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- एक और बगावत
लोक जनशक्ति पार्टी में दिख रही फूट न केवल इस पार्टी, बल्कि भारतीय राजनीति का ऐसा पहलू है, जो दुखद भी है और विचारणीय है। इस फूट को बगावत भी कहा जा सकता है और एक पार्टी का पुनर्निर्माण भी। कोई आश्चर्य की बात नहीं, अब राजनीति में जितने भी निर्माण या पुर्निनर्माण होते हैं, वे ज्यादातर सत्तामुखी ही होते हैं। बिहार में विगत विधानसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी की बुरी हार के बाद विरोध के स्वर स्वाभाविक थे। अगर विधानसभा चुनाव में पार्टी को चंद सीटें भी मिल जातीं, तो पार्टी नेता चिराग पासवान के दांव को बल मिलता और पार्टी को भी। विगत लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली ताकत का उत्साह विधानसभा चुनाव में कुछ ज्यादा ही प्रदर्शित हुआ। चुनावी विश्लेषण करने वालों ने पहले ही बता दिया था कि लोकसभा में मिली जीत गठबंधन का नतीजा थी, जबकि विधानसभा में मिली हार गठबंधन छोड़ने का नतीजा। बाद के दिनों में यह बिल्कुल साफ हो गया कि पार्टी में बिहार विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने को लेकर एक राय नहीं थी। कुछ दिनों तक खींचतान के बाद लोक जनशक्ति पार्टी के पांच सांसदों ने चिराग पासवान से किनारा कर लिया। छह में से पांच सांसदों की बगावत पर चिराग पासवान के चाचा पारस पासवान ने साफ कर दिया है कि सभी चाहते थे, लोजपा एनडीए के साये तले बिहार विधानसभा का चुनाव लडे़, लेकिन बताते हैं, कुछ लोगों के प्रभाव में चिराग पासवान ने इसके प्रतिकूल निर्णय लिया। पूरे मन से चुनाव न लड़ने या गठबंधन छोड़कर चुनाव लड़ने का नतीजा चुनाव-परिणाम के समय तो सामने आया ही था, अब और बुरी तरह से प्रकट हुआ है। सांसदों की बगावत से सहमे चिराग अब समझौते के लिए तैयार दिख रहे हैं, लेकिन उनके चाचा मौका नहीं दे रहे। पार्टी या परिवार में अविश्वास इस कदर बढ़ गया है कि चाचा अपने भतीजे से मिलने को भी तैयार नहीं। संकेत साफ है, पार्टी में बगावत का पानी सिर के ऊपर से बह रहा है। इसमें कौन डूबेगा, कौन बचेगा, अभी कहना मुश्किल है, लेकिन राजनीति में तात्कालिक रूप से वही मजबूत नजर आता है, जिसके पास ज्यादातर संख्या बल होता है। अभी तो पारस पासवान मजबूत दिख रहे हैं, तो क्या बिहार की राजनीति में दिग्गज रहे रामविलास पासवान की विरासत उनके बेटे के बजाय भाई के पास चली जाएगी? भारतीय राजनीति में नैतिकता के पैमाने पर सोचें, तो कोई भी राजनीति में परिवारवाद को खारिज ही करेगा, लेकिन वास्तव में परिवारवाद भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण पहलू है, उसे नकारा नहीं जा सकता। जहां तक आम सजग भारतीयों की बात है, उन्हें हमेशा युवाओं और अच्छे नेताओं की तलाश रही है। कोई भी राजनीतिक निर्माण या पुनर्निर्माण केवल जनाधार या जनहित के आधार पर ही होना चाहिए। अच्छा नेता या नेतृत्व वही होता है, जो जनमानस को समझते हुए अनुकूल निर्णय लेता है। भारत में जो भी पार्टियां हैं, उन्हें न केवल अपनी मजबूती, बल्कि प्रदेश-देश की राजनीति की मजबूती के बारे में भी सोचना चाहिए। राजनीति का साफ-सुथरा और आदर्श होना जरूरी है। जो भी दल सक्रिय हों, वे जनसेवा को समर्पित हों। साथ ही, इन दलों को अपने-अपने गठबंधन या मोर्चे या अपने राजनीतिक आधार का भी सही और तार्किक पता होना चाहिए।