सम्पादकीय

Opinion: हिंसक मोड़ ले सकता है झारखंड का भाषा विवाद, बिहारी बोली बोलने वाले भी होने लगे हैं आंदोलित

Gulabi
14 Feb 2022 8:56 AM GMT
Opinion: हिंसक मोड़ ले सकता है झारखंड का भाषा विवाद, बिहारी बोली बोलने वाले भी होने लगे हैं आंदोलित
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बिहारी बोली बोलने वाले भी होने लगे हैं आंदोलित
झारखंड में भाषा को लेकर उठा विवाद शांत होने का नाम नहीं ले रहा है. भोजपुरी, मगही, अंगिका और मैथिली को स्थानीय भाषा का दर्जा दिए जाने का विरोध तो हो ही रहा था और हेमंत सरकार इसे अपने तरीके से हल करने की कोशिश कर रही थी, लेकिन इसी बीच इन बिहारी बोलियों को बोलने वाले लोग भी अब इकट्ठे होकर अपनी भाषा के पक्ष में आंदोलन चलाने लगे हैं. जब बात सरकार और आंदोलनकारी के बीच हो, तो मामले को नियंत्रण में लाना सरकार के लिए आसान होता है, लेकिन जब दो विरोधी पक्ष आपस में टकराने लगे, तो सरकार के लिए मुश्किलें और बढ़ जाती हैं. इसी स्थिति का सामना अब हेमंत सोरेन की सरकार कर रही है.
वैसे इस तरह के भाषाई संघर्ष से बचा जाना चाहिए था, पर स्थानीय लोगों की स्थानीयता की भावना को तुष्ट करने के लिए झारखंड की कुछ बोलियों को स्थानीय भाषा का दर्जा दे दिया गया और जिला स्तर पर होने वाली नियुक्तियों के लिए उस भाषा को जानने या बोलने वालों को वरीयता दी जाने लगी. जाहिर है, भाषा की मान्यता सिर्फ भाषाई भावनात्मकता तक नहीं थी, बल्कि उसका संबंध सरकारी रोजगार पाने की बेहतर संभावना से हो गया.
लेकिन झारखंड बिहार के विभाजन से बना है. विभाजन के पहले और बाद में भी लाखों लोग वहां जाकर बस चुके हैं. आजादी के बाद भारत का सबसे ज्यादा सार्वजनिक निवेश दक्षिण बिहार में ही हुआ था, जो आज झारखंड के नाम से जाना जाता है. खनिज संपदा तो यंहा पहले से ही भारी पैमाने पर मौजूद थी. इसलिए देश के दूसरे इलाकों से लाखों लोग यंहा आकर बस गए. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से यहां आकर बसने वाले लोगों की संख्या उनमें सबसे ज्यादा थी और इन लोगों की बोली भोजपुरी, मगही, मैथिली और अंगिका है.
सिर्फ बाहर से आकर बसने वाले लोग ही वहां अंगिका, मगही और भोजपुरी नहीं बोलते हैं, बल्कि बिहार से सटे जिलों के लोग वहां आदिवासियों से पहले से ही रह रहे हैं और उनकी मातृभाषा सदियों से भोजपुरी, मगही और अंगिका है. भाषाई आंदोलनकारी 1932 के खतियान को आधार बनाकर झारखंड के वाशिंदे की पहचान करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन पलामू, गढ़वा, चतरा, कोडरमा, और अन्य जिलों के लोगों के पास 1932 से पहले से ही वहां की जमीन पर मिल्कियत है और वे इन चारों बिहारी बोलियों को बोलते हैं. इसके कारण सोरेन सरकार के लिए उनकी भाषा या बोलियों को दोयम दर्जे की मान्यता देना संभव नहीं दिखाई देता और यदि वे ऐसा करते हैं, तो इसका इन क्षेत्रों में भारी विरोध होगा.
विरोध होने भी लगा है. समाजवादी नेता गौतम सागर राणा ने भोजपुरी, मगही, अंगिका और मैथिल भाषाभाषियों का एक मंच बना लिया है. मंच अभी शुरुआती दौर में है, लेकिन यदि सरकार ने इन चारों बोलियों को मान्यता सूची से बाहर कर दिया, तो मंच का भारी विस्तार हो सकता है और उनका आंदोलन झारखंडियों के आंदोलन से भी तीव्र हो सकता है, क्योंकि बिहार की सीमा से सटे झारखंड में सैंकड़ों साल से रह रहे लोग अपने का बाहरी कहे जाने पर तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं. यदि इन चार बोलियों के बोलने के कारण उनपर बिहारी पहचान थोपी जाती है, तो झारखंड के भाषाई आधार पर दो भागों में बंट जाने का खतरा है. एक भाग तो झारखंडी भाषा समूहों को बोलने वालों का होगा और दूसरा भाग बिहारी बोलियों के बोलने वालों का होगा.
दिलचस्प बात यह होगी कि दोनों वहां के मूल निवासी ही होंगे. हां, रांची, जमेशदपुर, बोकारो और धनबाद में इन बोलियों के बोलने वाले बाहर से आए हुए हैं, लेकिन उनमे से भी अधिकांश तीन-चार पीढ़ियों से वहां रह रहे हैं. यदि दोनों तरफ से गोलबंदी हुई, तो हिंसक टकराव के भी आसार बन सकते हैं.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

संतोष कुमार
Editor,Jharkhand

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