सम्पादकीय

भारत-बांग्लादेश संबंधों को नया आयाम देने का अवसर, मगर कुछ अवरोध अभी भी कायम

Gulabi Jagat
6 Sep 2022 1:19 PM GMT
भारत-बांग्लादेश संबंधों को नया आयाम देने का अवसर, मगर कुछ अवरोध अभी भी कायम
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ब्रिगेडियर आरपी सिंह : बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना का चार दिवसीय भारत दौरा आरंभ हो गया है। भारत-बांग्लादेश के संबंध बहुत विशिष्ट हैं, क्योंकि बांग्लादेश के स्वतंत्र अस्तित्व में भारत की निर्णायक भूमिका रही। स्वयं मुझे बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में सेवा देने का अवसर मिला। उस वक्त की तमाम यादें मेरे जेहन में आज भी जिंदा हैं। मुझे भलीभांति याद है कि कैसे दोनों पक्षों के सैनिकों ने नए राष्ट्र के सृजन में अपना रक्त बहाया था। कई बार तो यही पहचान में नहीं आता था कि बलिदानी सैनिक भारतीय है या बांग्लादेशी। हम लोग न केवल उस आततायी के विरुद्ध लड़े, जिसने सभी मानवीय मूल्यों को तिलांजलि दे दी थी, बल्कि हमारा संघर्ष भावी पीढ़ी की समृद्धि को सुनिश्चित करने से भी जुड़ा था।
51 साल पहले दोनों देशों के बीच सीमा की वह रेखा धुंधली पड़ गई थी, जब बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) में सताए जा रहे लाखों लोगों के लिए भारत ने अपने दरवाजे खोल दिए थे। भारत उस समय गरीब देश ही था, लेकिन इसके बावजूद उसने इंसानियत और बड़ा दिल दिखाया। भारतीय सेना के मन में कभी ऐसा भाव नहीं आया कि बांग्लादेशी सेना या मुक्ति वाहिनी किसी और देश से जुड़ी है और हमें कभी अहसास नहीं हुआ कि हम किसी दूसरे देश के लिए लड़ रहे हैं। मात्र 12 दिनों की लड़ाई में हमने पाकिस्तानियों के हौसले पस्त करके उन्हें हमेशा के लिए एक ऐसी टीस दी, जिसे वे चाहकर भी नहीं भुला पाते।
बीते पांच दशक में कुछ समय के लिए अपवाद को छोड़ दिया जाए तो बांग्लादेश का झुकाव भारत की ओर रहा है। दोनों देशों ने इस दौरान काफी कुछ हासिल किया है। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के परिवार ने अपनी मातृभूमि के लिए इतना बड़ा बलिदान दिया है, जिसकी मुश्किल से ही दूसरी मिसाल मिलेगी। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने राष्ट्र के लिए पारिवारिक जीवन का परित्याग कर दिया। इसीलिए मुक्ति संग्राम के हमारे जैसे वेटरंस की आकांक्षाओं की पूर्ति के दृष्टिकोण से दोनों ही आदर्श राष्ट्रप्रमुख हैं।
बतौर प्रधानमंत्री मोदी का कार्यकाल इस मामले में निराश भी नहीं करता। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से द्विपक्षीय रिश्ते और परवान चढ़े हैं, जिनमें कई अहम उपलब्धियां भी हासिल हुईं। मोदी सरकार ने बांग्लादेश के साथ दशकों पुराने सीमा विवाद को सुलझा लिया। वहीं बांग्लादेश ने भी अपने देश में भारत-विरोधी तत्वों पर करारा प्रहार किया, जिससे पूर्वोत्तर राज्यों में अलगाववाद की आग बड़ी हद तक बुझी है। दोनों देशों के बीच रेल, सड़क, जल परिवहन, पाइपलाइन और बिजली ट्रांसमिशन लाइंस जैसी सुविधाओं के विस्तार के लिए मजबूत संभावनाएं बनी हैं। यह न केवल बांग्लादेश, बल्कि पूर्वोत्तर के हमारे राज्यों की प्रगति के लिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि उनकी आर्थिकी ऐतिहासिक एवं भौगोलिक रूप से एक दूसरे से जुड़ी हुई है।
दोनों देशों ने आपसी सहयोग से कोविड-19 महामारी संकट का सामना भी कुशलतापूर्वक किया। इसके बावजूद द्विपक्षीय मोर्चे पर कुछ छोटी-बड़ी चुनौतियां कायम हैं। दोनों नेताओं को इस दिशा में तात्कालिक रूप से कदम उठाने होंगे। जैसे कि बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली बांग्लादेश की तमाम नदियों का पानी दोनों देशों के एक बड़े इलाके में बाढ़ की विभीषिका का कारण बनता है। ऐसे में उन पर छोटे बांध बनाए जाने के विकल्प पर विचार किया जाए। इससे संरक्षित पानी और बड़े पैमाने पर बनने वाली बिजली अंतरराष्ट्रीय सीमा के दोनों ओर तमाम लोगों का भला करेगी। सीमा पर कभी-कभार होने वाली मारा-मारी के साथ ही अवैध घुसपैठ की समस्या द्विपक्षीय रिश्तों में बड़ी बाधा के रूप में कायम है, जिसे दूर करना होगा। इसके साथ ही दोनों देश ऐसे क्षेत्रों को चिह्नित करें, जहां मेक इन इंडिया और बांग्लादेश के मामले में सहयोग किया जा सके।
अवैध घुसपैठ रोकने के लिए दोनों देशों के सभी नागरिकों की बायोमीट्रिक पहचान का काम तेजी से करना होगा। सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ को अपना मानवीय दृष्टिकोण कायम रखना चाहिए। यदि उन्हें कुछ गड़बड़ लगे तो वे आधुनिक तकनीक के माध्यम से उसकी पड़ताल करें और लोगों की पहचान कर उन्हें वापस भेजें। सीमावर्ती इलाकों का संयुक्त रूप से त्वरित विकास करना होगा। सीमा पर होने वाले अपराधों को रोकने के लिए संयुक्त तंत्र को और प्रभावी बनाना होगा। मीडिया और नेताओं को भी एक दूसरे से जुड़े तनातनी वाले मुद्दों पर आक्रामक भाषा से परहेज करना चाहिए।
हमें अपने अतीत को भी साझा करना होगा। याद रहे कि आपरेशन जैकपाट के अंतर्गत मुक्ति वाहिनी के एक लाख से अधिक कैडरों को भारत द्वारा सात शिविरों में प्रशिक्षित किया गया था। उन्हीं में से एक मूर्ति कैंप भी शामिल था, जहां अव्वल दर्जे के अधिकारियों को प्रशिक्षित किया गया। उनमें बलिदानी कैप्टन शेख कमाल भी शामिल थे। वह प्रधानमंत्री शेख हसीना के भाई थे, जिनकी प्रशिक्षण प्रक्रिया से मेरा प्रत्यक्ष जुड़ाव रहा। दुर्भाग्य की बात है कि मुक्ति संग्राम में मूर्ति कैंप की भूमिका से भारत में गिनती के लोग ही अवगत होंगे, जबकि बांग्लादेश में अंग्रेजी एवं बांग्ला के वृत्तांतों में उसका संदर्भ तो मिलता है, पर उसकी व्यापक चर्चा अपेक्षित अनुपात में न हो पाई। इसलिए उसकी स्मृति में एक स्मारक अवश्य बनाया जाना चाहिए।
उस युद्ध में शामिल हम सभी सैनिकों पर अब उम्र हावी हो रही है। कुछ समय बाद मुक्ति योद्धाओं की सिर्फ स्मृतियां ही शेष रह जाएंगी। उनके जाने से मूल्यवान सूचनाएं भी काल-कवलित हो जाएंगी। इसलिए ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में समग्र घटनाक्रम का नीर-क्षीर विश्लेषण किया जाए। किताबों, टीवी धारावाहिकों और फिल्मों के माध्यम से उनकी कहानी भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान तक सुनाई जाए। अफसोस की बात है कि तमाम घटनाओं को लेकर भारतीयों और बांग्लादेशियों में ही मतैक्य नहीं है। ऐसे में एक साझा आधिकारिक इतिहास की सृष्टि की आवश्यकता महसूस होती है। दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों को इन सभी पहलुओं पर विचार करना चाहिए।
(लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का हिस्सा रहे हैं)
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