सम्पादकीय

रेल बजट और आम बजट के एक होने का बड़ा लाभ यह हुआ है कि अब हमारी सांसें एक बार ही ऊपर-नीचे होती हैं

Gulabi
31 Jan 2021 10:06 AM GMT
रेल बजट और आम बजट के एक होने का बड़ा लाभ यह हुआ है कि अब हमारी सांसें एक बार ही ऊपर-नीचे होती हैं
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प्रत्येक आम आदमी किसी न किसी रूप में बजट के आने से प्रभावित होता है

आगामी वित्तीय वर्ष का बजट पेश होने वाला है। एक वह भी समय हुआ करता था जब हम निफ्टी, सूचकांक, पूंजी, मुद्रा बाजार के साथ मंदी और महंगाई, राजकोषीय घाटे जैसे लोकडरावन शब्दों के नाम मात्र से ही घबरा जाते थे। बाद में जब समाचार पत्रों में और टीवी के अनेकानेक चैनलों पर अर्थशास्त्र के गहन विश्लेषण पढ़ने-सुनने लग गए, तब से हमारा भय तो कम हुआ ही है, अब इस बजट जैसे नीरस सब्जेक्ट में भी आनंद रस का अनुभव होने लग गया है।


प्रत्येक आम आदमी किसी न किसी रूप में बजट के आने से प्रभावित होता है

यह सच है कि प्रत्येक आम आदमी किसी न किसी रूप में बजट के आने से प्रभावित होता है, लेकिन यह भी उतने ही आश्चर्य की बात है कि उसके लिए यह हमेशा से एक उबाऊ मसला रहा है। हम जैसे सामान्य बुद्धि के लोगों की समझ में यह बात आज तक नहीं आ पाई है कि बजट में उल्लिखित जमागत पूंजी और संस्थागत व्यय क्या बला हैं? आखिरकार यह रुपया आता किधर से है और जाता कहां है? हमें इतना अवश्य पता है कि बजट की इस पारंपरिक नीरसता को दूर करने के लिए इस बार भी हमारी वित्त मंत्री अपने बजट-भाषण के बीच में कुछेक शेर सुनाकर इसे सरस बनाने की कोशिश अवश्य करेंगी।
समय बदल गया, लेकिन बजट को लेकर हमारी सोच वैसी की वैसी ही है


समय बदल गया, लेकिन बजट को लेकर हमारी सोच वैसी की वैसी ही है। इसका नाम सुनते ही हमारे दिल की धड़कनों का संवेदी सूचकांक बढ़ने-घटने लग जाता है। तन और मन से अधिक धन र्की ंचता सताने लगती है। चित्त में वित्त कुलांचे मारने लगता है। पहले आम बजट भद्दर फागुन में होली के आसपास आया करता था और हमारे चेहरों पर कुछ लाल, कुछ काले रंग पोत कर खिसक लिया करता था। इसके बाद हम दर्पण में अपना मुखड़ा देखते थे और खुद से ही प्रश्न किया करते थे कि क्या यह हम ही हैं? अब यह फरवरी की शुरुआत में ही आने लग गया है। पहले यह दो-दो बार प्रकट होता था। पहली बार रेल बजट बनकर और दूसरी बार आम बजट बनकर हमें एक नहीं, दो झटके दिया करता था।


टू-इन-वन बजट

अब यह टू-इन-वन बन गया है। इसका एक प्रत्यक्ष लाभ यह हुआ है कि इसके आने को लेकर हमारी सांसें एक बार ही ऊपर-नीचे होती हैं। बजट से आशा या निराशा जो कुछ भी होनी होती हैं, एक बार में ही हो जाया करती हैं। एक बात और, पहले यह सूटकेस में बंद होकर आया करता था, अब बहीखाता बन गया है, लेकिन इससे क्या अंतर पड़ता है? बजट के पेश होने से पहले जैसी आशंकाएं अतीत में हुआ करती थीं, वैसी ही आज भी होती हैं। शेयर मार्केट पहले भी गोते लगाया करता था और आज भी ऊपर-नीचे हो रहा है। बजट के पूर्ववर्ती और पश्चातवर्ती प्रभाव को समझ पाना कुछ उसी प्रकार असंभव है जैसे किसी फिल्मी डॉन को पकड़ पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

बजटराज के आगमन की प्रतीक्षा

आओ बजटराज! हम तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हमें पता है कि तुम किस रास्ते से आने वाले हो? तुम वित्त मंत्रालय की घुमावदार गलियों से होते हुए और लोकसभा के गलियारों में दबे पांव आओगे और आते ही पूरे देश की हवाओं में फैल जाओगे। जिस प्रकार वसंत के आगमन की सूचना कोयल की कूक से मिला करती है, उसी प्रकार तुम्हारे आने की जानकारी आर्थिक सर्वेक्षण से हम सभी को प्राप्त हो चुकी है। हम यह तो नहीं कह सकते कि तुम्हारे आने के बाद महंगाई बढ़ेगी या घटेगी, लेकिन तुम्हारा ऊंट किस करवट बैठेगा, इसका कयास तो हम लगा ही सकते हैं, लेकिन अभी बताएंगे नहीं।

बजटराज जब आएंगे तब कई लोग तुम्हें जन कल्याणकारी बताएंगे और कुछ लोग घोर निराशाजनक

हमें तो यह भी पता है कि जब तुम आओगे, तब कई लोग तुम्हें जन कल्याणकारी बताएंगे और कुछ लोग घोर निराशाजनक। कुछ लोग मेजें थपथपाकर और तालियां बजाकर तुम्हारे रूप-सौंदर्य की प्रशंसा करेंगे। वहीं कुछ तुम्हारे आकार-प्रकार में संशोधन की मांग करेंगे। यह कोई नई बात नहीं है। ऐसा हम बरसों से देखते आ रहे हैं और हमें पूर्ण विश्वास है कि लोकतांत्रिक देश में ऐसी परंपरा न पहले कभी टूटी है, न ही भविष्य में टूटने वाली है।

बहरहाल, हे बजटराज पधारो। विकास दर की नैया के तुम्हीं खेवैया हो। इस बार तुम जिस भी स्वरूप में आओगे, हम तुम्हारा स्वागत करेंगे। न तो तुम्हारे बिना हमारी गृहस्थी चलने वाली है, न ही तुम्हारे बिना इस देश की अर्थव्यवस्था का चक्का ही दौड़ सकता है।


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