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By: divyahimachal
सुक्खू सरकार लगभग आधा साल पूरा कर चुकी है और इसके सियासी, प्रशासनिक और सामाजिक पहलू, कुछ न कुछ अंक बटोर चुके हैं और इसीलिए मुख्यमंत्री के रूप में सुखविंदर सिंह सुक्खू की निजी भूमिका में यह प्रदेश कुछ चर्चाएं, कुछ सहमतियां और कुछ अपेक्षाएं बटोर रहा है। ऐसे में कितने अंतर में और कितने समानांतर यह सरकार खड़ी है, इसका विवेचन राज्य के विभिन्न प्रैशर ग्रुप कर रहे हैं। जाहिर है ओपीएस मुद्दे पर कार्रवाई ने सरकार के प्रति कर्मचारी सौहार्द पैदा किया है, कुछ इसी प्रकार पेश किए गए बजट की समीक्षा में भी सुक्खू सरकार को विश्वसनीयता की आंख से देखा जा रहा है, लेकिन इसकी असली पहचान व्यवस्था परिवर्तन के दायरे में ही होगी। ऐसे में हम यह तो मान सकते हैं कि वर्तमान सरकार को ‘सिर्फ एक बार’ के सिद्धांत पर सफल होना पड़ता है। हिमाचल में क्रांतिकारी बदलाव तब-तब आए हैं, जब-जब मुख्यमंत्रियों ने ‘सिर्फ एक बार’ की राह पर स्वतंत्र और साहसी उद्घोष किए।
वाईएस परमार और शांता कुमार हिमाचल के राजनीतिक इतिहास में अपने साहसी कडक़पन के लिए आज भी इसलिए जाने जाते हैं, क्योंकि दोनों मुख्यमंत्रियों ने सरकारी कार्य संस्कृति को अनुशासित करते-करते यह प्रवाह नहीं की कि उनकी सरकारें लगातार सत्ता में रहें। शांता कुमार ने तो दो बार सरकार की कुर्बानियां देकर, खुद को मतदान की कचहरी में अलोकप्रिय बना लिया, लेकिन प्रदेश को जीने के मौलिक सिद्धांत देकर वह श्रद्धेय हो गए। वाईएस परमार का जिक्र भी इसी तरह हिमाचल के संदर्भों को रोशन करता है। ऐसे में अब इनकी कुछ राजनीतिक समानताएं मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के पास आकर संबोधित हो रही हैं। भले ही हम यह न कहें कि सुखविंदर सुक्खू के तेवर पूरी तरह परमार या शांतामय हो गए हैं, लेकिन सत्ता का लहजा ‘सिर्फ एक बार’ के सिद्धांत पर कुछ मार्ग अवश्य ही तय कर चुका है। अब तक सरकार का गठन, प्रशासन की समझ और प्रादेशिक प्राथमिकताओं की खनक से ‘बार-बार सत्ता’ का अलार्म नहीं बज रहा। सरकार अपनी मौलिकता में परवान चढऩा चाहती है, तो चंद फैसलों का सफल होना भी भविष्य लिख देता है। बेशक चुनावी गारंटियों की वचनबद्धता सुक्खू सरकार को उन तौर तरीकों से दूर रख रही है, जो कभी शांता-परमार ने उठाए, लेकिन सीमेंट उद्योग विवाद के बाद जल उप कर लगाने का निर्णय ‘सिर्फ एक बार’ आजमाने की दृढ़ प्रतिज्ञा बन जाता है। मुख्यमंत्री जब पूर्व सरकार की तख्ती पर लिखी सुर्खियां मिटाते हुए नौ सौ के करीब संस्थानों से जमीन खींच कर उन्हें तर्क की सूली पर चढ़ाते हैं, तो वह शांता कुमार हो जाते हैं। व्यवस्था परिवर्तन और सिर्फ एक बार सरकार के सिद्धांत दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जयराम सरकार, इससे पहले वीरभद्र या प्रेम कुमार धूमल सरकारों ने रिवाज बदलने या मिशन रिपीट की खातिर जो तख्तियां लिखीं, उनसे प्रदेश को नुकसान ही हुआ। कमोबेश पिछले पांच-छह विधानसभा चुनावों में सरकारों की अदला-बदली के जवाब में मुख्यमंत्रियों ने जो खाका बनाया, वह खराब साबित हुआ है।
इस खाके ने अनावश्यक स्कूल, कालेज, दफ्तर, मेडिकल-इंजीनियरिंग कालेज और विश्वविद्यालय तक खोलकर सरकारों की इच्छा शक्ति को अजीब सी नुमाइश में बदल दिया, जबकि किसी भी सरकार को आरंभिक तीन सालों में ही अपनी बुलंदी जाहिर करनी चाहिए। इस संदर्भ में सुक्खू सरकार ने हर विधानसभा क्षेत्र में डे बोर्डिंग स्कूल खोलने की दिशा में पंद्रह स्थानों में सौ कनाल जमीन हासिल करके इरादों के पंख खोल दिए हैं। जिला मुख्यालयों में हेलीपोर्ट बनाने तथा हर विधानसभा क्षेत्र के कम से कम एक अस्पताल को श्रेष्ठ स्वास्थ्य केंद्र बनाने का लक्ष्य तय करके खुद को खुद की प्रतिस्पर्धा में खड़ा किया है। यह दीगर है कि अभी क्षेत्रीय व जोनल अस्पतालों की स्थिति सुधरने में ही इंतजार इसलिए हो रहा है, क्योंकि विशेषज्ञ डाक्टर स्थायी रूप से रिक्त पदों की भरपाई नहीं कर पा रहे हैं। बहरहाल, सुक्खू सरकार को अगर चंद ऐतिहासिक कार्य करने हैं या इतिहास में शांता-परमार की तरह प्रदेश हित में महान कार्य करने हैं, तो यह किसी मिशन रिपीट मोड में नहीं, बल्कि ‘सिर्फ एक बार’ के सिद्धांत पर कठोर फैसलों की बुनियाद पर ही संभव होगा। स्कूल-कालेज व संस्थान बंद करने के बाद सुक्खू सरकार कुछ बस डिपो, कुछ बोर्ड-निगम बंद कर पाई या शिमला में सरकारी कार्य संस्कृति को अनुशासित कर पाई, तो इस क्रांति को जमाना याद रखेगा।

Rani Sahu
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