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- उफ! हर शाख पर उल्लू
आजाद भारत का कश्मीर अनुभव इस एक वाक्य में है- भारत राष्ट्र-राज्य, उसके हिंदू नेता डरे और भागते हुए, जबकि कश्मीरी मुसलमान संविधान, धर्मनिरपेक्षता, जम्हूरियत, इंसानियत और कश्मीरियत को अल्लाह हो अकबर के नारे से खारिज करता हुआ! हां, पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी सबने कश्मीरियत का तराना गया लेकिन कश्मीरियों के दिल-दिमाग में इस बात को पैठाने का दम नहीं दिखाया कि भारत में रहना है तो हिंदुस्तानियत को अपनाना पड़ेगा! नेहरू-पटेल, बलदेव सिंह, श्यामा प्रसाद मुखर्जी का पहला कैबिनेट भी बिना इस साहस के था कि जम्मू-कश्मीर रियासत का यदि भारत में विलय है तो उसमें फिर लाठी-सेना से सौ टका अमल होगा। लेकिन हम डर और भय में कंपकंपाते हुए! जनमत संग्रह का निर्णय लिया तो तब भी यह भय, यह खौफ-चिंता हावी थी कि कहीं शेख अब्दुल्ला और घाटी का बाशिंदा मुस्लिम धर्मांधता से धोखा न दे। कितना भयावह है यह सत्य कि कभी, किसी स्तर पर भारत राष्ट्र-राज्य ने, भारत के बुद्धिजीवियों (सभी ब्रांड के), नेताओं (सभी पार्टियों के) ने सोचा ही नहीं (शायद डर के कारण या नासमझी में) कि साझा चुल्हे की रोटी खानी है और कश्मीरियत में यदि इंसानियत है तो घाटी का हर मुसलमान स्कूल, मदरसे में, मस्जिद की तकरीरों से सुने, जाने, समझे और गांठ बांधे कि घाटी हिंदुस्तानियों के चलते स्वर्ग है। हिंदुओं से ही हमें वह सुरक्षा है, हमारी वह विरासत बचेगी, जिस पर अफगानी पठान, अफगान दुर्रानी और तालिबान की सदियों से तलवार है।