सम्पादकीय

एक कदम, बस एक कदम

Subhi
28 May 2022 4:49 AM GMT
संपूर्ण प्रकृति में देने का भाव है। जो जैसा मिला उसको वैसा दिया। हर मौसम में अलग-अलग फूल, फल, पत्ती उस मौसम की तासीर के अनुसार। प्रकृति के अटल नियम हैं

लोकेंद्रसिंह कोट: संपूर्ण प्रकृति में देने का भाव है। जो जैसा मिला उसको वैसा दिया। हर मौसम में अलग-अलग फूल, फल, पत्ती उस मौसम की तासीर के अनुसार। प्रकृति के अटल नियम हैं और उनमें लय है। जैसे एक साथ सारे वाद्य यंत्र बजने लगें, अपनी-अपनी रौ में तो शोर बन जाएगा, लेकिन अगर सभी लय में बजें तो वही संगीत बन जाता है। प्रकृति का अपना संगीत है। वह रोज नए राग पैदा करती है, रोज नए तराने बनाती है। मगर जीवन की इस भागदौड़ में समय किसके पास है, कि पत्तों पर पड़ी ओस की गोल बूंदों में समाए पूरे संसार को देख सके।

जीवन का राग भी ओस की बूंद के समान ही है। जीवन चहचहाते पंछी, प्यासे चातक में बसा है, जहां खोज है, सरलता है, जिज्ञासा है। जीवन उस मकड़ी के महीन जालों की तरह बुना हुआ है, कभी कठिन भी लगता है। लगता है कैसे मकड़जाल में उलझ कर रह गए हम। इससे बाहर निकलते हैं तो रातरानी की मदहोश कर देने वाली खुशबू में लिपट कर हम प्रेम को मोह समझने की भूल कर देते हैं। मोह आखिर में दुख ही देता है। यह अच्छे से समझा देती है प्रकृति।

प्रकृति, देखा जाए तो विरोधाभासों से भरी है, जीवन के विरोधाभासों की तरह। एक अकेले फल के बीज में अनंत नए फल देने की संभावनाएं भी होती हैं तो दूसरे ही पल कोई उसे नष्ट कर दे तो वही अनंत संभावनाएं शून्य हो जाती हैं। एक फलदार वृक्ष को पता होता है कि उसे ही नोचा जाएगा, उसे ही पत्थर खाने होंगे, लेकिन देने के सुख के आगे ऐसे छोटे-मोटे दुख नगण्य हैं। हर पेड़ को पता होता है कि जो किसलय उसकी गोद में खेल रहे हैं, समय आते वे पतझड़ के साथ बिछड़ जाएंगे। फिर भी वही स्नेह, वही ममता।

हमें भी पता है कि जो भी हमारे आसपास हैं, हम सब बिछुड़ेंगे बारी-बारी, फिर भी स्नेह, ममता, लगाव ऐसा कि पूछो मत। जैसे किसलय-पतझड़ वैसे ही दिन-रात, अच्छा-बुरा, नायक-खलनायक, सुख-दुख सब लगते हैं विरोधाभासी, लेकिन गौर से देखें तो पाएंगे कि सब एक-दूसरे के पूरक हैं। अगर किसी चलचित्र से खलनायक को हटा दें, तो क्या वह चलचित्र आप देखेंगे? अगर रामायण में से कैकेयी और रावण को हटा दें, तो राम के लिए करने को क्या बचेगा? जैसे नायक का मूल्य खलनायक बढ़ाता है, वैसे ही खलनायक का मूल्य नायक, दोनों विरोधाभासी नहीं हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। ऐसे ही जीवन में सुख और दुख है। एक दूसरे के सदा पूरक। दुख हमें उठ कर खड़ा होना सिखाता है और जितना दुख हमें पढ़ाता है, सिखाता है उतना सुख नहीं पढ़ाता, सिखाता है।

प्रकृति में जितना जल है, उतनी ही अगिन भी है, जितनी धरती भरी हुई लगती है, उतना खाली आकाश भी है। जो हवा जीवन दे सकती है श्वासों के माध्यम से, वही तूफानों से हमें तहस-नहस भी कर सकती है। जो जल हमें जिस पात्र में डालो वैसा आकार लेकर विनम्रता सिखाता है, वही रौद्र रूप धर कर हमें बहा कर भी ले जा सकता है। ऐसे ही एक मनुष्य के दोनों पक्ष होंगे, क्योंकि हम भी बने हुए इसी हवा, पानी, आकाश, धरती और अग्नि के हैं। संतुलन आवश्यक है।

प्रकृति त्याग और तपस्या का अनुपम पाठ है। हमेशा अपने मन की नहीं, कुछ दूसरों के मन की हो, वही त्याग होता है। पेड़ से पत्ते और पत्तों से पेड़ हमेशा जुड़े रहना चाहते हैं, लेकिन नयों को रास्ता देने के लिए पुराने पत्ते उसी वृक्ष के आसपास गिर जाते हैं और अंत में जमीन में घुल कर खाद बन कर उन्ही पेड़ों को पोषित करते हैं। वे त्याग का अनुपम पाठ पढ़ाते हैं।

नीम के साथ कई और पेड़ बढ़ती गर्मी में और गहरा जाते हैं, ताकि जरूरतमंद कुछ समय राहत की सांस ले सकें। तरबूज, खरबूज भी उतना पानी अपने अंदर समा लेते हैं कि उन्हें खाने वाले की उदरपूर्ति और जलापूर्ति दोनों हो सके। आम और प्याज भी गर्मी को चुनौती देते हुए उसकी पूरी लू उतार देते हैं। यही तपस्या है, जो प्रकृति करती है और संदेश देती है कि तप बिना अच्छा जीवन तो मिल सकता है, लेकिन सच्चा जीवन नहीं।

अच्छा अच्छा सब चाहते हैं, लेकिन सच्चा चाहने वालों की संख्या कम है और यही हमें पीछे धकेल रहा है। प्रकृति तो खुल कर हमें संदेश दे रही है। अब देखिए न, एक मुट्ठी धान हम जमीन के हवाले करते हैं वह हमारे भंडार भर देती है। एक कदम आप चलते हैं, तो सौ कदम प्रकृति आपके लिए आगे-आगे चलती है। बस देर आपके एक कदम बढ़ाने की है।

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