सम्पादकीय

एक तो नीम (सीएम की सलाहकार मंडली), ऊपर से करेला (डीसी रांची)

Rani Sahu
20 April 2022 9:13 AM GMT
एक तो नीम (सीएम की सलाहकार मंडली), ऊपर से करेला (डीसी रांची)
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करीब दो साल पहले सीएम हेमंत सोरेन से मुलाकात हुई थी

Surjit Singh

करीब दो साल पहले सीएम हेमंत सोरेन से मुलाकात हुई थी. बातचीत के दौरान उन्होंने कहा थाः जहां पैर रखता हूं, वहीं ब्लास्ट हो जाता है. पिछली सरकार ने इतनी गड़बड़ियां की है कि जहां छूते हैं, वहीं से गड़बड़ी निकल आती है. समय लगेगा सब ठीक करने में. अब दो साल बाद देखता हूं तो यह समझ बनती है कि हाल के दिनों में झारखंड सरकार के लिये अच्छी खबरें नहीं आ रही. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के घर में विवाद उठा हुआ है. पार्टी के नेता नाराज होकर मुंह फुलाये हुए हैं. वो जमकर भड़ास भी निकाल रहे हैं. वहीं सहयोगी दल कांग्रेस ने भी नजर टेढ़ी कर रखी है. इस बीच मुख्यमंत्री को लेकर दायर जनहित याचिकाओं और शिकायतों में सीएम और उनके परिवार के लोग लगातार फंसते नजर आ रहे हैं. 34वें राष्ट्रीय खेल घोटाले में अगर सीबीआई ने तरीके से जांच कर दी, तो सरकार के उच्च पदों पर बैठे कई अधिकारी लपेटे में आ सकते हैं. इन सब मामलों के बीच अब कहा जा रहा है कि पहले से "नीम" बनी सलाहकार मंडली के कामों पर रांची डीसी ने "करेला" बन कर लेप लगाने का काम किया है. पूरे माहौल को और कड़वा बनाने का काम. डीसी ने ऐसा किसके कहने पर किया, वह तो वही जानें. पर मामला सुलझने के बजाय और बिगड़ गया.
सेल्फ रेस्पेक्ट वाले दूर होते चले गये
पहले बात सलाहकार मंडली की. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सुलझे हुए व्यक्ति माने जाते हैं. साफ बात करते हैं. दिल से बात करते हैं. लेकिन सलाहकार मंडली ने पहले हर उस शख्स को मुख्यमंत्री से दूर कर दिया, जो मुख्यमंत्री और सरकार के हित की सोचा करते थे. कोई पत्थर माइंस अलॉट कराने लगा, कोई ट्रांसपोर्टिंग के लिये कंपनी को चिट्ठी लिखने लगा, तो कोई बिल्डर (पूर्व की कंपनी) के लिये काम करने लगा. बाकी बाहर से सलाह देने वालों (ए स्कावयर व पी स्कावयर) को जिस बात से मतलब है, वह भी किसी से छिपा नहीं है. पी स्क्वायर तो रघुवर राज में भी यही काम करता था, इस सरकार में भी खूब सक्रिय है.
सूचनाओं को लेकर रघुवर राज जैसे ही हालात
हालात यह होते चले गये कि मुख्यमंत्री से कौन मिलेगा ? कब मिलेगा? कितनी देर मिलेगा ? यह सब दो-चार लोग ही तय करने लगे. स्थिति और तब खराब होने लगी, जब किसी से बातचीत के दौरान ही इन कुछ में से कोई अंदर आकर कहने लगता कि अब हो गया. लिहाजा जिनमें भी थोड़ी-बहुत सेल्फ रेस्पेक्ट बची थी, उन्होंने दूरी बनानी शुरु कर दी. और दूर हो गये. जो बचे हुए हैं, वह भी कथित करीबी बने अफसरों व सलाहकारों की वजह से दूर होते जा रहे हैं. इस तरह मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बाहर की सूचनाओं से दूर होते चले गये. फिर वही होने लगा, जो रघुवर दास के शासन काल में होता था. चार-छह लोगों ने जो कह (झूठ, सच और बनावटी बातें) दिया, सीएम के लिये वही सबसे बड़ा सच. हाल में मीडिया को लेकर आये सीएम के बयान को भी एक तबका इसी रूप में देख रहा है.
बात 1932 की खतियान की
यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसकी आग में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी अपना हाथ जला चुके हैं. रघुवर दास भुगत चुके हैं. खुद तो हार ही गये, भाजपा भी सत्ता से बाहर हो गई. अब वर्तमान सीएम हेमंत सोरेन के लिये भी यह मुद्दा आफत ही बन गया है. जिस झामुमो में शायद ही कभी पार्टी के भीतर से विरोध का स्वर उठा था, वहां अब तेवर और बगावत के साथ अलग खेमा बन रहा है. अपनी ही सरकार के खिलाफ रैलियां की जा रही हैं और राज्य भर के दौरे भी. पार्टी का वोट बैंक छिटकने के डर से सहयोगी दल कांग्रेस भी नाराज ही है.
बात जनहित याचिका की
शिकायत करने वाले, याचिका दाखिल करने वाले तो अपना काम करेंगे ही. असल सवाल यह है कि आखिर किसकी सलाह पर मुख्यमंत्री बनने के बाद पत्थर खदान का लीज उनके खुद के नाम कराने का काम हुआ. सरकार बनने के साथ ही रांची की ही एक कंपनी को किसकी सलाह पर कोयला ट्रांसपोर्टिंग के लिये सीएम के करीबी ने पत्र लिख डाला. करीब के अफसरों और जिन अफसरों के टेबल से फाइल गुजरी, उन्होंने इस बात पर क्यों नहीं आपत्ति दर्ज किया, कि यह करना गलत होगा. बाद में दिक्कत हो सकती है. इन सब में रांची डीसी की भूमिका भी है. क्या सिर्फ सीएम को खुश करने के लिये यह गलत काम कर दिया गया. अब इसी बात को लेकर हाईकोर्ट सवाल कर रहा है, निर्वाचन आयोग राज्य के मुख्य सचिव से पूछ रहा है.
अब बात रांची डीसी की
सरकारी पेड़ कटवा कर बेचने जैसे आपराधिक मामले में चार्जशीटेड IAS अधिकारी को राजधानी का डीसी बनाया जाना ही लोगों के लिये हैरानी भरा फैसला था. ब्यूरोक्रेसी व सरकार के नजदीक रहने वाले लोग औऱ सिविल सोसाइटी के लोग पहले ही आशंकित थे. समय बीतने के साथ लोगों की आशंका सच ही साबित हुई. जमीन के मामलों में डीसी छवि रंजन ने ऐसे-ऐसे आदेश जारी किये, जो उन्हें विवादों की गहराई में घसीटता चला गया. उनका नाम जरुर "छवि" है, लेकिन उनकी वजह से सरकार की "छवि" सबसे अधिक खराब हुई है. अब तो शायद ही उन्हें अपने कैरियर की चिंता हो. छवि रंजन के रांची कार्यकाल में उनके खिलाफ कई जांच हुए. सारे रिपोर्ट सरकार के पास हैं. किसी में कार्रवाई नहीं हुई. कार्रवाई ना होने की वजह क्या है? क्योंकि एक चार्जशीटेड IAS के सामने टॉप के ब्यूरोक्रेट्स और सरकार लाचार नजर आ रहे हैं. ऐसे अधिकारी ने आखिर किसके कहने पर हाईकोर्ट के अधिवक्ता को घर पर बुलाकर डराने का काम कर दिया, इसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं है. डीसी के इस कदम ने इस मामले में "आग में घी डालने" का काम किया.
ढाई साल गुजर गये
बहरहाल, हेमंत सरकार के तकरीबन ढाई साल गुजर चुके हैं. सरकार के भीतर अंर्तकलह उफान पर है. कई विभागों में भ्रष्टाचार चरम पर है. सरकार के ढाई साल और बचे हैं. सरकार को लेकर बहुत अच्छा भी सोचे, तो यह सोच सकते हैं कि सरकार के और ढाई साल गुजर ही जायेंगे. हालांकि इसे लेकर अलग-अलग तरह के कयास लगाये जा रहे हैं. लेकिन ढाई साल बाद? क्या दुबारा सत्ता में वापसी होगी ? क्या ब्यूरोक्रेसी राज्य सरकार को अब उतनी सपोर्ट करेगी, जितनी शुरुआत में करती दिख रही थी. फिर विकास योजनाओं का क्या होगा?
किसे सबसे अधिक नुकसान
इस सबसे आगे की कहानी हेमंत सरकार में मौज करने वालों के लिये शायद बड़ी परेशानी वाला हो. पर, हेमंत सोरेन के लिये सबसे बड़ा संकट है. विपक्ष में भाजपा जैसी पार्टी है. केंद्र में इसी की सरकार है. हाईकोर्ट कई मामलों को केंद्र की जांच एजेंसी सीबीआई को सौंप चुकी है. कई मामलों में फैसला आना बाकी है. लिहाजा हेमंत सोरेन के लिये राजनीतिक कैरियर का संकट है.
Rani Sahu

Rani Sahu

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