सम्पादकीय

सिर्फ मुसलमानों से की जाती है धर्मनिरपेक्षता का बोझ उठाने की उम्मीद, यूपी चुनाव में सामने आई यह बात

Rani Sahu
15 March 2022 11:32 AM GMT
सिर्फ मुसलमानों से की जाती है धर्मनिरपेक्षता का बोझ उठाने की उम्मीद, यूपी चुनाव में सामने आई यह बात
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10 मार्च को मतगणना के दिन उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में एक बैंक कर्मचारी और एक पत्रकार मित्र के बीच होने वाली दुनियादारी की बातचीत में मुझे मौजूदा राजनीति में मतदाताओं की सोच की एक झलक दिखी

बॉबी नकवी

10 मार्च को मतगणना के दिन उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में एक बैंक कर्मचारी और एक पत्रकार मित्र के बीच होने वाली दुनियादारी की बातचीत में मुझे मौजूदा राजनीति में मतदाताओं की सोच की एक झलक दिखी. एक ऐसी सोच है, जिसने 2014 के बाद से चुनावी राजनीति के परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है. लगातार पतन की ओर जा रहे इस राजनीतिक परिदृश्य का असर सामाजिक व्यवहार और बातचीत में भी नजर आने लगा है. दरअसल, आज की तारीख में चुनाव एक आम आदमी के लिए अपनी आस्था, संस्कृति और सिद्धान्तों की श्रेष्ठता का दावा करने वाला हथियार बन चुका है.
दोनों के बीच बातचीत इस तरह हुई…
बैंक कर्मचारी: अरे काफी दिन बाद आए. देखा आपने, काफी बदलाव आया है!
पत्रकार: क्या बदलाव?
बैंक कर्मचारी: भाई साहब, मोदी जी ने पुतिन के मुंह में हाथ डालकर बच्चों को निकाला है यूक्रेन से!
बैंक कर्मचारी और पत्रकार, जो कि मुस्लिम है, के बीच बातचीत बैंकिंग की सामान्य कारोबारी चर्चा से आगे चली गई. आज के भारत में ध्रुवीकरण के आधार पर बनने वाली विचारधारा से चुनावी पसंद तय होती है, फिर यह पसंद खुद को मुखर और हावी करने का हथियार बन जाता है. खासतौर तब, जब सामने विपरीत राजनीतिक झुकाव वाला कोई शख्स मौजूद हो.
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय राज्य की कुल आबादी 20 करोड़ लोगों में पांचवां हिस्सा हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 के नतीजों ने इस समुदाय के सामने कई चुनौतीपूर्ण सवाल रख दिए हैं. दरअसल, चुनाव नतीजों का ऐलान होने के बाद से ही बीजेपी विरोधी राजनीतिक वर्ग के अस्तित्व पर चर्चा शुरू हो गई. भाजपा के इतर अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टी को वोट देने वाले मुस्लिम बेहद चिंतित हैं. डर है कि उन्हें सामाजिक स्तर पर, कार्यस्थल पर, सड़कों पर, गांवों में और सरकारी कार्यालयों में इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है. वे इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि उनके मतपत्र का इस्तेमाल अपने आप उन्हें एंटी बीजेपी इकोसिस्टम का हिस्सा बना देता है, जिससे पूरे देश में, खासतौर पर विंध्य के उत्तरी क्षेत्र में, उनके खिलाफ माहौल बनता है.
दरअसल, यह समुदाय शासन और उसके कार्य करने के तरीकों को लेकर ज्यादा परेशान नहीं है, क्योंकि सीधे तौर पर मिलने वाली कुछ सहूलियतों के अलावा अधिकतर सरकारी योजना से वे वंचित रहते हैं. उनकी सबसे ज्यादा चिंता उनके सामाजिक स्तर को लेकर है, जहां कई बार वैचारिक मदभेद की वजह से सामाजिक गतिशीलता और इकोनॉमिक इंटर-डिपेंडेंस में बदलाव आता है, जिसका असर अंतर-सामुदायिक संबंधों पर पड़ता है.
ध्रुवीकरण के आज के माहौल में कम-विशेषाधिकार प्राप्त मुस्लिमों की चुनावी पसंद के गंभीर परिणाम हो सकते हैं, क्योंकि बीजेपी विरोधी पार्टियों को वोट देने पर उनके खिलाफ कई कार्य होने लगते हैं और अंततः विभिन्न स्तरों जैसे पंचायतों, नगर पालिकाओं, पुलिस थानों, स्कूलों और कार्यालयों आदि में उनका बहिष्कार होने लगता है.
क्या मुस्लिमों को अपने सामूहिक राजनीतिक मूल्यों को एक ही पैमाने पर जारी रखना चाहिए? यह पहला सवाल है, जिस पर इस समुदाय को विचार करने की जरूरत है. एंटी बीजेपी इकोसिस्टम के तहत आने वाले गैर-मुस्लिम मतदाताओं के रुख में पिछले कुछ वर्षों के दौरान राजनीतिक रूप से बदलाव हुआ है. उदाहरण के लिए यादव और दलित पारंपरिक रूप से समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को वोट देते हैं. उन्होंने 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में बीजेपी को वोट दिया, जबकि मुस्लिम सपा-बसपा के साथ रहे.
इस चुनाव में भी मुस्लिमों ने यादवों, जाटों और कुछ अन्य समुदायों के साथ समाजवादी पार्टी के पक्ष में मतदान किया, लेकिन इस मतदान की कीमत सिर्फ मुस्लिम भुगतेंगे. पहले सवाल से ही दूसरे सवाल की शुरुआत होती है. दरअसल, यह एक ऐसा मसला बन चुका है, जो न सिर्फ मुस्लिमों को प्रभावित कर रहा है, बल्कि हिंदू मतदाताओं के सामाजिक व्यवहार में भी बदलाव ला रहा है. ऐसे में धर्मनिरपेक्षता का बोझ सिर्फ मुस्लिमों के कंधों पर ही क्यों? या फिर बीजेपी विरोधी राजनीतिक वर्ग इस वैचारिक लड़ाई में हमेशा मुस्लिमों को ही सबसे आगे क्यों खड़ा कर रहा है?
यह हकीकत है कि हाल के वर्षों में प्रमुख हिंदू पत्रकारों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया और भारत के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बनाए रखने की लड़ाई लड़ने के लिए उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी. हालांकि, मुस्लिमों ने सामूहिक रूप से इस वैचारिक युद्ध का असर महसूस किया. विनियामक परिवर्तनों ने उनकी आजीविका के साधनों को नष्ट कर दिया और व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून भी तबाह कर दिए. अंतर-सामुदायिक संबंध तनावपूर्ण हो गए. समुदाय को सामाजिक और राजनीतिक अलगाव का सामना करना पड़ा.
पिछले आठ साल के दौरान मुस्लिम समुदाय को 'अन्य' की श्रेणी में रखना अब आम चर्चा और सोशल मीडिया पर होने वाली तीखी नोकझोंक के परे जा चुका है. मेनस्ट्रीम मीडिया और राइट विंग इकोसिस्टम ने इसका प्रचार बढ़ा-चढ़ाकर किया, जिसकी वजह से यह जहर अब जड़ तक पहुंच चुका है.
विडंबन यह है कि बीजेपी विरोधी दलों के पक्ष में मुस्लिमों का एकजुट होना उनका राजनीतिक दायित्व बना दिया गया है. वहीं, अधिकतर हिंदू मतदाता जो खराब शासन, बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई से प्रभावित हैं, लेकिन चुनौती देने वाले राजनीतिक दल की समर्थन नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि मुस्लिम बीजेपी को हराकर बाहर करना चाहते हैं और बीजेपी अकेली ऐसी पार्टी है, जो उनके विश्वास और हिंदुत्व की रक्षा कर सकती है. यही वजह है कि सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया, जिसे रोजी-रोटी के मुद्दों से प्रेरित होना चाहिए, वह बेहद कड़वे और ध्रुवीकरण वाले वैचारिक संघर्ष में बदल जाती है.
उत्तर प्रदेश में ठीक ऐसा ही हुआ. जाट-मुस्लिम एकीकरण की बात ने हिंदू समुदायों को लामबंद कर दिया, जिसने बीजेपी की प्रभावशाली जीत में योगदान दिया.
धर्म के हिसाब से अल्पसंख्यक कहे जाने वाले समुदायों द्वारा सामूहिक रूप से एक पार्टी के पक्ष में मतदान करने की असली वजह उनकी असुरक्षा की भावना है, जो उनकी पहचान और व्यक्तिगत आजादी के खतरे की वजह से पनपती है. उनके लिए शासन और उसकी वजह से बनने वाले हालात जैसे मुद्दे बेहद छोटे रह जाते हैं. उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के पांच साल के शासन ने राज्य में मुस्लिमों को काफी ज्यादा डरा दिया है. इसके लिए योगी आदित्यनाथ की आक्रामक मुद्रा का धन्यवाद. उन्होंने बतौर लोकलुभावन नेता और बतौर मुख्यमंत्री लिए गए फैसलों दोनों में इसका दीदार कराया.
कानून व्यवस्था में सुधार लाने का उनका वादा 'मुस्लिमों को ठीक करने' का उदाहरण बन गया. 'मियां को ठीक कर दिया' शहरी शिक्षित मध्यम वर्ग के बीच एक चर्चित वाक्य बन गया. आदित्यनाथ की सरकार द्वारा विवादित मुस्लिम नेता आजम खान और मुख्तार अंसारी की संपत्तियों को चुन-चुनकर ढहाने के बाद मुस्लिमों को धमकाने के लिए बुलडोजर लोकप्रिय यंत्र बन गया.
इसलिए, अखिलेश यादव मुस्लिम समुदाय के लिए स्वाभाविक तारणहार बन गए, क्योंकि उन्हें ऐसे नेता के रूप में देखा गया, जो योगी आदित्यनाथ की जगह ले सकते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस ने 'मुख्यधारा' के मुस्लिमों के बारे में बात की. हाल के वर्षों में उनकी सरकार ने कई ऐसे निर्णय लिए, जिससे यह साबित हो कि बीजेपी इस समुदाय या कम से कम एक वर्ग की मदद करने का इरादा रखती थी. तीन तलाक के अपराधीकरण पर बीजेपी ने कहा था कि यह कानून मुस्लिम महिलाओं को मुस्लिम पुरुषों के वैवाहिक अपराधों से कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है और अब उनके पास विवाहित हिंदू महिलाओं के समान अधिकार हैं. इसी तरह अनुच्छेद 370 को हटाकर मोदी सरकार ने कश्मीरी मुस्लिमों को जमीन से जोड़ने का वादा किया.
हालांकि, मोदी और उनकी पार्टी दोनों ने कभी भी निर्वाचित विधानसभाओं और संसद में मुस्लिमों के खराब प्रतिनिधित्व के बारे में बात नहीं की. इसके विपरीत बीजेपी और आरएसएस ने एक ऐसा इकोसिस्टम बनाया, जो मुस्लिमों को प्रणालीगत बहिष्कार की ओर ले जाता है और उन्हें 'अन्य' की भूमिका में बांध देता है. हिंदू मतदाताओं को लुभाने के लिए बीजेपी के राजनीतिक बयानों में सामाजिक-आर्थिक वर्गों का जिक्र नहीं होता. उसे मुस्लिमों की बदनामी के इर्द-गिर्द रखा जाता है, जिसे मेनस्ट्रीम मीडिया प्रभावी ढंग से आगे बढ़ाती है. आज की भारतीय राजनीति की दुखद वास्तविकता यह है कि इस बदनामी ने समाज में, कॉरपोरेट बोर्डरूम में, स्कूलों में और यहां तक कि बॉलीवुड में भी तेजी पकड़ ली है.
इसी तरह, मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट नहीं देने के पीछे से बीजेपी जीत के प्रतिशत का हवाला देती है. ऐसे में उस सियासी हकीकत को अनदेखा कर दिया जाता है कि अधिकांश मतदाता ब्रांड मोदी (और अब ब्रांड योगी) को चुनते हैं और उन्हें उम्मीदवारों की कोई परवाह तक नहीं होती. अगर बीजेपी के टिकट पर कोई मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव लड़ता है तो उसके जीतने की उम्मीद भी उतनी ही होगी, जितनी हिंदू उम्मीदवारों की होती है.
2022 के विधानसभा चुनावों के परिणामों से पता चलता है कि हिंदुओं के बाद सबसे ज्यादा वोट बैंक वाले समुदाय द्वारा स्वाभाविक नापसंदगी के बावजूद बीजेपी वर्षों तक प्रमुख राष्ट्रीय शक्ति बनी रह सकती है. हालांकि, बीजेपी को यह महसूस करना चाहिए कि राजनीतिक दल जनता की राय का ध्रुवीकरण करके अपने कदम आगे बढ़ाने में सफल हो सकते हैं. यह एक हकीकत है कि चुनावी सफलताएं स्थायी विरासत की गारंटी नहीं देती हैं. मुस्लिमों की बदनामी समर्थकों को लुभा सकती है और उन्हें मतदान केंद्र तक ला सकती है, लेकिन अगले कुछ वर्षों में इस तरह के बयान अपनी अपील खो देंगे.
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