सम्पादकीय

संघ का एक राष्ट्र, एक रूप

Rani Sahu
20 Dec 2021 6:57 PM GMT
संघ का एक राष्ट्र, एक रूप
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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक डा. मोहन भागवत के सान्निध्य में जागृत होती

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक डा. मोहन भागवत के सान्निध्य में जागृत होती राष्ट्रीय भावना, हिंदू व हिंदुत्व के महीन पर्दे और मानवीय अलंकरण के मसौदों में समाज के दर्पण का अवलोकन, इन दिनों कांगड़ा की परिधि में एक बड़ी कार्यशाला में निरुपित हुआ। अपने इतिहास के सौ साल की ओर बढ़ रहा संघ परिवार मानवीय जिज्ञासा, राष्ट्रीय चित्रण, सामाजिक संकल्प, देश के ध्येय और स्वयं को निर्धारित करते आदर्शों को सामने ला रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में हिमाचल के प्रबुद्ध वर्ग की नुमाइंदगी में मोहन भागवत के साथ हिमाचल रू-ब-रू हुआ, तो मोहन भागवत जीवन का तिनका-तिनका और राष्ट्र का मनका-मनका जोड़ देते हैं। यहां स्वयं सेवक और संघ परिवार दो अलग संदर्भों की व्याख्या में जीवन के मूल का उच्चारण होते हैं, लेकिन जीवन पद्धति से देश के लिए जीने और मरने वालों की पौध की शिनाख्त भी सामने आती है। समाज की एकता में देश और नागरिक, न जाति और न ही पंथ के रूप में देखे जाते हैं। भागवत देश के अभिप्राय में नागरिक समाज में गुणवत्ता का आचरण टटोलते हैं। देश को आगे रखते हुए समाज कितना अनुशासित दिखाई देता है या कायदे-कानूनों में कितना जीरो टांलरेंस दिखाता है, इसको लेकर भारतीय मानस को वह खंगालते हैं। ऐसे में वक्तव्यों की तांकझांक में उच्चारण तो सही व सटीक हैं, लेकिन नागरिक जिम्मेदारी व जवाबदेही के आंकड़े तो बुरी तरह कुचले जा रहे हैं।

नागरिक अपना अलग संसार बना कर देश को किसी कोने में खड़ा कर देते हैं। देश तो किसी मंदिर में बौना हो जाता है, क्योंकि वहां भूख व भिखारियों में लिपटा आचरण दया-भाव जगा सकता है, लेकिन इस चौखट में भी लेन-देन करता इनसान केवल एक पक्ष को बड़ा बना देता है। भागवत स्पष्टता से कहते हैं कि अच्छे राष्ट्र के निर्माण के लिए सारे कार्य सरकारें नहीं कर सकतीं और अगर देश की अर्थनीति का यही भविष्य है, तो फिर निजी क्षेत्र के प्रति सरकारों की दृष्टि क्यों असामान्य है। दूसरी ओर समाज से निकलते राष्ट्र के कदम, आत्मबल के लिए अपने अनुशासन, त्याग, मेहनत व कसौटियां तय नहीं करेंगे, तो भारत अतुलनीय नहीं होगा। व्यक्ति और समाज के बीच टकराव के लिए कोई जगह नहीं। मोहन भागवत के सामने हिमाचल का सांस्कृतिक, बौद्धिक व श्रेष्ठ उपलब्धियों से अलंकृत समाज कई प्रश्न उठाता है, लेकिन यथार्थ में हम अपने वजूद के कई छिलके देखते हैं। राज्य के समक्ष कई उदाहरण ऐसे आश्रमों की ख्याति करते हैं, जहां समाज असमानता के तिनके बटोर लेता है, लेकिन आश्रम के बाहर सामुदायिक व्यवहार में रत्ती भर परिवर्तन नहीं आता। हिमाचली समाज की चिंताओं में मंदिरों का सरकारीकरण, खेल संघों पर राजनेताओं का कब्जा,इतिहास लेखन के द्वंद्व, पर्यावरणीय शर्तों के बीच जल विद्युत उत्पादन, महिला सशक्तिकरण, जातीय वैमनस्य, गोमाता की दुर्दशा, आजादी के बाद के भारतीय युद्धों और पराक्रम के इतिहास लेखन पर जब चर्चा होती है, तो सरसंघ चालक के सामने प्रश्नों के आत्मविश्लेषण-आत्म चिंतन के रास्ते खुलते हैं।
वह हर प्रश्न के भीतर समाज को समाज की नजर से देखने की नसीहत देते हैं। समाज से राष्ट्र के संवाद में मीडिया की भूमिका पर ताज्जुब करता अन्वेषण बताता है कि व्यापार में मदहोश पत्रकारिता अपनी सांस्कृतिक ऊर्जा, ईमानदार पक्ष, संतुलन भूल गया है, जबकि समाज का भौंडापन, सोच की विद्रूपता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सब कुछ परोसा जा रहा है। हिमाचल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कार्यशालाओं से नैतिक ऊर्जा के कई स्रोत दिखे, लेकिन हकीकत में मंच से जमीन तक की पैमाइश जब तक नहीं होती, आदर्श अवधारणा के दीपक अलग-अलग तूफानों से घिरे रहेंगे। देश के प्रति समाज के दायित्व की नियुक्ति करते मोहन भागवत बहुत कुछ परोसते हैं, लेकिन क्लासरूम से बाहर हमारे प्रदेश की ऊर्जा या तो युवा मंतव्यों में हार रही है या सरकारी कार्य संस्कृति का रिसाव इतना है कि प्रदेश का खजाना सूख रहा है। राष्ट्र और नागरिक की चिंताएं एक न होकर,समाज के खोखलेपन में इजहार कर रही हैं। नागरिक और दीमक के बीच बंटती सीमा रेखा और राष्ट्र के प्रति घटती नागरिक कृतज्ञता के विवरण हम खुद पैदा कर रहे हैं। ऐसे में देश, समाज और सरकार के लिए एक संस्कृति, एक सभ्यता, एक सरीखे सरोकार, एक भावना व एक इतिहास को जोड़कर राष्ट्र के संगठन में अतीत से भविष्य को जोड़ते हिंदू मंतव्य का अर्थभेद कैसे मुकम्मल होगा, यह राष्ट्र निर्माण की नई सोहबत में संघ परिवार का जागरण है। यह किस हद तक कबूल होगा, कोई नहीं जानता।

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