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वन्यजीवों एवं उनके प्राकृतिक परिवेशों की सुरक्षा व विस्तार हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास योजनाओं के केंद्र में हों, तभी हम अपने अक्षय विकास के पथ पर बढ़ सकेंगे।
विगत पांच दशकों में दुनिया में मानव आबादी लगभग दोगुना से अधिक बढ़ गई है, मगर इतने समय में ही वन्यजीवों की आबादी में 69 फीसदी की गिरावट आई है। विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की 2022 की रिपोर्ट में प्रकाशित यह तथ्य धरती पर पारिस्थितिकी तख्तापलट जैसी घटना को दर्शाता है। विश्व वन्यजीव कोष की नवीनतम लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट के अनुसार, स्तनधारियों, पक्षियों, उभयचर, सरीसृप और मछली सहित अनेक प्रजातियों की संख्या में 1970 और 2018 के मध्य भारी गिरावट देखी गई है। भारत भी वन्यजीवों के उजड़ने से अछूता नहीं है।
वन्यजीवों की आबादी में निरंतर कमी के पीछे मानव-जनित घटनाओं के साथ जलवायु परिवर्तन भी है। रिपोर्ट में कहा गया है, 'बढ़ते तापमान पहले से ही बड़े पैमाने पर मृत्यु दर की घटनाओं को बढ़ा रहे हैं, साथ ही जीव प्रजातियों के विलुप्त होने का प्राथमिक कारण बन रहे हैं। प्रत्येक डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से वन्य जीवों के नुकसान और लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव में वृद्धि की आशंका है।' डब्ल्यूडब्ल्यूएफ, इंडिया के कार्यक्रम निदेशक डॉ. सेजल वोरा के अनुसार, इस अवधि में देश में मधुमक्खियों और मीठे पानी के कछुओं की 17 प्रजातियों की आबादी में गिरावट देखी गई है।
रिपोर्ट में पाया गया है कि हिमालयी क्षेत्र और पश्चिमी घाट जैव-विविधता के क्षरण के मामले में देश के प्रमुख क्षेत्रों में से हैं, जहां तापमान में वृद्धि होने पर जैव-विविधता के नुकसान बढ़ने की आशंका है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ, इंडिया के महासचिव रवि सिंह का कहना है, 'हाल में चीतों के स्थानांतरण जैसी परियोजना वन्य प्रजातियों के संरक्षण का अच्छा उदाहरण है, और भारत ने प्रोजेक्ट टाइगर तथा एक सींग वाले राइनो और शेरों के संरक्षण जैसी सफलताएं देखी हैं। इन प्रजातियों के संरक्षण का उस आवास क्षेत्र में रहने वाली अन्य सभी प्रजातियों पर प्रभाव पड़ता है।'
जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन द्वारा प्रकाशित द्विवार्षिक रिपोर्ट बताती है कि कैसे वन्यजीव निरंतर घटती जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते दबाव झेल रहे हैं। लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्रों में वैश्विक स्तर पर निगरानी वाले वन्यजीव की आबादी में 1970 और 2018 के बीच 94 फीसदी की औसत गिरावट गिरावट देखी गई है। इसी अवधि के दौरान, अफ्रीका में निगरानी आबादी में 66 फीसदी की गिरावट आई, जबकि एशिया-प्रशांत की निगरानी आबादी में 55 फीसदी ह्रास दर्ज किया गया। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने पाया है कि मीठे पानी में रहने वाले जंतुओं की आबादी में सबसे अधिक गिरावट आई है-1970 और 2018 के बीच औसतन 83 फीसदी की गिरावट। आईयूसीएन रेड लिस्ट से पता चलता है कि साइकैड्स (बीज पौधों का एक प्राचीन समूह) सबसे अधिक खतरे वाली प्रजातियां हैं, जबकि कोरल रीफ सबसे तेजी से घट रहे हैं और उसके बाद उभयचर।
दुनिया भर में वन्यजीवों की आबादी में गिरावट का मुख्य कारण है, उनके प्राकृतिक आवासों, विशेषकर वनों का क्षरण और दोहन। वन्यजीवों के प्राकृतिक आवासों में पौधों और जंतुओं की आक्रामक प्रजातियों का अतिक्रमण हो रहा है, जिससे मूल वन्यजीवों को पर्याप्त आहार नहीं मिल पा रहा है और ऊपर से वे आक्रामक जंतुओं के शिकार हो रहे हैं। प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और बीमारी वन्यजीवों की आबादी घटाने वाले अन्य कारण हैं। अबाध गति से आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए भूमि-उपयोग में परिवर्तन भी प्रकृति के लिए बड़ा खतरा है।
जो प्राकृतिक परिवेश वन, जीव-जंतुओं के मूल निवास थे, उनमें से अधिकांश को कृषि भूमि, सड़कों, पर्यटक स्थलों और मानव आवासों के विकास हेतु अधिकृत कर लिया गया है। सबसे अनमोल संसाधन भूमि है और आर्थिक विकास उसके उपयोग का केंद्र-बिंदु बन गया है। अगर हम धरती के
तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने में असमर्थ होते हैं, तो आशंका है कि आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन ही जैव-विविधता के विलोप का प्रमुख कारण होगा। उदाहरण के लिए, समुद्री जल के गर्म होने से लगभग 50 फीसदी कोरल पहले ही विलुप्त हो चुके हैं।
रिपोर्ट में यह भी तथ्य सामने आया है कि स्थलीय कृषि, जलीय कृषि और तटीय विकास कार्यक्रमों के अंतर्गत प्रति वर्ष 0.13 फीसदी की दर से मैंग्रोव की कटाई जारी है। तूफान और तटीय कटाव जैसे प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ अति दोहन और प्रदूषण से कई मैंग्रोव विनष्ट हो जाते हैं। मैंग्रोव जैव-विविधता संरक्षण के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण प्राकृतिक आवास हैं और तटीय समुदायों की अनेकानेक सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति मैंग्रोव से ही होती है। उदाहरण के लिए, 1985 के बाद से सुंदरवन मैंग्रोव का 137 किलोमीटर हिस्सा नष्ट हो गया है, जिससे वहां रहने वाले एक करोड़ लोगों में से कई के लिए भूमि और पारिस्थितिक सेवाएं कम हो गई हैं।
स्वच्छ और निर्मल धाराएं जीव-जंतुओं के आवास का प्राकृतिक स्रोत हैं। लेकिन केवल 37 फीसदी नदियां ही बची हैं, जो 1,000 किलोमीटर से अधिक लंबी हैं और मुक्त बहती हैं। भारत में शेष नदियां मुक्त-प्रवाह की अवस्था में नहीं रह गई हैं। जब बहती नदी प्रदूषित हो जाती है और उसका प्रवाह अवरुद्ध होने लगता है, तो उसके अंदर पनपने वाले जीव-जंतुओं का अस्तित्व समाप्त होने लगता है। भौगोलिक रूप से दक्षिण पूर्व एशिया वह क्षेत्र है, जहां प्रजातियों के विलुप्तीकरण के खतरे ज्यादा हैं, जबकि ध्रुवीय क्षेत्रों और ऑस्ट्रेलिया व दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी तटों पर जलवायु परिवर्तन के उच्चतम प्रभाव की आशंकाएं दिखाई पड़ रही हैं, जिनका विशेष रूप से पक्षियों के जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है।
प्रकृति की जैव-विविधता जीवित ग्रह पर जीवन की सततता, स्थायित्व और प्रफुल्लता का आधार है। वन्यजीव प्राकृतिक विविधता की सबसे महत्वपूर्ण कड़ियां हैं। यदि वन्यजीवों की आबादी यों ही सिमटती रही, उनके पारिस्थितिक परिवेश यों ही लुटते-उजड़ते रहे, और जीव प्रजातियां यों ही विलुप्त होती रहीं, तो समझिए पारिस्थितिकी का तख्तापलट सन्निकट है। वन्यजीवों एवं उनके प्राकृतिक परिवेशों की सुरक्षा व विस्तार हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास योजनाओं के केंद्र में हों, तभी हम अपने अक्षय विकास के पथ पर बढ़ सकेंगे।
सोर्स: अमर उजाला
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