुद नरेंद मोदी की जगह लेना चाहता है. इसमें सबसे आगे ममता बनर्जी , केसीआर और अरविंद केजरीवाल हैं. कांग्रेस पार्टी उनकी निगाह में नहीं है.
पवार, लालू और स्टालिन 'भाजपा भगाओ, भारत बचाओ' के नारे पर आधारित एकत्रित विपक्ष बनाना चाहते हैं. वे विभाजन की आशंका से प्रधानमंत्री के चेहरे का नाम नहीं लेना चाहते हैं. उनका कहना है कि सरकार का नेतृत्व चुनाव जीतने के बाद हो. ऐसा 2004 में हुआ था.
ऐतिहासिक रूप से प्रधानमंत्री का चुनाव उन खिलाड़ियों द्वारा होता है, जो खुद खेल में नहीं होते. साल 1977 में अपनी नैतिक शक्ति के कारण जयप्रकाश नारायण चरण सिंह के स्थान पर मोरारजी देसाई को चुन पाये थे. चंद्रशेखर के दावे को वीपी सिंह के पक्ष में मुख्यमंत्री सब इसलिए खारिज कर सके, क्योंकि उन्होंने अपने लिए पद नहीं मांगा था.
आइके गुजराल और एचडी देवेगौड़ा को एम करुणानिधि, चंद्रबाबू नायडू और हरकिशन सिंह सुरजीत ने चुना था. पवार के सहयोग के साथ स्टालिन में ही अपने पिता करुणानिधि की तरह किंगमेकर होने की क्षमता है. चूंकि बिना कांग्रेस के समर्थन के कोई भी गैर भाजपा सरकार नहीं बन सकती है, तो वे ही कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों के बीच एकमात्र पुल है.
शासक बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले इतिहास में कम जगह बना पाते हैं. नरेंद्र मोदी और इंदिरा गांधी जैसे कुछ ही इसके अपवाद हैं. इतिहास बताता है कि जिसने शीर्षक पद की ख्वाहिश नहीं की, कम से कम सार्वजनिक रूप से, वही महज किंग बनने के बजाय किंगमेकर बनता है.
राजनीति का यह खेल स्वतंत्रता के तुरंत बाद शुरू हो गया था, जब पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने थे. वे विदेश में शिक्षित शालीन व्यक्ति होने के साथ खादी पहनने वाले कांग्रेसी भी थे. कांग्रेस के ब्राह्मणवादी और अभिजात्य नेतृत्व के लिए वे प्रधानमंत्री पद के बिल्कुल उचित उम्मीदवार थे. तब भले ही आचार्य कृपलानी पार्टी अध्यक्ष थे, पर भारत का प्रधानमंत्री के चुनाव में निर्णायक हाथ महात्मा गांधी का था.
साल 1964 में पंडित नेहरू के निधन के बाद कई वरिष्ठ नेता उनकी जगह लेना चाहते थे, पर ठीक से अंग्रेजी और हिंदी का एक शब्द न बोल पाने वाले एक दक्षिण भारतीय नेता ने अगले दो प्रधानमंत्रियों- लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी- के चयन में निर्णायक भूमिका निभायी.
मद्रास प्रांत के तीन बार मुख्यमंत्री रहे के कामराज ने दो अक्तूबर, 1963 को इस्तीफा देकर कांग्रेस के अध्यक्ष बने, ताकि वे कामराज योजना को साकार कर सकें. तब नेहरू बीमार चल रहे थे और कामराज पार्टी चला रहे थे. नेहरू के निधन के बाद गुलजारीलाल नंदा अंतरिम प्रधानमंत्री बने, पर यह कामराज की कुशलता थी कि उन्होंने छोटे कद के लाल बहादुर शास्त्री को उस दौर के सबसे बड़े कांग्रेसी नेहरू का उत्तराधिकारी बनाया.
कामराज, जगजीवन राम और अन्य नेताओं पर अपनी इच्छा इसलिए थोप सके, क्योंकि वे खुद प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे. जब कुछ समय बाद ताशकंद में शास्त्री की मौत हुई, तो कामराज ने फिर शतरंज की बिसात बिछा दी. उन्होंने सभी पुराने नेताओं का विरोध किया और इंदिरा गांधी के समर्थन में खड़े हुए. इस तरह उन्हें किंगमेकर कहा गया. खैर, उन्हें जल्दी ही किंगमेकर को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा था.
राजीव गांधी की हत्या के बाद किंगमेकर फिर सक्रिय हुए और सोनिया गांधी के पार्टी की कमान संभालने से मना कर देने के बाद संभावित माने जाने वालों को पद नहीं मिला. प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी आदि की नजर पार्टी के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद पर थी. केरल के चतुर खिलाड़ी और गांधी परिवार के नजदीकी के करुणाकरण ने उन्हें अध्यक्ष के रूप में पीवी नरसिम्हा राव को स्वीकारने के लिए तैयार किया.
संयोग से राजीव ने राव को संसद में जगह न देकर राजनीतिक मरूस्थल में भेज दिया था. राव किंग रहे, पर किंगमेकर न बन सके और पार्टी की हार के बाद उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. सोनिया किंगमेकर बनीं और अब भी पार्टी की कमान उन्हीं के पास है, पर पार्टी के पास नाम मात्र की राजनीतिक बादशाहत के लिए लड़ सकने वाले सैनिक बहुत कम बचे हैं.
औसत के कानून ने औसत के नेतृत्व को पनपने का अवसर दे दिया. फिर भी कांग्रेस के बिना कोई विकल्प कारगर नहीं हो सकता है, पर कांग्रेस समेत विपक्ष को एक किंग की जरूरत है, जो छोटे-छोटे रजवाड़ों को एकजुट कर सके, पर इससे पहले उसे किंगमेजर खोजना होगा. तभी उसका उद्धार हो सकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
Gulabi Jagat
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