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- उफ! अब मेरे भी दिन...

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इधर जबसे मुझे यह शुभ समाचार मिला है कि लुगदी साहित्य को विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है, तबसे मेरे बांछें न होने के बाद भी मेरी बांछें ही क्या, मैं पूरा का पूरा खिल रहा हूं। वजह! मैं भी उच्चकोटि का लुगदी साहित्यकार हूं। अब वसंत इसका क्रेडिट लेता हो तो लेता रहे। पर इस क्रेडिट का वह कतई हकदार नहीं। वैसे मुफ्त का क्रेडिट लेने वालों की इस समाज में कोई कमी थोड़े ही है। एक पत्थर हटाओ तो दस निकल आएंगे। अब पाठ्यक्रम से हटाए रोने वाले रोते हों तो रोते रहें। उनके रोने का कुछ नहीं हो सकता। रोने के बदले उन्हें इस बात की खुशी होनी चाहिए कि आजतक वे पाठ्यक्रम में कैसे टिके रहे? सम्मानों में नहीं तो कम से कम पाठ्यक्रम में तो बारी बारी सबको चांस मिलना चाहिए। जो वे अपने समय के सूर, तुलसी, प्रेमचंद, अज्ञेय थे तो मैं भी अपने समय का सूर, तूलसी, प्रेमचंद, अज्ञेय हूं। वे मुझे अपने से कम मानते हों तो मानते रहें, पर असल में वे मुझसे बहुत कम हैं। मुझ जैसे बरसों से सोते सोते लिखने वालों को भी जिंदा जी हंसने का कम से कम एक मौका तो जरूर मिलना चाहिए। सम्मान हर लेखक का जन्मसिद्ध अधिकार हो या न, पर पाठ्यक्रम में आना हर लेखक का जन्मसिद्ध अधिकार है। वह चाहे क्लासिक साहित्यकार हो, लुगदी साहित्यकार हो या फिर रद्दी साहित्यकार। मैं तो हर विश्वविद्यालय के वीसी से मांग करता हूं कि मुझ जैसे सर्वश्रेष्ठ लुगदी साहित्यकारों को भी नहीं, मुझ जैसे सर्वश्रेष्ठ लुगदी साहित्यकारों को ही इनके उनके विश्वविद्यालयों के हिंदी से लेकर साइंस तक के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए ताकि हर स्ट्रीम के छात्रों को पता चले कि मुझ जैसों ने बकवास की छांव में कितना खास लिखा है, कितना साफ-साफ लिखा है। अपने लिखे को जबरदस्ती छात्रों को अपने जीते जी भी और मरने के बाद भी पढ़ाने का अधिकार केवल और केवल उनका ही तो नहीं है। चंदन न सही तो न सही, पर मैं भी तो इधर बरसों से कलम पिस रहा हूं। अपने गोबर लिखे को चाहे ये वे कितना ही श्रेष्ठ कहाते फिरें, अपने गोबर साहित्य को अपने किराए के समीक्षकों से उसे चाहे कितना ही समाजोपयोगी कहाते फिरें, पर मैं अपने लुगदी साहित्य को सर्वश्रेष्ठ साहित्य मानता हूं, क्लासिक साहित्य से भी चार कदम आगे का। लुगदी साहित्य ही दिमाग में गुदगुदी करता है।
साहित्य का उद्देश्य भी तो गुडी गुडी की फीलिंग देना ही तो है तो फिर हे लुगदी साहित्य के विरोधियो ! लुगदी से परहेज क्यों? कहावत यों ही किसी ने नहीं बनाई थी कि घूरे के भी दिन फिरते हैं। आज उसे चरितार्थ होते अपनी फटी आंखों से साफ-साफ देख रहा हूं। तय है, अब मेरे लिखे साहित्य के भी दिन भी फिरने वाले हैं। मैं भी आगामी सत्र से किसी न किसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में निश्चित तौर पर शामिल होने वाला हूं। इसलिए इन दिनों आत्म परिचय लिख रहा हूं। बाद में जल्दबाजी में कहीं कुछ छूट न जाए। अहा! अब छात्र मुझे भी पढ़ेंगे। अब मेरे साहित्य का सही सही मूल्यांकन होगा। मेरे सर्वश्रेष्ठ लुगदी साहित्य के सामाजिक उपयोगिता की परख होगी। आज तक मेरे साहित्य का मूल्यांकन किया ही किसने? जिसे भी कहा कि यार! मेरे लिखे पर दो चार ही सही शब्द मार दो, उसने अपनी कलम का मुंह तो मेरी ओर से फेरा ही फेरा, अपना मुंह भी मेरी ओर से फेर लिया। हे श्रेष्ठ, सर्वश्रेष्ठ रद्दी साहित्य लिखने वालो! अगला दौर आपका है। इसलिए बिना किसी खौफ के लिखते रहो। वैसे भी लुगदी होते समाज की अभिव्यक्ति लुगदी ही तो होगी न!
अशोक गौतम
By: divyahimachal

Rani Sahu
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