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‘हमने अपने वतन के लिए, अपने भविष्य के लिए और अफगानिस्तान की महिलाओं के लिए बहुत से सपने देखे थे
ऋचा बाजपेई। 'हमने अपने वतन के लिए, अपने भविष्य के लिए और अफगानिस्तान की महिलाओं के लिए बहुत से सपने देखे थे, मगर अब सब चकनाचूर हो गए हैं,' ये शब्द हैं अफगानिस्तान की महिला राष्ट्रीय फुटबॉल टीम की खिलाड़ी फानूस बशीर के जिन्हें अब तालिबान के शासन में कोई भविष्य नजर नहीं आता है. कुछ हद तक फानूस की बात सही है और वाकई अब अफगानिस्तान का क्या होगा, कोई नहीं जानता. इसका श्रेय जाता है, अंकल सैम यानी यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका को.
20 साल पहले जब न तो इंटरनेट की कोई ताकत थी और न ही सोशल मीडिया का कोई अस्तित्व, भारत में रात के 8 बजे थे और अचानक टीवी स्क्रीन पर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर्स के दो टॉवर्स गिरने की फुटेज बार-बार टेलीकास्ट हो रही थी. वो फुटेज अमेरिका पर हुए खतरनाक आतंकी हमलों की तो थी ही मगर वो घटना इस बात की भी गवाही दे रही थी कि अगले 20 सालों में इसी तरह से अफगानिस्तान का भी गिरना तय है.
11 सितंबर 2001 को हुए आतंकी हमलों ने अमेरिका को दुश्मन से बदला लेने की भावना से भर दिया था. वो मंगलवार का दिन था और अमेरिका के लिए सबसे बड़ा अमंगल लेकर आया. जॉर्ज बुश राष्ट्रपति थे और हमले के समय वो फ्लोरिडा में एक प्राइमरी स्कूल में बच्चों से मुलाकात कर रहे थे. बच्चों को वो कुछ बता रहे थे कि अचानक उन्हें हमले की जानकारी मिली. आनन-फानन में राष्ट्रपति ने अपना दौरा बीच में छोड़ा और वॉशिंगटन लौटने लगे. एयरफोर्स वन से वो स्थिति के बारे में पता करते रहे.
18 सितंबर 2001 को बुश ने अमेरिकी सेनाओं को अफगानिस्तान पर हमला करने का आदेश दिया. उन्होंने अपने बयान में कहा था, 'हमारा मकसद अफगानिस्तान से आतंकवाद को खत्म करना है, ओसामा बिन लादेन को तलाशना और उसे ढेर करना और फिर देश में शांति बहाल करना है. हम अमेरिका को आतंकवाद का दर्द देने वाले और इसके जिम्मेदार, एक भी शख्स को नहीं छोड़ेंगे.'
अक्टूबर 2001 में अमेरिकी सेनाएं अफगानिस्तान में दाखिल हुईं. मकसद था 9/11 के मास्टरमाइंड अल कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को जान से मारना. ये वो समय था जब अफगानिस्तान में तालिबान के शासन के 5 साल बीत चुके थे. तालिबान मानों लादेन के आगे कवच बनकर खड़ा था और उसके रहते लादेन को तलाशना मुश्किल था. दिसंबर 2001 में लादेन तोरा-बोरा की पहाड़ियों से बचकर निकल गया.
अमेरिका ने तालिबान शासन का खात्मा शुरू किया. धीरे-धीरे आक्रामक होती अमेरिका और नाटो सेना के सामने तालिबान ने सरेंडर करना शुरू कर दिया था. 5 दिसंबर 2001 को अफगानिस्तान में अंतरिम सरकार का गठन हुआ और हामिद करजई को देश का राष्ट्रपति बनाया गया. अब अमेरिका के आगे तालिबान हार रहा था और अफगानिस्तान में एक नई शुरुआत होने लगी थी. लड़कियां एयरफोर्स पायलट तक बनकर आसमान में उड़ रही थीं और स्कूल जा रही थीं. घर की महिलाएं सिर्फ किचन के काम नहीं करती बल्कि अपने परिवार के साथ बैठती और कॉफी शॉप में गप्पों के साथ कॉफी का लुत्फ उठाना सीख गई थीं.
फिर अचानक एक दिन अमेरिका ने फैसला किया की अब वो अपनी सेनाओं को अफगानिस्तान से निकालेगा. अमेरिका में चुनाव होते हैं और डेमोक्रेट जो बाइडेन राष्ट्रपति बनकर व्हाइट हाउस पहुंचते हैं. वो ये ऐलान कर देते हैं कि 9/11 आतंकी हमलों के 20 साल पूरे होने पर अमेरिकी सैनिक अपने घर पर होंगे न कि अफगानिस्तान में.
अमेरिकी सैनिक और दूसरी विदेशी सेनाएं अफगानिस्तान को छोड़कर जाने लगती हैं. इसके साथ ही अफगानिस्तान में आजादी का सूरज ढलने लगा और तालिबान की खौफनाक गुलामी की जंजीरें मजबूत हो गईं. जो तालिबान 20 साल में कहीं दुबक कर बैठ गया था, वो फिर से सामने आ गया. फिर से उसके जुल्मों के बारे में सोचकर लोग कांपने लगे. 15 अगस्त को काबुल पर कब्जे के साथ ही फिर से तालिबान राज अफगानिस्तान में लौट आया.
जिस अफगानिस्तान में सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार और प्रसार किया था, आज वो अफगानिस्तान अपने भविष्य को लेकर डरा हुआ है. दुनिया को एक से बढ़कर एक मीठे फल और सूखे मेवे देने वाला अफगानिस्तान अब 20 साल पहले वाले अंधेरे की तरफ लौट गया है. 20 साल की आजादी खत्म हो गई है और लोगों ने देश छोड़ना शुरू कर दिया है.
अमेरिका दुनिया का वो देश है जिसने न सिर्फ पहले परमाणु हमले से इसे रूबरू करवाया बल्कि खाड़ी युद्ध, इराक वॉर, लीबिया में तबाही और सीरिया की बदहाली जैसी घटनाएं भी दुनिया को दी हैं. कोई नहीं समझ पा रहा है कि आखिर ऐसी क्या जल्दी थी जो बाइडेन ने खतरा जानते समझते हुए भी अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ने का फैसला कर लिया.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को यह फैसला लेते हुए जरा भी याद नहीं आया कि जिस देश को वो छोड़ रहे हैं, उसने 20 साल तक उनके सैनिकों की बहादुरी का झंडा संभाला हुआ था. आज बाइडेन की वजह से दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेना के सैनिक भी सिर झुका कर काबुल को अलविदा कहने पर मजबूर हो गए हैं. अफगानिस्तान की सीमाएं, पाकिस्तान, ईरान, उजबेकिस्तान जैसे देशों से सटी हुई हैं.
पाकिस्तान वो देश जिसने लादेन को पनाह दी और ईरान वो देश जिस पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगाए हुए हैं. बाइडेन की इस एक गलती या यों कहें कि लापरवाही का नतीजा दक्षिण और मध्य एशिया पर क्या होगा, ये कोई नहीं जानता है. जिस हक्कानी नेटवर्क को मिटाने की कसमें बाइडेन के एक्स बॉस और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा 8 साल तक खाते रहे, आज उसी हक्कानी नेटवर्क पर काबुल की जिम्मेदारी है.
ईराक से साल 2011 में जब अमेरिकी सेनाएं गईं थी तो हथियारों का बड़ा जखीरा छोड़ गई थीं. उसका नतीजा साल 2014 में आईएसआईएस के तौर पर सामने आया. जिस तरह से ओबामा ने Gitmo 5 को जेल से रिहा किया था, उसी तरह से आईएसआईएस के सरगना अबु बकर अल बगदादी को भी एक जेल से छोड़ने का फैसला किया गया. जेल से छूटे बगदादी ने आईएसआईएस बना लिया और Gitmo 5 ने तालिबान में सरकार.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भी इस पर यकीन नहीं कर पा रहे हैं कि अमेरिका ने उन्हें कुछ भी जानकारी नहीं दी. ब्रिटेन और फ्रांस के साथ ही कुछ और ऐसे देश भी थे जो सिर्फ अमेरिका से दोस्ती के चलते अफगानिस्तान में सेनाएं भेजने पर राजी हुए थे. 9/11 में उन्हें जरा भी नुकसान नहीं हुआ था लेकिन बाइडेन ने उन्हें धोखा दे दिया है.
भारत समेत दुनिया के कुछ देश थोड़े चिंतित हैं. साल 2001 में अमेरिका ने जो दर्द झेला था, उसका खतरा 20 साल बाद दोगुना हो गया है. कोई समझ नहीं पा रहा है कि आखिर अमेरिका दो दशक तक अफगानिस्तान में क्या कर रहा था. इतने समय में पूरी एक पीढ़ी जवान हो जाती है और जो लोग उस समय टीवी पर हमले की फुटेज देख रहे थे, 20 साल बाद बाइडेन के फैसले से अब उसी समय को लेकर चर्चा कर रहे हैं. फिर क्या बदला है, शायद कुछ नहीं.
अफगानिस्तान के लिए तो कुछ भी नहीं बदला है. वो स्मार्ट फोन और सोशल मीडिया के दौर में फिर से उसी समय में पहुंच गया है जहां न घर से बाहर निकलने की आजादी है और न ही अपने पसंद के कपड़े पहनने की छूट है. अमेरिका, तकनीकी रूप से दुनिया में सबसे आगे होने के बाद भी फिर से उसी खतरे की तरफ है जिसने उसे अफगानिस्तान में दो दशक तक उलझाए रखा था.
अफगानिस्तान में अब वही 20 साल पहले वाले हालात हैं. काबुल में कॉफी शॉप बंद हो चुकी हैं. देश में शरिया कानून लागू हो चुका है. महिलाओं को न तो घर से अकेले निकलने की आजादी है और न ही अपने पसंद के कॉलेज में जाने की छूट. कई जगह से वीडियोज आ रहे हैं जिसमें तालिबान के आतंकी छोटी-छोटी बच्चियों को जबरन उठाकर ले जाते हुए नजर आ रहे हैं. ये बच्चियां रो रही हैं और आतंकियों पर जरा भी असर नहीं हो रहा है.
फानूस बशीर, अफगानिस्तान की पहली महिला मेयर जरीफा गाफरी और पहली पॉप स्टार अरयाना सईद, अब अपना देश छोड़ चुकी हैं. इनके पास संसाधन थे तो इनकी जिंदगी जर्मनी जैसे देश में सुरक्षित है. मगर हजारों महिलाएं ऐसी हैं जो अलमारी से दो दशक पुराना बुर्का या हिजाब निकालकर पहनने लगी हैं.
अफगानिस्तान का क्या होगा, ये बताने के लिए रूस की सेना में सार्जेंट रहे इगोर ग्रिगोरविच का बयान काफी है. ग्रिगोरविच 1990 के दशक में हुए सोवियत-अफगान वॉर में हिस्सा ले चुके हैं. उन्होंने कहा था, 'अफगानियों को जीतना असंभव है, सिकंदर महान ये नहीं कर सका, अंग्रेज नहीं कर सके, हमसे नहीं हो सका और अमेरिकी भी कभी नहीं कर पाएंगे. कोई भी अफगानिस्तान को जीत नहीं सकता है.'
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