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यूक्रेन और रूस के बीच जारी युद्ध
डा. अश्विनी महाजन। रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध के कारण पूरा विश्व चिंता में है, क्योंकि इससे वैश्विक शांति भंग हो सकती है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ यूक्रेन का जन्म एक स्वतंत्र देश के रूप में जनमत संग्रह और राष्ट्रपति चुनाव के साथ हुआ था।
यूक्रेन को पूरी उम्मीद थी कि रूसी आक्रमण के बाद अमेरिका उसकी मदद के लिए हाथ बढ़ाएगा, लेकिन अमेरिका द्वारा सैन्य मदद से इन्कार के बाद यूक्रेन के राष्ट्रपति ने अमेरिका की भी आलोचना की है। ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में कहीं से भी मदद न मिलने के कारण ताकतवर रूस के साथ यूक्रेन की सेना आत्मसमर्पण कर देगी।
वर्तमान संकट के बारे में यदि निष्पक्ष तरीके से देखा जाए तो ऊपरी तौर पर ऐसा लग सकता है कि यह किसी देश पर आक्रमण है। जैसाकि भारत ने कहा भी है कि सभी विवादों को बातचीत के माध्यम से हल किया जा सकता है और ऐसा होना भी चाहिए। लेकिन यदि रूस के नजरिये से इस पर विचार किया जाए तो ध्यान में आता है कि शीतयुद्ध के समय से लेकर अभी तक एक ओर रूस और दूसरी ओर अमेरिका एवं उसके मित्र अन्य नाटो देशों के बीच लगातार एक तनातनी बनी हुई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यूक्रेन द्वारा नाटो समूह में शामिल होने से रूस की सीमाओं पर नाटो उपस्थित हो जाएगा। ऐसे में रूस कभी भी नहीं चाहेगा कि किसी भी हालत में यूक्रेन नाटो का सदस्य बने। साथ ही यह पहली बार नहीं है कि यूक्रेन के साथ रूस के संबंधों में टकराव की स्थिति आई है। जब-जब यूक्रेन ने नाटो के साथ अपनी नजदीकियां बढ़ाने का प्रयास किया है, तब-तब रूस ने उसका प्रतिकार किया है।
कुछ अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों का यह मानना है कि आने वाले समय में रूस के राष्ट्रपति सोवियत संघ की पुनस्र्थापना के लिए सोवियत संघ के विघटन के बाद नवोदित देशों पर भी सैन्य आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन कर सकते हैं। लेकिन इस विचार का कोई आधार दिखाई नहीं देता है। सर्वप्रथम रूस ने स्वयं कहा है कि यूक्रेन पर कब्जा करने का उसका कोई इरादा नहीं है। कुछ समय पूर्व जब रूसी राष्ट्रपति से यह प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वैश्विक महाशक्ति बने रहने की होड़ में उन्होंने काफी आर्थिक नुकसान सहा है। गौरतलब है कि सोवियत संघ के दिनों में शीतयुद्ध के चलते, रूस के राजकोष का एक बड़ा हिस्सा सैन्य खर्च में जाता था, जिसके कारण रूस के लोगों का जीवन स्तर अन्य समकक्ष देशों की तुलना में बहुत कम रह गया और मानव विकास की दौड़ में कहीं ज्यादा पिछड़ गया।
गौरतलब है कि एक महाशक्ति बने रहने की कवायद में अमेरिका ने भी काफी नुकसान सहा है। सामान्यत: अमेरिका अपनी दादागिरी के प्रदर्शन के लिए अपनी रणनीति के अंतर्गत विभिन्न देशों में सैन्य हस्तक्षेप करता रहा है। अफगानिस्तान समेत कई देशों में अमेरिकी हस्तक्षेप, हाल ही के कुछ उदाहरण हैं। इन सभी प्रकार के हस्तक्षेपों का आर्थिक नुकसान के रूप में व्यापक खामियाजा अमेरिका को भुगतना पड़ा है। इसीलिए अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ने अलग-अलग देशों में अमेरिकी हस्तक्षेप के नुकसानों से सबक लेते हुए भविष्य में इनसे बचने का आह्वान किया। हाल ही में वैश्विक आलोचना के बावजूद अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुला लिया था। यह निर्णय आर्थिक कारणों से ही लिया गया था।
इसीलिए यूक्रेन पर रूसी आक्रमण को साम्राज्यवादी विस्तार के नाते नहीं, रूस की अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए संवेदना के रूप में देखा जाना चाहिए। इस संबंध में यूक्रेन के घटनाक्रमों पर रूस की पहली प्रतिक्रिया नहीं है। इससे पूर्व भी कई बार रूस ने यूक्रेन पर सशस्त्र और अन्य प्रकार से हस्तक्षेप किया है। वह नहीं चाहता कि नाटो के कारण उसकी सीमाओं पर कोई संकट आए।
यूक्रेन के राष्ट्रपति जैलेंसकी ने अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन से गुहार लगाई कि वह यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनने दें। वर्ष 2021 के मध्य में रूसी सेनाएं यूक्रेन की सीमाओं तक पहुंच गईं, लेकिन यूक्रेन फिर भी रूस के लिए नापसंद कार्य करता रहा। दिसंबर में बाइडन ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी दी। उसके बाद से नाटो और अमेरिका लगातार रूस के प्रति आक्रामक रुख अपनाए रहा। यूरोपीय समुदाय के देशों, इंग्लैंड और अमेरिका द्वारा लगातार रूस को धमकियां दी जाती रहीं। इन धमकियों को दरकिनार कर इस युद्ध में सैन्य दृष्टि से ही नहीं, कूटनीतिक तौर पर भी रूस विजयी होता दिखाई दे रहा है। जहां अमेरिका ही नहीं, नाटो की ओर से भी यूक्रेन को कोई सहायता नहीं मिली, बल्कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी भारत और चीन समेत तीन देशों ने उस प्रस्ताव से तटस्थ रहकर पश्चिमी देशों के रुख से किनारा कर लिया है।
गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से रूस और चीन के बीच परस्पर सहयोग बढ़ा है और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी साझेदारी बढ़ रही है। अमेरिका को ज्ञात है कि रूस और चीन के बीच अभी तक जो समझ बनी है, वह राजनयिक और आर्थिक मुद्दों तक ही सीमित है। अमेरिका कभी नहीं चाहेगा कि यह सैन्य सहयोग की तरफ भी आगे बढ़ जाए। इसलिए अमेरिका द्वारा यूक्रेन को सहयोग नहीं दिया जाना अमेरिका की समझ दिखाता है। जहां तक अमेरिका, यूरोपीय समुदाय और इंग्लैंड द्वारा यूक्रेन पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की बात है, उससे रूस को खास फर्क पडऩे वाला नहीं है, लेकिन संभव है कि प्रतिबंध लगाने वाले देशों पर ही इसका दुष्प्रभाव पड़े।
कई अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक इस बात से सशंकित हैं कि इस उदाहरण का लाभ उठाते हुए चीन ताईवान पर कब्जा न कर ले। हालांकि चीन के मंसूबों के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, चाहे पिछले काफी समय से चीन ताईवान पर अपना दावा ठोकता रहा है, लेकिन समझना होगा कि चीन के इन मंसूबों से निपटने के लिए अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया 'क्वाडÓ के अंतर्गत समुद्र में सैन्य अभ्यास के माध्यम से चीन पर अंकुश लगाए हुए हैं। इसलिए बिना उनसे निपटे चीन के मंसूबे सफल नहीं हो सकते।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रस्ताव से किनारा करते हुए बातचीत के सहारे इस मुद्दे के समाधान की बात कही है। इस बातचीत में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। भारत समेत दुनिया के सभी देशों को एक सीख लेनी होगी कि विस्तारवादी ताकतें अपने सोच से बाज नहीं आ सकतीं। अपनी स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखने के लिए जरूरी है कि देश आर्थिकी, प्रौद्योगिकी और सैन्य, सभी दृष्टि से मजबूत हो। ऐसे में अपने आर्थिक तंत्र और प्रौद्योगिकी को मजबूत बनाते हुए भारत को अपने देश को सैन्य दृष्टि से मजबूत बनाने के लिए रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर बनना होगा, तभी विस्तारवादी ताकतों के कुत्सित प्रयासों से हम बच सकते हैं।
( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं )
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