सम्पादकीय

भारतीय ज्ञान परंपरा का विरोध, ज्ञान-विज्ञान पर पहरे बैठाने की मानसिकता आज के दौर में बिल्कुल भी स्वीकार नहीं

Gulabi
7 Jan 2022 5:59 AM GMT
भारतीय ज्ञान परंपरा का विरोध, ज्ञान-विज्ञान पर पहरे बैठाने की मानसिकता आज के दौर में बिल्कुल भी स्वीकार नहीं
x
उक्त कैलेंडर में आर्यो के आक्रमण को लेकर गढ़े गए मिथक को अकाट्य तर्को एवं तथ्यों के आधार पर निरस्त किया गया है
प्रणय कुमार। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर के 'रिकवरी आफ द फाउंडेशन आफ इंडियन नालेज सिस्टम' शीर्षक से जारी वर्ष 2022 के कैलेंडर पर उभरा विवाद एक बार फिर यह बताता है कि एक खास एजेंडे के तहत मनगढ़ंत इतिहास लिखने वाले अभी भी सक्रिय हैं। इस कैलेंडर पर आपत्ति भारतीय ज्ञान परंपरा का भी विरोध है।
उक्त कैलेंडर में आर्यो के आक्रमण को लेकर गढ़े गए मिथक को अकाट्य तर्को एवं तथ्यों के आधार पर निरस्त किया गया है। इस कैलेंडर में वेदों-पुराणों-महाकाव्यों से तमाम संदर्भो एवं साक्ष्यों को उद्धृत करते हुए हर मास के लिए दिए गए चित्रों-श्लोकों-उद्धरणों आदि के माध्यम से यह सिद्ध किया गया है कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आए, अपितु वे भारत के ही मूल निवासी थे। इसके समर्थन में स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद एवं अन्य मनीषियों के कथनों एवं विज्ञान-सम्मत दृष्टांतों का भी संदर्भ दिया गया है। इसे लेकर तमाम वामपंथी संगठनों एवं बुद्धिजीवियों ने विरोध करना प्रारंभ कर दिया। वे शोधपरक निष्कर्षो को भी हिंदुत्व का प्रचार-प्रसार बताकर अप्रासंगिक करार दे रहे हैं।
वास्तव में वे इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं कि आर्य कोई प्रजातिसूचक शब्द नहीं, अपितु गुणसूचक शब्द है। रामायण, महाभारत एवं पुराण ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं कि भारतीय स्त्रियां अपने पति को 'आर्यपुत्र' या 'आर्यश्रेष्ठ' कहकर संबोधित करती थीं। आर्य यहां के मूल निवासी थे इसीलिए भारत वर्ष का एक नाम आर्यावर्त भी है। द्रविड़ भी प्रजाति का द्योतक न होकर स्थान का परिचायक है। महाभारत में राजसूय यज्ञ से पूर्व सहदेव के दिग्विजय के समय द्रविड़ देश का वर्णन आता है।
अंग्रेजों के आगमन से पूर्व, एक भी ऐसा वृत्तांत-दृष्टांत, स्नेत-साहित्य, ग्रंथ-आख्यान नहीं मिलता, जिनमें आर्य-द्रविड़ संघर्ष का उल्लेख भर भी हो। क्या यह संभव है कि विजितों-विजेताओं में से किसी के भी ग्रंथ, लोककथा या सामूहिक स्मृतियों में इतने महत्वपूर्ण युद्ध का उल्लेख मात्र न हो? आर्य यदि कथित रूप से बाहरी या आक्रांता जाति है तो क्या यह तर्कसंगत एवं स्वाभाविक है कि उसकी सांस्कृतिक चेतना, पुरातन स्मृतियों एवं उससे जुड़े किसी भी ग्रंथ में उसके मूल स्थान की परंपरा, मान्यता आदि की झलक भर न हो? क्यों कोई वामपंथी इतिहासकार आज तक यह नहीं बता सका कि आर्य यदि आक्रांता थे तो उनका नेतृत्वकर्ता कौन था? क्या यह संभव है कि हारी हुई जाति विजेताओं की भाषा-संस्कृति को शब्दश: और समग्रत: आत्मसात कर ले? लोकभाषाओं की स्वतंत्र-सहायक धाराओं के बावजूद क्या संस्कृत संपूर्ण भारत के ज्ञान-विज्ञान और साहित्य की भाषा नहीं रही? क्या दक्षिण के कण्व, अगस्त्य, शंकराचार्य, मध्वाचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य आदि ऋषि वैदिक संस्कृति के सर्वमान्य आचार्यो और दार्शनिकों में से एक नहीं?
सत्य यह है कि निहित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आर्य-द्रविड़ संघर्ष की संपूर्ण अवधारणा ही अंग्रेजों द्वारा विकसित की गई। वे इस सिद्धांत को स्थापित कर 'बांटो और राज करो' की अपनी नीति के अलावा ब्रिटिश आधिपत्य के विरुद्ध व्याप्त देशव्यापी विरोध की धार को कुंद करना चाहते थे। वे भारतीय स्वत्व एवं स्वाभिमान को कुचल यह प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे थे कि इस देश का तो कोई मूल समाज है ही नहीं। यहां तो काफिले आते गए और कारवां बसता गया। इसीलिए भारत पर अंग्रेजों के आधिपत्य में आपत्तिजनक और अस्वाभाविक क्या है! वामपंथियों एवं औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त लोगों ने इसे हाथों-हाथ इसलिए लिया, क्योंकि इस एक सिद्धांत के स्थापित होते ही प्राचीन भारत वर्ष की समृद्ध ज्ञान-परंपरा पर से भारतीय भूभाग से संतानवत जुड़े समाज का संबंध एवं अधिकार, मान एवं गौरव नष्ट होता है। बाहरी बनाम मूल, आक्रांता बनाम विजित, उत्पीड़क बनाम पीड़ित का सारा विमर्श ही कमजोर पड़ जाता है।
दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से पर्याप्त संरक्षण पाकर उन्होंने और जोर-शोर से इसका प्रचार-प्रसार किया, ताकि इस देश का मूल समाज भविष्य में कभी सीना तान, सिर ऊंचा कर खड़ा न हो सके। उन्होंने भारत के मूल समाज को आर्य-द्रविड़ में बांटने की कुचेष्टा कर जहां एक ओर उन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के तल पर दुर्बल करने का प्रयास किया तो वहीं सभ्यता के पथ-प्रदर्शक एवं विश्वगुरु के उसके स्वाभाविक दावे को भी खारिज करने की कोशिशें लगातार जारी रखीं।
उल्लेखनीय है कि सिनौली (बागपत, उत्तर प्रदेश) और राखीगढ़ी (हरियाणा) में पुरातत्वविदों द्वारा किए गए हालिया उत्खनन और गहन शोध के निष्कर्ष भी यही हैं कि आर्य बाहर से नहीं आए। राखीगढ़ी में प्राप्त नमस्कार की मुद्रा वाली मूर्ति और आरे पहियों वाले रथ, सिनौली से प्राप्त 2000 से 1800 ईसा पूर्व की ताम्र-मूर्तियों से सुसज्जित रथ वेदों एवं महाकाव्यों में वर्णित रथों के उल्लेख को सही ठहराते हैं। भिन्न-भिन्न अवसरों पर किए गए आनुवंशिक गुणसूत्रों के तमाम परीक्षणों के आधार पर भी यही सिद्ध होता आया है कि समस्त भारतवासी एक ही पूर्वज की संतान हैं।
वास्तव में आइआइटी, खड़गपुर द्वारा तैयार किए गए कैलेंडर का स्वागत किया जाना चाहिए। उसे भविष्य के विशद एवं व्यापक शोध के लिए दिशा-निर्देशक स्नेत के रूप में उपयोग करना चाहिए, न कि उसका विरोध कर नवीन सोच, मौलिक शोध एवं बहुपक्षीय विमर्श को बाधित करना चाहिए। ज्ञान-विज्ञान पर पहरे बैठाने या विचारधारा के खूंटे से बांधे रखने की मानसिकता और हठधर्मिता आज के तार्किक एवं वैज्ञानिक दौर में कदापि स्वीकार नहीं की जा सकती।

(लेखक शिक्षाविद् एवं सामाजिक संस्था 'शिक्षा सोपान' के संस्थापक हैं)
Next Story