सम्पादकीय

एक सड़क सत्तावन गलियां

Subhi
25 Feb 2022 4:56 AM GMT
एक सड़क सत्तावन गलियां
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जिंदगी में पुलों की तलाश करते-करते अधूरे पुलों की विरासत ढोना आज जैसे आम लोगों की नियति बन गई है। इस नियति की दिलासा से संतुष्ट होते हुए उन ठेकेदारों का अट््टहास हमें सुनाई देता रहता है

सुरेश सेठ: जिंदगी में पुलों की तलाश करते-करते अधूरे पुलों की विरासत ढोना आज जैसे आम लोगों की नियति बन गई है। इस नियति की दिलासा से संतुष्ट होते हुए उन ठेकेदारों का अट््टहास हमें सुनाई देता रहता है, जिन्होंने हर अधूरे काम पर उपलब्धि के पोस्टर चस्पां कर दिए हैं। आज अर्जुन निहत्थे हो गए। क्या ये निहत्थे अर्जुन अपने अचूक निशाने से मछली की आंख बींध सकते हैं? हमने चक्रव्यूह तोड़ते हुए अभिमन्यु को महारथियों को घेर कर मार दिए जाने की कहानी सुनी है।

कितना वक्त बीत गया। अब जीवन का महाभारत लड़ते हुए अर्जुन का धनुष-बाण 'शार्टकट' संस्कृति के सहारे कमंद लगा किला विजित करने के बाद मध्यमजनों ने छीन लिया। अर्जुन के पास तो मेहनत के बाणों से अपने आदर्शों के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की कला थी, लेकिन आजकल मेहनत कर सकने वालों का दो कौड़ी मोल नहीं है। उन्हें स्वरोजगार के नाम पर पकौड़े बेचने के उपदेश दिए जाते हैं। लक्ष्य बेधने के लिए केवल नारे उछलते हैं।

ऐसे माहौल में मंदी के अंधेरे गहराते जा रहे हैं, भला इसमें अपना लक्ष्य बेधने के लिए अर्जुन को मछली की आंख कैसे नजर आ जाती? आजकल नेकी और बदी के महाभारत नहीं सजते। महारथियों के सिर पर वंशवाद के ताज सज गए हैं। उनके हाथों में सेवा से पहले मेवा पाने का ब्रह्मास्त्र है। ऐसे महारथियों को घेरने के लिए आज के अर्जुनों के पास न तो इन पूंजीपतियों के लौह कपाटों से घिरे चक्रव्यूहों में घुसने और न ही तोड़ कर निकल जाने की विद्या है। आज का अर्जुन तो इस चतुर विद्या में सफलता के महामंत्र के पास भी नहीं फटकता। वह भला अपने बेटे को उसकी मां के गर्भ में रहते-रहते चक्रव्यूह तोड़ने की अधूरी विद्या ही कैसे सिखा दे?

निहत्था अर्जुन अपने महाभारत के मैदानों को हवाई मीनारों में तब्दील होते देख रहा है। इनके गुप्त द्वारों को खोलने की कोई विद्या उनके किसी गुरु ने उन्हें नहीं सिखाई। उसका बेटा जब तक विद्यालयों में जाकर विद्या सीख पाता, वहां दी जा रही शिक्षा पुरातनपंथी घोषित की जा चुकी थी। अब आलम यह है कि पौन सदी की इस आजादी में अपने लिए कोई नई कमीज तो वे सिला न सके, उधार की कमीज को ही अपना बता उस पर इतराते रहे हैं, एक-दूसरे पर पिल पड़े हैं। होता है तमाशा दिन-रात मेरे आगे के अंदाज में।

ये स्कूल और कालेज इतने बरस तक उन्हें ऐसे सफेद कालर वाले बाबू बना कर उनके जीवन सफर में भेजते रहे, कि जिनके पास अकेला गुण जी-हजूरी या ठकुरसुहाती का था। अब जब नए तरीके से लड़ाई लड़ने की बारी आई, तो आज के अर्जुन निहत्थे थे, और नई पीढ़ी के अभिन्यु चक्रव्यूह में घुसने का अधूरा ज्ञान भी नहीं रखते थे। दो कदम चलने के लिए भी उन्हें विदेशी महारथियों के बहुराष्ट्रीय कंपनियों जैसे रथों की चाहत थी। बैसाखियां मिल गई हैं, क्योंकि उनके देश में सहारा मांगने वालों का आंगन बहुत बड़ा था।

चार सदी पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के बंजारों ने यहां के दिवालिया बादशाहों के सामने कोर्निश बजाई थी, अब सरकारी उपक्रमों में विनिवेश के भस्‍मासुर के सहारे देश की मंडियों के आयातित सरताज उभर आए हैं। ये लोग किसी देश या बस्ती को गुलाम नहीं बनाते, बस अपनी बाजार संस्कृति की बेड़ियां पहना देते हैं। अब बताइए, आज का अर्जुन कहां शरसंधान करने जाए? नई पीढ़ी के अभिन्यु किससे चक्रव्यूह में घुसने का गुण सीखें।देखते ही देखते इस देश को उन लोगों ने दो हिस्सों में बांट दिया।

एक उनका भारत, जहां विदेशी आकाओं से परिचालित अर्थव्यवस्था में बड़ी-बड़ी अट््टालिकाएं हैं, विदेशी वातानुकूलित गाड़ियां हैं। इन भव्य प्रासादों के आगे से राजपथ निकल जाता है, जिससे निकलने के सब सर्वाधिकार उन भद्र लोगों ने सुरक्षित करवा लिए हैं, जिन्होंने अपनी आपाधापी से ऐसे अभेद्य किले खड़े कर लिए कि अब बाकी पूरा देश या बाकी करोड़ों की आबादी उनके उत्साहजनक भाषणों को सुनने के सिवा कुछ नहीं कर सकती।

दूसरी ओर इस मैदान को कूड़ा घर बनते देखते अपने तिल-तिल, मरते सपनों के साथ करोड़ों लोग खड़े हैं। मूक दर्शकों की तरह या उन पंक्तिबद्ध भक्तजनों की तरह, जिन्हें नायक पूजा विरासत में मिली है। दिव्य प्रासादों से उनके चरण कमलों की जो वंदना कर गए, वे तो उनके ऊंचे होते प्रासादों के साथ अपने फुटपाथों से झोंपड़ियों तक आ गए, लेकिन जिन्हें यह तप साधना करनी नहीं आई, वे आज भी बैठे हैं एक कोने में अपनी जिंदगी पर सुबकते से।

महाभारत लड़े बिना ही खत्म हो गया। अब तो एक सड़क है और सत्तावन गलियां हैं। ये सब गलियां भूख, बेकारी और अवसाद के अंधे कुओं तक जाकर खत्म हो जाती हैं। आज के आहत अभिमन्यु वर्गभेद भूल कर कर उस धोखा खाए अश्वत्थामा के साथ भटक रहे हैं, कि जिसके माथे का घाव आज भी रिस रहा है। लगता है, बेहतर जिंदगी का साक्षात्कार किसी को भी नहीं मिला, उनके धनाढ्य भारत तक इस भारत के पहुंचने के लिए पुल भी नहीं बन पाती।


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