सम्पादकीय

अवसर बनाम अवसाद

Tara Tandi
2 July 2021 2:14 PM GMT
अवसर बनाम अवसाद
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क | सूर्यप्रकाश चतुर्वेद | ठीक ही कहा जाता है कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है। जितने भी नए शोध हुए और नई-नई चीजें ईजाद हुर्इं, वह जरूरत पड़ने पर की गई कोशिशों का ही प्रतिफल है। किसी ने क्या खूब कहा है- 'इंसां न जीते जी करे तौबा खताओं से, मजबूरियों ने कितने फरिश्ते बनाए हैं'। आशय यही है कि जितने भी संत, पैगंबर और सुधारक फरिश्ते हुए हैं, वे अधिकतर जरूरत और मजबूरियों की ही देन हैं। इसलिए कोई ताज्जुब नहीं कि महामारी के दौरान भी कई लोग मजबूरी में पुराने काम का छोड़ कर कुछ नया करने की और आकर्षित हुए। जो भी हो, 'आपदा में अवसर' ढूंढ़ने का मुहावरा खूब चला। इस त्रासदी के दौरान कुछ लोगों ने आपदा में भी अवसर तलाश लिया। कुछ लोग पूरी निष्ठा और ईमानदारी से कुछ नया करने लगे, वे खुश हैं। यह सकारात्मक पहलू है, पर इसी के साथ कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कुछ नया करने की कोशिश में किसी भी हद तक जाते नजर आए, भले ही वह कितना भी अनैतिक वह आपत्तिजनक क्यों न हो।

यह सच है कि महामारी के लंबे दौर और पूर्णबंदी के कारण बहुत से लोगों का काम छिन गया और लोग बेरोजगार हो गए। इनमें प्रमुख हैं निजी स्कूलों के शिक्षक, ड्राइवर, दुकानों में छोटा-मोटा काम करने वाले, शादी-ब्याह और होटल उद्योग से जुड़े लोग। यहां तक कि बड़ी-बड़ी कंपनियों ने अपने कर्मचारियों की छंटनी कर दी। कई बड़े नगरों से बेरोजगार हुए युवक बड़ी संख्या में घर की ओर पलायन करते नजर आए। इस बुरे दौर में भी कई ऐसे भी थे जो उदास होकर हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहने के बजाय नए काम करते नजर आए। उन्होंने जीवट दिखाया और नए अवसर तलाशे। मसलन, कई शिक्षक आॅनलाइन ट्यूशन पढ़ाने लगे। एक व्यक्ति एक डॉक्टर का ड्राइवर था। काम छूटने के बाद वह बैटरी रिक्शा यानी ई-रिक्शा चलाता नजर आया। दूसरा पहले अपने वाहन से छोटे बच्चों को स्कूल ले जाता और घर छोड़ता था। स्कूल बंद हैं, तो उसने अपनी वाहन बेच कर अगरबत्ती बनाने की मशीन खरीद ली और अब अगरबत्ती बना कर बेचता है। कुछ लोग संगीत का वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर साझा कर रहे हैं। कुछ लोग योग या शारीरिक सेहत के लिए विभिन्न कसरतों का वीडियो बना कर उसे बेच रहे हैं। कुछ परिवार ऐसे भी हैं जो अचार वह पापड़ बना कर इधर-उधर भेज कर पैसे कमा रहे हैं।
ये सभी काम समूह बना कर इंटरनेट के जरिए या आॅनलाइन हो रहे हैं। यह महामारी में कार्यरत लोगों का सकारात्मक पक्ष हुआ। लेकिन इसका दूसरा या भयावह और शर्मनाक पहलू भी है। कुछ खुदगर्ज और जमाखोरों ने मुनाफा कमाने के लिए बीमारी और मौत में भी अवसर खोजने से बाज नहीं आए। देश में लाखों लोग संक्रमित हुए और अकस्मात आई इस विपदा से देश में हर चीज का संकट और तंगी शुरू हो गई। दवाई, अस्पताल, आॅक्सीजन, इंजेक्शन, अस्पताल, एंबुलेंस, शव-वाहन की किल्लत और यहां तक कि शवों के अंतिम संस्कार करने तक में दिक्कत। लोग खुली जगहों पर शव दहन करते और दफनाते देखे गए और नदियों में भी शव प्रभावित कर दिया गया। इसके समांतर जब जरूरी चीजों की कमी दिखी तो लोगों ने उनका संग्रहण करके उन्हें ऊंची कीमत पर बेचना शुरू कर दिया। दवा विक्रेता, नर्स, डॉक्टर से लेकर अस्पताल और समाज के अन्य जमाखोर भी बहती गंगा में हाथ धोकर पैसा लूटने में लग गए।

किसने सोचा था कि आपदा में अवसर ढूंढ़ने की बात का ऐसा दुरुपयोग करेंगे। कुछ दिनों तक तो स्थिति इतनी भयावह रही कि लोगों को शवों की अंत्येष्टि के लिए चार से छह दिन तक इंतजार करने को कहा गया। शव-दहन और अस्थियां देने तक को कमाई का अवसर बना लिया गया। कहने का मतलब यह कि कुछ लोगों ने हर संकट का फायदा उठाया और हर कमी को भुनाया। त्रासदी की दूसरी लहर के बाद तो लोग इतने डरे हुए थे कि अपने परिवार के संक्रमित होने के बाद पास तक नहीं जाते थे। यह नई प्रवृत्ति विकसित हुई, जिससे इंसानियत और संवेदनशीलता गहरे स्तर तक प्रभावित हुई।
यह सच है कि संकट में मुनाफाखोर और जमाखोर हमेशा से अधिक लाभ लेकर कमाई करते रहे हैं। पर राष्ट्रीय आपदा में भी लोग इतने संवेदनहीन और बेमुरव्वत हो जाएं, यह निश्चित ही शर्मनाक था। इसकी आशंका कम से कम मेरे जैसे लोगों को नहीं थी। लोग लाशों पर राजनीति करते नजर आए और इस बात पर बहस चल रही थी कि नदियों में बह गए शव इस राज्य के थे या उस राज्य के। साधारण-सी बात है कि शव थे तो इंसान के ही आखिर! इस पर क्यों बहस होनी चाहिए थी? किस मृतक के परिजनों ने शौक से नदी में बहा दिया था? सबके सब किसी न किसी मजबूरी में रहे होंगे। लेकिन सरकारें बहस करती रहें, लोग मरते रहें और कोई अपनी तिजोरी भरता रहे। ये किसी सभ्य समाज की सच्ची तस्वीरें नहीं हो सकतीं! गनीमत है कि कुछ भले लोग भी थे जो हर तरह से लोगों की मदद करते रहे और नए नायकों के रूप में उभर कर सामने आए।


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