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सम्पादकीय
एक देश-एक विधान से ही बनेगी बात, अल्पसंख्यकों पर नए नजरिये की दरकार
Gulabi Jagat
19 April 2022 3:30 PM GMT
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संबंधित याचिका के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय में अपना शपथ-पत्र दायर करते हुए भारत सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय ने स्पष्ट किया
प्रो. रसाल सिंह। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम-1992 और अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अधिनियम-2005 की वैधता का मामला माननीय उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है। एक हालिया दायर याचिका में इस संबंध में कहा गया है कि यदि इन आधारहीन, अनुचित, अतार्किक और असंवैधानिक अधिनियमों को समाप्त नहीं किया जा सकता है तो इन प्रविधानों का लाभ उन राज्यों में हिंदुओं को भी मिलना चाहिए, जहां वे 'अल्पसंख्यकÓ हैं। इस याचिका में संविधान में एक विशिष्ट संदर्भ में प्रयुक्त अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित करने और उसकी सुस्पष्ट निर्देशिका/ नियमावली बनाने की न्यायसंगत और समीचीन मांग भी की गई है।
दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 29, 30 और 350 में अल्पसंख्यक शब्द प्रयुक्त हुआ है। लेकिन वहां इसकी व्याख्या नहीं की गई है। इसका फायदा उठाते हुए कांग्रेस सरकार ने वर्ष 1992 में अल्पसंख्यक आयोग के गठन के समय वोटबैंक की मनमानी राजनीति की। अल्पसंख्यक और भाषाई अल्पसंख्यकों की प्रचलित परिभाषा पर सवाल उठाते हुए अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि प्रचलित परिभाषा के अनुसार तो आज देश में सैकड़ों धार्मिक अल्पसंख्यक समूह और हजारों भाषाई अल्पसंख्यक समूह होने चाहिए। लेकिन यह दर्जा महज कुछ समुदायों को ही क्यों दिया गया है? क्या यह सांप्रदायिक तुष्टिकरण की राजनीति का नायाब उदाहरण नहीं है? राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के सेक्शन 2 (सी) के तहत मुस्लिम, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदायों को अल्पसंख्यक माना गया है। वर्ष 2014 में जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया गया था।
संबंधित याचिका के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय में अपना शपथ-पत्र दायर करते हुए भारत सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि अल्पसंख्यक का दर्जा देने का अधिकार केवल केंद्र सरकार को ही नहीं है, बल्कि राज्य सरकार भी किसी समुदाय को उसकी संख्या और सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति के आधार पर यह दर्जा दे सकती है। अल्पसंख्यक मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार जम्मू-कश्मीर, लक्षद्वीप, पंजाब, मिजोरम, नगालैंड, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख जैसे राज्यों/ केंद्र शासित प्रदेशों में हिंदुओं की संख्या काफी कम है। अत: वे अल्पसंख्यक होने की पात्रता को पूरा करते हैं। संबंधित राज्य सरकार चाहे तो अपनी भौगोलिक सीमा में उन्हें अल्पसंख्यक घोषित करते हुए विशेषाधिकार और संरक्षण प्रदान कर सकती हैं। महाराष्ट्र सरकार ने यहूदियों को अपने राज्य में अल्पसंख्यक का दर्जा देकर इसकी शुरुआत भी कर दी है। इसी तरह गुजरात सरकार ने भी अपने यहां जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया है।
उपरोक्त पृष्ठभूमि में 'अल्पसंख्यकÓ की अधिक समावेशी और तर्कसंगत परिभाषा देते हुए व्यापक नियमावली को बनाना आवश्यक है, ताकि केंद्र/ राज्य अपनी मनमानी करते हुए इस प्रविधान का दुरुपयोग न कर सकें। अश्विनी उपाध्याय ने यह याचिका दायर करते हुए 'टीएमए पाइ फाउंडेशन बनाम यूनियन आफ इंडियाÓ मामले में उच्चतम न्यायालय की 11 सदस्यीय संविधान पीठ के 2003 में दिए गए ऐतिहासिक निर्णय को आधार बनाया है। इस निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक का निर्धारण करने वाली इकाई केवल राज्य हो सकती है। यहां तक कि अल्पसंख्यकों से संबंधित केंद्रीय कानून बनाने के लिए भी इकाई राज्य होंगे, न कि संपूर्ण देश होगा। इसलिए धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों का नाम-निर्धारण राज्यों की जनसंख्या के आधार पर अर्थात राज्य विशेष को इकाई मानकर उसके आधार पर होना चाहिए। यह निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण है।
भारत में पाकिस्तान से अधिक मुस्लिम : यह रोचक किंतु विचित्र ही है कि भारत में रहने वाले मुसलमानों की संख्या (19.4 करोड़) पाकिस्तान (18.4) से अधिक है। फिर वे अल्पसंख्यक क्यों और कैसे हैं, यह विचारणीय प्रश्न है। मई 2014 में अल्पसंख्यक मामले मंत्रालय का कार्यभार संभालते समय नजमा हेपतुल्ला द्वारा दिया गया बयान इस संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने तब कहा था कि भारत में मुस्लिम इतनी बड़ी संख्या में हैं कि उन्हें अल्पसंख्यक नहीं कहा जा सकता है। इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र द्वारा दी गई 'अल्पसंख्यकÓ की परिभाषा उल्लेखनीय है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, ऐसा समुदाय जिसका सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से कोई प्रभाव न हो और जिसकी आबादी नगण्य हो, उसे अल्पसंख्यक कहा जाएगा।
इसी प्रकार भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक शब्द का उल्लेख करते समय विलुप्तप्राय या संकटग्रस्त समुदायों को अपने धर्म और रीति-रिवाजों के पालन हेतु सुरक्षा और संरक्षण देने की बात की गई है। संविधान में किसी भी समुदाय को कम या अधिक अधिकार देने की बात नहीं की गई है। उसमें सभी समुदायों को समान अधिकार देने की बात की गई है। लेकिन उपरोक्त दो अधिनियमों में संविधान की भावना से इतर मनमाने ढंग से समुदाय विशेष को अल्पसंख्यक का दर्जा देकर विशेष सुविधाएं, अधिकार और वरीयता देने की गलत परंपरा चल निकली है। गौरतलब यह है कि संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा और संविधान की भावना के अनुसार क्या मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यक का दर्जा पाने का अधिकारी है?
ऐसे में जिस प्रकार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के निर्धारण में जाति विशेष की स्थिति अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हो जाती है, ठीक उसी प्रकार अल्पसंख्यकों के मामले में स्थिति परिवर्तन क्यों नहीं होता? इसी तथ्य का संज्ञान लेते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वर्ष 2005 में दिए गए अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा था कि मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं हैं, क्योंकि उनकी संख्या बहुत अधिक है और वे ताकतवर भी हैं। अल्पसंख्यक की परिभाषा निर्धारित करते समय और नीति-निर्देशक नियमावली बनाते समय संविधान की मूल भावना का ध्यान रखा जाना अत्यंत आवश्यक है।
ध्यातव्य है कि कम संख्या अल्पसंख्यक होने का एक आधार है, किंतु एकमात्र आधार नहीं है। सामाजिक- सांस्कृतिक रीति-रिवाजों पर संकट और विलुप्ति का खतरा अधिक महत्वपूर्ण आधार है। इस आधार को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है। माननीय उच्चतम न्यायालय को अपने निर्णय में इन सभी विसंगतियों और विडंबनाओं का सटीक समाधान प्रस्तावित करने की आवश्यकता है, ताकि देश में सबका साथ और सबका विकास हो सके। साथ ही, संवैधानिक प्रविधानों का प्रयोग संबंधित समुदायों की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हो, न कि समुदाय विशेष के तुष्टिकरण और वोटबैंक की राजनीति के लिए हो। निश्चय ही, इतनी बड़ी आबादी वाले मुस्लिम समुदाय को 'अल्पसंख्यकÓ का दर्जा दिया जाना संवैधानिक प्रविधानों के दुरुपयोग का अनूठा उदाहरण है। ऐसे प्रविधानों के दुरुपयोग के कारण ही आज समान नागरिक संहिता की मांग बलवती हो उठी है। 'एक देश, एक विधानÓ ही भविष्य का रास्ता है।
जम्मू-कश्मीर की विडंबनापूर्ण स्थिति । इस संदर्भ में जम्मू-कश्मीर का मामला काफी विचित्र और विडंबनापूर्ण है। वहां मुस्लिम समुदाय की संख्या 68.31 प्रतिशत और हिंदू समुदाय की संख्या मात्र 28.44 प्रतिशत है। लेकिन न केवल केंद्र सरकार, बल्कि अब तक की सभी राज्य सरकारों की नजर में वहां का मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यक है। अब तक वही उपरोक्त दो अधिनियमों के तहत मिलने वाले तमाम विशेषाधिकारों और योजनाओं का लाभ लेता रहा है। हिंदू समुदाय वास्तविक अल्पसंख्यक होते हुए भी संवैधानिक विशेषाधिकारों, संरक्षण और उपचारों से वंचित रहा है। जम्मू-कश्मीर बहुसंख्यकों को 'अल्पसंख्यकÓ बताने की राजनीति का सिरमौर है।
वर्ष 2016 में एडवोकेट अंकुर शर्मा ने जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने के लिए एक जनहित याचिका उच्चतम न्यायालय में दायर की थी। उन्होंने अपनी याचिका के माध्यम से कहा था कि जम्मू-कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं, लेकिन वहां अल्पसंख्यकों के लिए बनाई गई योजनाओं का लाभ मुसलमानों को मिल रहा है, जबकि वास्तविक अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय उपेक्षित, तिरस्कृत और प्रताडि़त हो रहा है। उन्होंने मुसलमानों को मिले हुए अल्पसंख्यक समुदाय के दर्जे की समीक्षा करते हुए पूरे भारतवर्ष की जगह राज्य विशेष की जनसंख्या को इकाई मानते हुए अल्पसंख्यकों की पहचान करने और अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग की थी। न्यायमूर्ति जेएस खेहर, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एसके कौल की तीन सदस्यीय पीठ ने इस मामले को गंभीर मानते हुए केंद्र सरकार और राज्य सरकार को आपसी बातचीत द्वारा अविलंब सुलझाने का निर्देश दिया था। लेकिन आज तक इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है।
माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उपरोक्त तथ्यों का गंभीर संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम-1992 और अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अधिनियम-2005 के प्रविधानों के दुरुपयोग को रोकने की अनिवार्य पहल करनी चाहिए। केंद्र सरकार का शपथ-पत्र इस दिशा में एक विकल्प प्रस्तावित करता है। राज्य सरकारों द्वारा अपने राज्य की भौगोलिक सीमा में धार्मिक अल्पसंख्यकों की पहचान और नाम-निर्धारण करके इस ऐतिहासिक अन्याय का शमन किया जा सकता है। अभी तक राज्य विशेष में संख्या की दृष्टि से जो बहुसंख्यक हैं, वे राज्य और केंद्र सरकारों की योजनाओं में अल्पसंख्यक रहे हैं। लेकिन समस्या के पूर्ण समाधान के लिए अल्पसंख्यक समुदायों को परिभाषित करने और उन्हें यह दर्जा देने और इसके प्रविधानों के तहत मिलने वाले विशेषाधिकारों और संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय द्वारा एक औचित्यपूर्ण, तार्किक और स्पष्ट नियमावली और दिशा-निर्देशिका बनाया जाना जरूरी है।
कुछ लोगों द्वारा जिलों अथवा सब-डिविजनों की जनसंख्या को आधार/ इकाई बनाकर जिला स्तर पर अल्पसंख्यक का दर्जा देने की भी बात की जा रही है। इससे समस्या खत्म नहीं होगी, बल्कि काफी अराजकता और अव्यवस्था फैल जाएगी। भारत विविधतापूर्ण देश है। इसमें भाषिक विविधता तो बेहिसाब है, इसलिए राज्य की जनसंख्या को आधार/ इकाई बनाकर राज्य स्तर पर अल्पसंख्यक का दर्जा देने का प्रस्ताव अधिक तार्किक और समीचीन है। संख्या के अलावा सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन और शासन-प्रशासन में भागीदारी और उपस्थिति को भी आधार बनाया जाना चाहिए।
( अधिष्ठाता, छात्र कल्याण, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय )
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