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चुनावी वर्ष के फैसलों के शब्द, सहमति, समय और स्थान तय है, इसलिए अपने अंतिम पायदान पर कोई भी सरकार अति निर्णायक, नरम और सौहार्दपूर्ण दिखाई देती है। यह इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि चुनावी वर्ष में चाय की टपरी तक सरकार की 'गोपनीय रिपोर्ट' सार्वजनिक हो रही होती है। सरकारों के फैसले क्या राज्य के संबोधन, संवर्द्धन या संदेश का प्रतिनिधित्व कर पाते हैं या अंतिम चरण तक जनापेक्षाओं की भूख तृप्त नहीं होती। जो भी हो, लेकिन सरकार के लिए यह नाजुक परीक्षा है जहां न तो कोई वर्ग मुस्कराता है और न ही फैसलों की सूची पूरी होती है। कमोबेश हर सरकार अपनी सत्ता की पायदान पर पांच सालों में डेढ़ से दो सौ बार मंत्रिमंडलीय बैठकें करके जनता को खुश करने का समाधान ढूंढती है। फैसले अहम और पिछली सरकारों के मुकाबले खरा उतरने की काशिश में कितनी भी कोशिश कर लें, हर बार नौकरी के लिए युवा मन और नौकरी के भीतर कर्मचारी मन पूरी तरह संतुष्ट नहीं होता। मसलन कालीन बिछा कर कर्मचारी हितों का योगासन करती सरकार जिस सुशासन की परख में पकड़ी जाती है, उससे कहीं भिन्न सरकारी कार्यसंस्कृति को बिना हील हुज्जत पुचकारा जाता है।
सोर्स- divyahimachal