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नवीनता अस्तित्व में बदलाव को इंगित करती है और हर किसी के लिए आकर्षक होती है
गिरीश्वर मिश्र। नवीनता अस्तित्व में बदलाव को इंगित करती है और हर किसी के लिए आकर्षक होती है। अज्ञात और अदृष्ट को लेकर हर कोई ज्यादा ही उत्सुक और कदाचित भयभीत भी रहता है। यह आकर्षण तब अतिरिक्त महत्व अर्जित कर लेता है, जब कोविड जैसी लंबी खिंची महामारी के बीच एकरसता और ठहराव आ चुका हो, पर कालचक्र तो रुकता नहीं। सारा जगत बदलाव की प्रक्रिया में रहता है। गतिशील दुनिया में द्रष्टा की दृष्टि और सृष्टि, दोनों ही परिवर्तनशील हैं और परिवर्तन में संभावनाओं की गुंजाइश बनी रहती है। इसलिए नए का स्वागत किया जाता है। नव वर्ष की इस घड़ी में सबका स्वागत है। इस अवसर पर देश की स्थिति पर गौर करते हुए वे अधूरे काम भी याद रहने चाहिए, जो देश और समाज के लिए इस नए वर्ष में अनिवार्य एजेंडा प्रस्तुत करते हैं। कोविड-19 महामारी के घाव अभी भी हरे हैं और उनके दूरगामी प्रभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती। विस्थापन और रोजगार के अवसरों को उपलब्ध कराने पर भी ध्यान देना जरूरी होगा।
बीते वर्ष आर्थिक मोर्चे पर उदारतापूर्वक कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए, ताकि सकारात्मक बदलाव आएं। इसके अच्छे परिणाम भी दिख रहे हैं। विदेशी मुद्रा भंडार आज अच्छी स्थिति में है, जीएसटी संकलन में सुधार दर्ज हो रहा है और जीडीपी आठ प्रतिशत के करीब अनुमानित है, लेकिन बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे जन जीवन के लिए त्रसदी बने हुए हैं। किसानों की समस्याओं का समाधान अभी भी प्रतीक्षित है। राष्ट्रीय राजमार्गों और मेट्रो का विस्तार अच्छे संकेत हैं, पर औद्योगिक उत्पादन अभी भी अपेक्षित स्तर से कम है। आर्थिक सुधारों और व्यापार का सुभीता बढ़ाने के लिए नियम-कानून में बदलाव जरूरी है।
सामरिक दृष्टि से सीमा पार और आंतरिक चुनौतियों का स्वरूप जटिल हो रहा है। इस मोर्चे पर सजगता जरूरी है। नए वर्ष के आगमन पर कोरोना के तेजी से फैलने वाले संस्करण ओमिक्रोन की दस्तक चिंताजनक है। उससे निपटने के लिए व्यापक तैयारी जरूरी है। यह राहत की बात है कि देश में 140 करोड़ लोगों को करोना का टीका लग चुका है। बूस्टर डोज और किशोरों के लिए टीकाकरण के लिए प्रधानमंत्री की घोषणा कोरोना से लड़ाई में मददगार होगी। स्वास्थ्य सुविधाओं की मुश्किल, दवाओं की किल्लत और अस्पतालों की शोषक वृत्ति पर नियंत्रण करने की सख्त जरूरत है। आयुष विभाग की योजनाओं और स्वास्थ्य बीमा की व्यवस्था शुरू हुई है, पर व्यवस्था की कमियों के चलते उसका समुचित लाभ नहीं पहुंच पा रहा है।
चुनाव, सत्ता हथियाने की लालसा और उससे जुड़े पैंतरे देशसेवा की जगह कमाऊ व्यवसाय का रूप लेती राजनीति को ही उजागर कर रहे हैं। इसी कारण राजनेताओं की साख भी घटी है। निर्वाचन आयोग की इस ताकीद से कि किसी दागी नेता को चुनाव में प्रत्याशी बनाने के लिए उचित कारण बताने होंगे, स्वच्छ राजनीति की कुछ आशा बंधती है। आज कमजोर विपक्ष किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहा है। निजी आक्षेप, बाहुबल का उपयोग और वंशवाद के इर्द-गिर्द ही राजनीतिक कार्यक्रम चल रहे हैं। क्या नए वर्ष में इस सब पर विराम लगेगा?
यह चिंता की बात है कि राजकाज और सामाजिक जीवन में व्यवधान पैदा करने वाली घटनाएं बढ़ रही हैं। आंदोलनों की नई शैली में राष्ट्रीय राजमार्ग जैसे सार्वजनिक स्थानों पर साल-साल भर जम जाना भी शामिल हो चुका है। भविष्य में इस तरह की परिस्थिति से बचने के लिए प्रभावी उपाय जरूरी हैं। प्रगति के लिए राजनीति की संस्कृति में जो बदलाव लाना आवश्यक हैं, उनकी इस नए वर्ष में पूर्ति होनी चाहिए।
देश के जीवन को प्राणवान बनाने में शिक्षा की प्रमुख भूमिका होती है। यह सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम है और भविष्य को गढ़ने का अवसर भी है। भारत, जो कभी वैश्विक ज्ञान केंद्र था, अब मेधावी छात्रों के लिए अनाकर्षक होता जा रहा है। यहां की संस्थाएं घोर उपेक्षा से जूझती रही हैं और पाठ्यचर्या की प्रासंगिकता प्रश्नांकित हो रही है। मौलिक अधिकार होने के बावजूद शिक्षा के अवसर सबको उपलब्ध नहीं हो रहे। नई शिक्षा नीति के तहत इन प्रश्नों पर ध्यान गया है, पर अभी बहुत कुछ करना शेष है। यह इस नए वर्ष में किया जाना चाहिए।
स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में नए भारत की तैयारी के लिए जिस तरह की गहन संलग्नता की तत्काल जरूरत है, उसकी कार्य योजना पर इस वर्ष बिना समय गंवाए अमल जरूरी है। इसमें नीति-नियंताओं के साथ आम जनता की भी भूमिका होगी। अंग्रेजों के औपनिवेशिक परिवेश ने भारत की जीवन पद्धति को उसकी शिक्षा व्यवस्था और शासन प्रणाली को अपने लाभ के लिए गैर भारतीय सांचे में ढाला। इसके फलस्वरूप हम पराई दृष्टि से स्वयं को और दुनिया को देखने के अभ्यस्त होते गए। नए भारत के लिए नीति निर्माण और योजना की वैचारिक प्रेरणा का केंद्र पश्चिम हो गया और जल्दी से जल्दी पश्चिम जैसा विकसित बनना हमारा लक्ष्य बन गया।
औपनिवेशिकता के तारतम्य में वैश्वीकरण की आड़ में पश्चिमी देशों के नव उपनिवेशवाद से वह और पोषित हो रहा है। आज हम देश को जहां खड़े पा रहे हैं और जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं, उनका एक मुख्य कारण अपने स्वभाव के विरुद्ध पराई दृष्टि के अनुसार जीवनचर्या अपनाना है। देश को सशक्त और आत्मनिर्भर बनने के लिए स्वदेशी अर्थात अपने स्वभाव और अपनी जरूरत के मुताबिक देशज व्यवस्था, ज्ञान संपदा और जीवन पद्धति की ओर जाता है। यह लोक को सशक्त बना सकता है और उससे रोजगार के अवसर भी बढ़ते हैं और पलायन की समस्या भी हल होती है। नए साल में इन चुनौतियों की ओर विशेष ध्यान देना होगा।
(लेखक पूर्व कुलपति एवं पूर्व प्रोफेसर हैं)
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