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सम्पादकीय
OPINION: देश से धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं राजनेता, क्या कांग्रेस की राह पर बढ़ रहे बाकी राष्ट्रीय दल
Tara Tandi
6 May 2021 11:08 AM GMT
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भारतीय राजनीति में पिछले कुछ वर्षों से एक बड़ा अमुलभूत परिवर्तन हो रहा था
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| अजय-झा| भारतीय राजनीति (Indian Politics) में पिछले कुछ वर्षों से एक बड़ा अमुलभूत परिवर्तन हो रहा था जिसकी झलक अब साफ-साफ दिखने लगी है. स्टार प्रचारकों का अभाव. स्टार प्रचारक वह होते हैं जिन्हें देखने और सुनने लोग दूर-दूर से और स्वेक्षा से आते हैं और ऐसे प्रचारकों का प्रभाव क्षेत्र किसी क्षेत्र या राज्य की सीमा तक ही सिमित नहीं होता है.
स्टार प्रचारकों की कमी इन दिनों लगभग सभी दलों में दिखरही है. इसका सबसे बड़ा कारण है क्षेत्रीय दलों का भारत की राजनीति में बढ़ता प्रभाव और राष्ट्रिय दलों के भूमिका में लगातार गिरावट. कहने को तो भारत में अभी भी चुनाव आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त आठ राष्ट्रीय दल हैं, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस पार्टी,बहुजन समाज पार्टी,एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई और नेशनल पुपील्स पार्टी. आखिरी नाम जरा चौकाने वाला जरूर है क्योकि यह मेघालय का एक राज्य-स्तरीय दल है जो इन दिनों एनडीए का घटक है और मेघालय में सत्ता में है. चुनाव आयोग का नियम है कि कोई भी क्षेत्रीय दल चार निर्धारितआयाम में से किसी भी एक शर्त को भी पूरा करता है उसे राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता मिल जाती है. इस लिस्ट में समय के अनुसार फेर बदल होता रहता है. यह चार नियम है – तीन राज्यों से कम से कम 2 प्रतिशत लोकसभा सीट पर जीत; लोकसभा में कम से कम 4 सीट और चार राज्यों में लोकसभा चुनाव में कम से कम 6 प्रतिशत वोट का मिलना; चार राज्यों में क्षेत्रीय दल के रूप में मान्यता; और चार राज्यों में कम से कम 8 प्रतिशत मत का मिलना, भले ही उस दल को एक भी सीट पर जीत नसीब नहीं हुयी हो.
सही अर्थो में इन आठ राष्ट्रीय दलों में से सिर्फ बीजेपी और कांग्रेस पार्टी को ही राष्ट्रीय दल माना जा सकता है, और बाकी पांच पार्टियों का प्रभाव क्षेत्र बहुत ही सिमित है या बदलते परिवेश में उनके प्रभाव में गिरावट आई है. ये दल भले ही अन्य राज्यों में दो-तीन सीट जीत लेती हों, पर इन्हें सही अर्थों में राष्ट्रीय दल नहीं माना जा सकता.
क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व किसी व्यक्ति विशेष से जुड़ा होता है, उस नेता की लोकप्रियता या अलोकप्रियता से ही पार्टी का भविष्य तय होता है. यह नेता ऐसे वृक्ष होते हैं जिनकी क्षत्रछाया में कोई और पेड़ पनप ही नहीं सकता या पनपने नहीं दिया जाता. और कोई पनपता है तो उनका उस बड़े नेता के परिवार से होना अनिवार्य होता है.
क्या तृणमूल कांग्रेस या बीएसपी में ममता बनर्जी और मायावती के बाद कोई ऐसा नेता है जिसका जनता में खास प्रभाव हो? यही हाल हाल कमोबेश सभी क्षेत्रीय दलों में दीखता है. नतीजा इन पार्टियों में ऐसे नेता चिराग लेकर ढूंढने से भी नहीं मिलते हैं जो जनता के बीच अपने क्षेत्र से बाहर लोकप्रिय हों, क्योंकि ये बड़े क्षेत्रीय नेता किसी और को आगे बढ़ने का मौका ही नहीं देना चाहते ताकि उनके प्रभाव में कोई कमी ना हो जाए. इस दलों में किसी उदयमान नेता को शक की निगाह से देखा जाता है और उनकी प्रतिभा को दबा कर रखा जाता है.
दुर्भाग्यवश कांग्रेस पार्टी भी इन दिनों इसी बीमारी से ग्रसित है. कांग्रेस पार्टी में इन दिनों सिर्फ एक ही नेता और एक ही वक्ता है, राहुल गांधी. इसे किसी हद तक सोनिया गांधी की देन ही मानी जानी चाहिए. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के समय भी पार्टी किसी एक व्यक्ति और परिवार पर ही अपनी जीत के लिए आश्रित नहीं होता था.गांधी परिवार से बाहर नारायण दत्त तिवारी, माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट जैसे नेता और ओजस्वी वक्ता थे जिनका प्रभाव क्षेत्र किसी एक राज्य तक सिमित नही था. सोनिया गांधी का 1998 में अध्यक्ष बनने के बाद और कुछ बड़े नेताओं के निधन के बाद पार्टी में नेताओं और वक्ताओं की कमी आ गयी जो गांधी परिवार को सूट करता था. पार्टी उन पर और उनके परिवार पर निर्भर होती चली गयी. उनकी स्थिति पार्टी में मजबूत होती गयी और जनता के बीच कमजोर.
अब सोनिया गांधी के अस्वस्थ होने के कारण सारी जिम्मेदारी राहुल गांधी के कमजोर कंधो पर आ गयी है जिसे वह संभालने में असक्षम होते दिख रहे हैं. कांग्रेस पार्टी में लगातार गिरावट का एक बहुत बड़ा कारण यही है. ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस पार्टी में और कोई अच्छा वक्ता बचा नहीं है जिसे सुनने लोग ना आये, पर उनका हश्र सबके सामने है. ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस पार्टी छोड़नी पड़ी और सचिन पायलट को जानबूझ कर राजस्थान तक ही सिमित रखा गया है. वरिष्ट नेताओं में भी कई ऐसे नेता हैं, पर उन्हें दरकिनार कर दिया गया है, ताकि परिवार पर कोई आंच ना आये.
रही बात बीजेपी की तो इस दल में भी पहले जैसी बात अब नहीं रही. एक ज़माने में अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी, राजमाता विजयराजे सिंधिया, नरेन्द्र मोदी, प्रमोद महाजन, उमा भारती,शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नेता थे जिन्हें देखने और सुनने लोग दूर दूर से आते थे. पर अब बीजेपी की निर्भरता भी मोदी और अमित शाह पर बढ़ गयी है. पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा, और दो केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी भी हैं, पर इन सबका प्रभाव सिमित है.
चुनाव और चुनाव प्रचार में शामिल होने वाले नेताओं की नर्सरी होती थी. अब चूंकि इन नर्सरियों में पौधे लगाये ही नहीं जाते हैं तो इसका सीधा असर संसद के भाषणों पर दिखता है. सांसदों की क्वालिटी में अब पहले जैसी बात नहीं रही. नतीजन, अब नेता तो मिलते हैं और देश से राजनेता (statesman) धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं.
स्थिति दिन पर दिन गंभीर होती जा रही है. पार्टी से ज्यादा कुर्सी के चिंता के कारण यह गिरावट आगे और भी बढ़ने वाली है. यह सोचना भी संभव नहीं है कि ममता बनर्जी, मायावती जैसे नेताओं के बाद उनकी पार्टी का क्या होगा? शायद वही तो लोकजनशक्ति पार्टी का हुआ है या फिर जो कांग्रेस पार्टी के साथ हो रहा है.
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