सम्पादकीय

Opinion: शिष्टता होगी तो संस्कृति रहेगी

Neha Dani
11 Dec 2022 2:04 AM GMT
Opinion: शिष्टता होगी तो संस्कृति रहेगी
x
ताकि कोई घालमेल न हो सके। यह शायद आचार्य भरत का ही भरतवाक्य होता कि शिष्टता होगी, तभी तो संस्कृति रहेगी!
भारतीय कलाएं पृथ्वी की समृद्ध विरासत हैं। इन सारी कलाओं का प्राचीन और सार्वकालिक शास्त्र है नाट्यशास्त्र। यह कहता है कि कलाओं के अंतर्निहित मूल्यों को सजीव बनाए रखना है, तो हर परिस्थिति में इनका पुनर्नवा होना आवश्यक है। कलाओं में संगीत प्राचीन भारतीय विद्या है। वैदिक मार्ग संगीत से चलकर हम धु्रवा, जाति, वस्तु, रूपक, प्रबंध और ध्रुवपद के बाद ख्याल और फिर ठुमरी, टप्पा, दादरा, भजन और लोकसंगीत तक की यात्रा पिछले तीन हजार वर्षों में तय कर आए हैं। पुनर्नवा के लिए कई प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। जैसे, यदि किसी बंदिश को गाने की शैली को हम ख्याल कहते आ रहे हैं, तो फिर किसी पद को, जो ध्रुव पद है, गाने की शैली को हम कोई नाम क्यों नहीं दे पाए हैं, उसे ध्रुवपद या ध्रुपद ही क्यों कहते आ रहे हैं? जबकि हमारा शास्त्र उस शैली को एक विशिष्ट नाम से मध्यकाल से पहले ही प्रतिष्ठित कर चुका है।
अप्रिय यथार्थ यह भी है कि आज ध्रुपद गायन कोई सुनना नहीं चाहता। यदि ग्वालियर और बनारस के पुराने ध्रुपद आयोजन बंद हो जाएं, तो सिर्फ ख्याल के आयोजन ही होते रहेंगे। ध्रुपद के नए आयोजन फिर कभी शुरू नहीं हो सकेंगे। जैसे वंदावन का बंद आयोजन फिर शुरू नहीं हो सका। इसका कारण साफ है। ध्रुपद और ख्याल, दोनों शास्त्रीय संगीत हैं, लेकिन यदि आप शास्त्रीय संगीत के किसी श्रोता से यह पूछेंगे कि वह किसे सुनना पसंद करेगा, किसी ध्रुपद गायक को या राशिद खान या कौशिकी चक्रवर्ती को, तो वह फौरन से पेशतर राशिद खान या कौशिकी चक्रवर्ती का नाम लेगा। आज कोई ध्रुपद सुनना ही नहीं चाहता। ध्रुपद के नए विद्यार्थियों से यदि यह सवाल पूछा जाए कि क्या वे स्वयं ध्रुपद सुनते हैं या किसी ध्रुपद कलाकार को पसंद करते हैं, तो इसका कोई उत्तर नहीं मिलेगा।
पिछले तीन दशकों में कलाकारों ने ऐसा नहीं गाया कि ध्रुपद सुनने का आकर्षण बने और बढ़े। इसका प्रत्यक्ष कारण तो यह है कि कलाकार सिर्फ व्याकरण गाते हैं, जो श्रोताओं को उबाता है। उनकी कल्पनाशीलता देखने को नहीं मिलती, क्योंकि इसके लिए प्रतिभा चाहिए। अल्लादिया खां साहब अपनी एक बैठक में अपनी शिष्या केसरबाई से गवा रहे थे। थोड़ी देर सुनने के बाद जब वुर्जी खां सभा से बाहर आ गए, तो किसी ने उनसे पूछा कि वह सुन नहीं रहे हैं, तो उनका जवाब था, क्या सुनें, सब बैठाया हुआ है। यानी सब कुछ तय व्याकरण और व्यायाम के अनुसार सिर्फ दोहराया जा रहा है। कल्पनाशीलता या कलाकार की अपनी मौलिक प्रतिभा सुनने को नहीं मिल रही।
जिन भी उस्तादों से मैं मिला हूं, वे रियाज से पहले ज्वारी की बात पर वजन देते थे। कहते थे कि यदि गले में ज्वारी ही नहीं हुई, तो रियाज फिर किस चीज का करेंगे, सिर्फ व्याकरण का! प्रश्न यह भी है कि यदि ख्याल और ध्रुपद, दोनों शास्त्रीय संगीत है, तो फिर पिछले साठ-सत्तर वर्षों से ख्याल गायक ध्रुपद और ध्रुपद गायक ख्याल क्यों नहीं गा रहे। उससे पहले तक कलाकार पहले ध्रुपद, फिर ख्याल और उसके बाद ठुमरी आदि गाया करते थे। बनारस में यह परंपरा हरिशंकर जी के बाद ही समाप्त हो गई। और साथ ही ध्रुपद भी। ध्रुपद गायन में लगभग एक घंटे तक सुर पर काम होता है और फिर ताल हौले से उस सुर के अनुसार संगत करता है। ख्याल में ऐसा नहीं होता। आरंभ से ही लय का ख्याल रखते हुए सुरों पर आगे बढ़ती है प्रतिभा।
श्रोता यह भी शिकायत करते हैं कि नए कलाकार या नई प्रतिभाएं नहीं आ रहीं। ध्रुपद के क्षेत्र में तो बात साफ हुई कि क्यों, लेकिन ख्याल में भी यही दिख रहा है। पिछले दो दशकों से ख्याल के क्षेत्र में भी सन्नाटा है। कौशिकी चक्रवर्ती, राशिद खान, अश्विनी भिडे, मुकुल शिवपुत्र, देवकी पंडित के बाद की पीढ़ी में राहुल देशपांडे, मंजुषा पाटिल कुलकर्णी या अश्विनी गोरे आदि इक्का-दुक्का नाम सामने आते हैं। करीब दो दशक पहले बनारस के संकटमोचन संगीत समारोह में मुंबई से आकर संजीव चिमलगी ने अपने गायन के दौरान त्रिवेणी क्या प्रस्तुत कर दी कि बनारस के संगीत समाज में हलचल मच गई। उसमें तीन रागों को एक साथ समवेत राग के रूप में पेश किया गया था। सीआर व्यास (2002 में ही उनका देहांत हुआ था) की परंपरा में बनारस के संगीत समाज ने ऐसा गायन पहली बार सुना था, तो वे अचरज में थे और यह मान लिया गया कि प्रतिभाओं की कमी नहीं है और हमने नई पीढ़ी में एक उम्दा कलाकार पा लिया।
लेकिन दो दशक बाद भी वह परिदृश्य में नहीं हैं। यदि हम कला के उत्कर्ष को छोड़कर आर्थिक संपन्नता को गले लगाएंगे, तो नैतिक शिष्टता प्रश्नबिद्ध होगी ही। इसी प्रकार इन दिनों हर कला को, चाहे वह लोककला ही क्यों न हो, नाट्यशास्त्र से जोड़कर देखा जाने लगा है। अब लोकवाद्य ढोल या राजस्थानी लोकनृत्य गवरी या फिर माच के सूत्र भी शोधार्थी नाट्यशास्त्र में देखने लगे हैं, जबकि वे उसे 'शास्त्र' कह भी रहे हैं। भरत मुनि ने लोकधर्मी और नाट्यधर्मी के बारे में स्पष्ट शब्दों में समझाया है, ताकि कोई घालमेल न हो सके। यह शायद आचार्य भरत का ही भरतवाक्य होता कि शिष्टता होगी, तभी तो संस्कृति रहेगी!

सोर्स: अमर उजाला

Next Story