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अब टंटया मामा के जरिए निमाड़-मालवा की राजनीति नए सिरे से बदलने की कोशिश हो रही है
खंडवा जिले के ग्राम बडोदा अहीर में गौरव कलश यात्रा की शुरुआत करते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जब निमाड़ी बोली में यह कहा कि -उन बखत तुम्हरो मामो टंटया मामो थो,न अभी हऊं शिवराज मामो छे (उस वक्त तुम्हारी मदद के लिए टंटया मामा था तो इस वक्त शिवराज मामा है).
मुख्यमंत्री चौहान के यह वाक्य इस बात की ओर साफ इशारा करते हैं कि वे अपनी मामा की छवि का सहारा भील आदिवासियों के बीच पैठ बनाने के लिए कर रहे हैं. अंग्रेजों से लोहा लेने वाले जननायक टंटया भील को लोग मामा कहकर ही बुलाते थे. टंट्या भील के नाम के साथ जुड़ा यह मामा का संबोधन आज भी निमाड़-मालवा में भील आदिवासियों की पहचान बना हुआ है. टंट्या मामा अंग्रेजों के लिए भले ही लुटेरे या डकैत हों. लेकिन गरीबों के बीच उनकी पहचान रॉबिनहुड जैसी ही थी. मध्यप्रदेश की राजनीति के केन्द्र आदिवासी तो पहले ही थे. अब टंटया मामा के जरिए निमाड़-मालवा की राजनीति नए सिरे से बदलने की कोशिश हो रही है.
टंटया मामा की छवि जनता तक पहुंचाना क्यों जरूरी
निमाड़-मालवा अंचल में विधानसभा की कुल 65 सीटें हैं. इनमें 21 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. इलाका भील आदिवासी बाहुल्य है. गैर आरक्षित सीटों पर भी आदिवासी वोटर बेहद निर्णायक माना जाता है. इस इलाके के आदिवासी वोटरों को अपने पक्ष में करने के लिए भारतीय जनता पार्टी कई साल से कोशिश कर रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में इलाके की कई परंपरागत सीटें भाजपा के खाते से निकल गईं थीं. नतीजा राज्य में पंद्रह साल के बाद कांगे्रस की सत्ता में वापसी हो गई.
जयस सक्रिय
युवा आदिवासी संगठन जयस भी इस इलाके में सक्रिय है. इस संगठन को कांगे्रस पार्टी की बी टीम के तौर पर देखा जाता है. हाल ही में हुए खंडवा लोकसभा सीट उप चुनाव में जयस ने अपना कोई स्वतंत्र उम्मीदवार चुनाव में खड़ा नहीं किया. इसलिए भाजपा को मिले वोट कम हो गए. लोकसभा के आम चुनाव में भाजपा ने यह सीट लगभग पौने तीन लाख वोटों से जीती थी. उप चुनाव में हार-जीत का अंतर घटकर एक लाख से नीचे आ गया है. निमाड़-मालवा इलाके में भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा भी नहीं है, जिसके सहारे वह आदिवासियों को अपनी खींच सके. कई तरह के प्रयोग असफल रहे हैं.
पीएम मोदी का असर
लोकसभा आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर पहली बार झाबुआ की लोकसभा सीट भाजपा को मिली है. इससे पार्टी में उम्मीद भी जगी है. जोबट विधानसभा उपचुनाव के नतीजे भी भाजपा के पक्ष में गए. यद्यपि चुनाव जीतने वाली सुलोचना रावत की पृष्ठभूमि कांग्रेस की है. उप चुनाव से पहले उन्होंने दलबदल किया था. जोबट की जीत में यह साफ संदेश भाजपा को मिला कि जीत के लिए आदिवासियों के बीच लोकप्रिय चेहरा भी जरूरी है. भील आदिवासी को कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता है. कांग्रेस के पास चेहरे भी कई हैं. लेकिन,भाजपा पिछले डेढ़ दशक से हर वर्ग में शिवराज सिंह चौहान के चेहरा ही आगे रखकर चुनाव लड़ती रहती है. टंट्या भील के नाम का आक्रामक रूप से राजनीतिक उपयोग भाजपा पहली बार कर रही है.
शिवराज की मामा छवि का लाभ मिलेगा आदिवासियों के बीच?
राज्य में लाड़ली लक्ष्मी योजना की सफलता के बाद शिवराज सिंह चौहान मामा के रूप में लोकप्रिय हुए हैं. आदिवासियों के बीच टंटया भील मामा के रूप में लोकप्रिय रहे हैं. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी मामा की छवि को टंटया मामा से जोड़कर आदिवासियों के बीच पेश कर रहे हैं. टंटया की जन्म स्थली से गौरव कलश यात्रा शुरू करते हुए मुख्यमंत्री चौहान ने आदिवासियों से निमाड़ी बोली में कहा कि उन्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है. पहले टंट्या मामा थे, अब शिवराज मामा हैं. टंटया मामा की जन्मस्थली बडोदा अहीर की मिट्टी लेकर कलश यात्रा निकली है. चार दिसंबर को टंटया के बलिदान दिवस पर पातालपानी में बड़े सरकारी कार्यक्रम का आयोजन किया गया है. मुख्यमंत्री आदिवासियों से अपील कर रहे हैं कि वे जननायक को श्रद्धांजलि देने पातालपानी जरूर पहुंचें. मुख्यमंत्री ने कहा टंट्या मामा के बलिदान स्थल पातालपानी को नव-तीर्थ के रूप में विकसित कर वहां विशाल प्रतिमा स्थापित की जाएगी. सरकार ने पातालपानी रेलवे स्टेशन का नामकरण टंट्या मामा रेलवे स्टेशन रखने के लिए केन्द्र सरकार को प्रस्ताव भेजा है. इससे पहले सरकार भोपाल के हबीबगंज स्टेशन का नाम बदलकर रानी कमलापति कर चुकी है. रानी कमलापति गौंड आदिवासी थीं. निमाड़-मालवा की आदिवासी राजनीति के केन्द्र में इंदौर भी है. इस कारण यहां एक साथ दो स्थानों का नामकरण टंट्या भील के नाम पर किया जा रहा है. पहला भंवर कुआं चौराहा, दूसरा आईएसबीटी बस स्टैण्ड. आदिवासियों ने साहूकारों से लिए गए कर्ज को भी मुख्यमंत्री चौहान ने माफ करने की घोषणा की है.
टंट्या से जुड़ी पातालपानी की किवदंती
पातालपानी इंदौर जिले की महू तहसील में आता है. पातालपानी जलप्रपात की गहराई आज तक नापी नहीं जा सकी. किवदंती है कि इससे गिरने वाला पानी सीधे पाताल में जाता है. यह देश के सबसे खतरनाक जल प्रपातों (वाटर फॉल) में से एक है. हर साल कई दुर्घटनाएं यहां होती हैं. पातालपानी से जुड़ा एक सबसे रोचक तथ्य यह है कि हर ट्रेन को यहां स्टेशन पर कुछ देर रुकना ही होता है. चाहें वह मालगाड़ी हो या यात्री गाड़ी. गाड़ी का स्टॉपेज न हो तो भी ट्रेन को ड्राइवर बिना रुके आगे नहीं ले जाता. अंग्रेजों के समय से ही परंपरा है. किवदंती टंटया से ही जुड़ी हुई है. परंपरानुसार माना जाता है कि ट्रेन ड्राइवर टंटया मामा को सलामी देने रूकते हैं. टंट्या मामा को याद करने के लिए हर साल यहां आयोजन होते हैं. वर्ष 2016 में भी टंटया मामा की प्रतिमा लगाने की घोषणा मुख्यमंत्री ने की थी. मुख्यमंत्री चौहान ने फिर एलान किया है कि टंट्या भील की आदमकद प्रतिमा पातालपानी में लगाई जाएगी.
जानापाव भी रहा है राजनीति का केन्द्र
पातालपानी से कुछ किलोमीटर दूर जानापाव है. कहा जाता है कि यह भगवान श्री परशुराम की जन्म स्थली है. वर्ष 2008 के विधानसभा चुनाव से पहले जानापाव खूब चर्चा में रहा. जानापाव के जरिए भाजपा ने ब्राह्मण वोटरों को साधने की कोशिश की. कोशिश सफल भी रही. जानापाव को सात नदियों का उद्गम स्थल भी कहा जाता है. यहां सात नदियां चोरल, मोरल, कारम, अजनार, गंभीर, चंबल और उतेड़िया नदियां निकलती हैं. पवित्र तीर्थ जानापाव से दो दिशा में नदियां बहतीं हैं. ये नदियां चंबल में होती हुईं यमुना और गंगा से मिलती हैं और बंगाल की खाड़ी में जाती हैं. कारम नदी का पानी नर्मदा में मिलता है. इन नदियों के उद्गम स्थल पर कुंड बनाने की योजना है. जानापाव में पिछले चार साल से मंदिर का निर्माण भी जारी है. परशुराम मंदिर चार हजार वर्ग फीट में बन रहा है. अयोध्या में बनने वाले राम मंदिर की ही तर्ज पर परशुराम मंदिर के लिए भी राजस्थान से लाल पत्थर लाए गए हैं. मंदिर की ऊंचाई करीब साठ फीट होगी और इसकी लागत करीब पांच करोड़ रुपए बताई गई है. इस तीर्थस्थल पर ब्राह्मण समाज के लोगों की ही नहीं,बल्कि आदिवासियों की भी गहरी आस्था है.
टंटया आदिवासियों के रॉबिन हुडटंटया का प्रभाव मध्यप्रांत, सी-पी क्षेत्र, खानदेश, होशंगाबाद, बैतुल, महाराष्ट्र के पर्वतीय क्षेत्रों के अलावा मालवा के पथरी क्षेत्र तक फैला था. टंटया को अक्टूबर 1889 में फांसी की सजा सुनाई गई थी. फांसी 4 दिसंबर 1889 को दी गई थी. कहा जाता है कि फांसी के बाद उनके शव को पातालकोट रेलवे स्टेशन की पटरियों पर फेंक दिया गया था. 1857 की क्रांति के बाद के सालों में निमाड़-मालवा के इलाके में टंटया का नाम अंग्रेजों के लिए बड़ी परेशानी की वजह रहा.
ज्वार का सूखा पौधा तंटा
ज्वार के सूखे हुए लंबे और पतले पौधे को निमाड़ी में तंटा कहा जाता है. तंतया की कद-काठी का अंदाज भी उनके नाम से ही लगाया जा सकता है. अंग्रेजी दस्तावेजों में यह नाम टंटया के रूप में दर्ज है. अंग्रेजी पुलिस से टंटया का पहला टकराव जमीन पर कब्जे को लेकर हुआ. टंटया के पिता के मित्र शिवा ने जमीन पर कब्जा किया. कानूनी तौर पर कब्जा नहीं हटा तो टंटया ने बाहुबल का उपयोग किया. शिकायत के बाद पुलिस ने टंटया को गिरफ्तार कर लिया. जेल में बंद रहने के दौरान ही उनके मन में अंग्रेजी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का भाव देखने मिला.
अंग्रेजों के रिकॉर्ड में टंट्या एक अपराधी
अंग्रेजी पुलिस ने भी टंटया का पीछा नहीं छोड़ा. कभी चोरी,कभी लूट का मामला उनके खिलाफ दर्ज किया. अंग्रेजी दस्तावेजों में उनकी पहचान एक अपराधी और डाकू के रूप में दर्ज की गई. टंट्या ने साहूकारों-मालगुजारों से पीड़ित लोगों का गिरोह बनाया जो लूटपाट और डाका डालता था. गरीबों की सहायता करना, गरीब कन्याओं की शादी कराना, निर्धन और असहाय लोगों की मदद करने के कारण वो जननायक बनके के साथ ही लोगों के मामा भी बन गए. राज्य के कृषि मंत्री कमल पटेल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को टंटया मामा की छवि से जोड़ते हुए कहते हैं कि टंटया भी कन्याओं का विवाह कराते थे और शिवराज मामा भी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
दिनेश गुप्ता
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. सामाजिक, राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं. देश के तमाम बड़े संस्थानों के साथ आपका जुड़ाव रहा है.
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