सम्पादकीय

एक देश, एक चुनाव: लोकतंत्र की मजबूती के लिए सियासी दलों को एक साथ चुनाव पर करना चाहिए अमल

Gulabi
29 Nov 2020 2:34 PM GMT
एक देश, एक चुनाव: लोकतंत्र की मजबूती के लिए सियासी दलों को एक साथ चुनाव पर करना चाहिए अमल
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खुद प्रधानमंत्री इसके पहले भी अलग-अलग मंचों पर इस पर जोर दे चुके हैं और भाजपा ने भी इसे समय-समय पर अपनी प्राथमिकता बताया

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। संविधान दिवस पर पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से एक बार फिर एक देश, एक चुनाव की आवश्यकता रेखांकित करना इस विषय के महत्व के साथ इसके प्रति उनके संकल्प को भी दर्शाता है। खुद प्रधानमंत्री इसके पहले भी अलग-अलग मंचों पर इस पर जोर दे चुके हैं और भाजपा ने भी इसे समय-समय पर अपनी प्राथमिकता बताया है। देश में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के एक साथ चुनाव को यदि वक्त की जरूरत बताया जा रहा है तो इसके पीछे ठोस कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो बार-बार चुनावों के चलते होने वाली धन और समय की बर्बादी है। एक साथ चुनाव इस अपव्यय को नियंत्रित कर सकते हैं। बार-बार होेने वाले चुनाव विकास और जनकल्याण की योजनाओं के साथ ही प्रशासनिक मशीनरी को भी थामने का काम करते हैं।


बार-बार होने वाले चुनाव सरकारी तंत्र के हाथ बांधने का काम करें, उचित नहीं

चुनाव के संदर्भ में जब आदर्श आचार संहिता की संकल्पना की गई थी तब यह सोचा गया था कि यह व्यवस्था सत्ताधारी दल द्वारा मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए संसाधनों के दुरुपयोग को रोकने में मददगार साबित होगी। ऐसा हुआ भी है, लेकिन समय के साथ इस व्यवस्था में ऐसी विसंगति उत्पन्न हो गई है कि चुनाव के समय आदर्श आचार संहिता की आड़ में सब कुछ ठप कर देने की प्रवृत्ति उभर आई है। यह उचित नहीं कि बार-बार होने वाले चुनाव सरकारी तंत्र के हाथ बांधने का भी काम करें और राष्ट्रीय हितों से राजनीति और समाज का ध्यान भटकाने का भी।

अगले तीन साल में बीस राज्यों में अलग-अलग समय पर होने हैं चुनाव

एक साथ चुनाव की आवश्यकता को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि हाल में बिहार के चुनाव संपन्न हो जाने के बाद अगले तीन साल में लगभग बीस राज्यों में अलग-अलग समय पर चुनाव होने हैं। यदि हर चार-पांच महीने में किसी राज्य में चुनाव होंगे तो राजनीतिक दलों का ध्यान तो उन्हीं पर लगा रहेगा। यदि सरकारें भी हर वक्त चुनाव की ही चिंता करती रहेंगी तो विकास और जनकल्याण के कार्य उनकी प्राथमिकता में पीछे जाना तय है।

चुनाव जीतने की चिंता में रहती हैं सरकारें, विकास की दौड़ में भारत पिछड़ जाता है

भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह ठीक नहीं कि सरकारें लगातार चुनाव जीतने की ही चिंता करती नजर आएं। चूंकि वे ऐसा ही करती हैं इसीलिए विकास की दौड़ में भारत की रफ्तार उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिए।

एक साथ चुनाव के विचार के पीछे जो तर्क हैं वे देश व राजनीति के हित में हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इस पर राजनीतिक सहमति कायम हो सकेगी? यह सहमति इस विषय पर राजनीतिक विमर्श की प्रक्रिया तेज कर हासिल की जा सकती है। विपक्षी दल इस सुझाव के प्रति गंभीर नजर नहीं आते। वे राष्ट्रीय हितों के बजाय अपने संकीर्ण स्वार्थों को महत्व देते प्रतीत हो रहे हैं।

देश में 1967 तक लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ होते थे

उन्हें याद रखना चाहिए कि 1951-52 में पहले आम चुनाव से लेकर 1967 तक लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ ही होते थे और किसी को कोई समस्या नहीं थी। यह संवैधानिक प्रावधानों के दुरुपयोग का परिणाम था कि राज्यों में समय से पहले चुनाव की नौबत आई और एक साथ चुनाव का सिलसिला टूटा। ऐसा मुख्य रूप से उस अनुच्छेद-356 के मनमाने इस्तेमाल के कारण हुआ जिसके तहत केंद्र सरकार को विधि व्यवस्था के नाम पर राज्य सरकारों को बर्खास्त करने की शक्ति दी गई है।

कांग्रेस सरकारों ने अनुच्छेद-356 के प्रावधान का किया सबसे अधिक दुरुपयोग

यह तथ्य है कि केंद्र की कांग्रेस सरकारों ने अनुच्छेद-356 के प्रावधान का सबसे अधिक दुरुपयोग किया। अनुच्छेद-356 के मनमाने इस्तेमाल के साथ ही राज्य सरकारों के गिरने के अन्य कारण भी रहे, जैसे सत्ताधारी पार्टी में विभाजन अथवा गठबंधन का टूट जाना। ऐसे उदाहरण भी हैं कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार का केवल इसलिए पतन हो गया, क्योंकि वह अपने सभी विधायकों को एकजुट नहीं रख सकी। हाल में मध्य प्रदेश में कमल नाथ सरकार का पतन इन्हीं परिस्थितियों में हुआ। स्पष्ट है कि एक साथ चुनाव की दिशा में आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक है कि इन परिस्थितियों पर खुलकर विचार किया जाए।

राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए जनादेश की करते हैं मनमानी व्याख्या

बात केवल राज्यों में सरकारों के समय से पहले गिर जाने की नहीं है। केंद्र में भी सरकार के स्थायित्व का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। हर कोई इससे परिचित है कि राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए जनादेश की कैसी मनमानी व्याख्या करते हैं और उसके निरादर में भी संकोच नहीं करते। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी सरकार केवल 13 दिन चल सकी थी, क्योंकि उस समय भाजपा के विरोधी दलों ने जनादेश को स्वीकार करने के स्थान पर घोर नकारात्मकता का परिचय दिया था। वे ऐसा इसलिए कर सके थे, क्योंकि अपने देश में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिससे राजनीतिक दलों के लिए किसी सरकार को गिराने से पहले वैकल्पिक सरकार की रूपरेखा प्रस्तुत करना अनिवार्य हो।

एक साथ चुनाव के लिए विधि आयोग की सिफारिश के अनुरूप करना होगा व्यवस्था का निर्माण

राजनीतिक दल ऐसे किसी प्रावधान के लिए शायद ही सहमत हों, क्योंकि इससे उनके लिए सुविधाजनक राजनीति करना कठिन हो जाएगा। इसका प्रमाण यह है कि 1999 में इस विषय पर विधि आयोग ने वाजपेयी सरकार के समक्ष जो रिपोर्ट सौंपी थी उस पर 2018 में सर्वदलीय बैठक हुई और सहमति फिर भी कायम नहीं हो सकी। अगर एक साथ चुनाव के विचार को अपनाया जाना है तो विधि आयोग की सिफारिश के अनुरूप व्यवस्था का निर्माण करना होगा। ऐसे किसी उपाय के जरिये ही सरकारों के सुनिश्चित कार्यकाल के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।

एक साथ चुनाव का विरोध करने वालों की दलील, क्षेत्रीय मुद्दे पीछे रह जाएंगे

एक साथ चुनाव के विचार का विरोध कर रहे दलों की एक दलील यह भी है कि इससे क्षेत्रीय मुद्दे पीछे रह जाएंगे। इस दलील से सहमत नहीं हुआ जा सकता। एक तो पहले भी एक साथ चुनाव हो चुके हैं और दूसरे, राजनीतिक दलों से तो यह अपेक्षा की जाती है कि वे सुधार के उपायों को बढ़ावा दें, न कि संकीर्णता के दायरे में उलझे रहें। यह ठीक है कि पहले जब एक साथ चुनाव होते थे तब के मुकाबले आज स्थिति भिन्न है।

क्षेत्रीय दलों के उभार के साथ कांग्रेस का राजनीतिक आधार अधिक घट गया

क्षेत्रीय दलों के उभार के साथ कांग्रेस का राजनीतिक आधार बहुत अधिक घट गया है, जिसके चलते इस विचार पर सहमति कायम करना कठिन हो सकता है, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि एक ऐसे विचार पर चर्चा करने से भी बचा जाए जिसे आवश्यक माना जा रहा है। दो साल बाद देश आजादी के 75 वर्ष पूरे होने का जश्न मनाएगा। यह वह अवसर है जब लोकतंत्र की मजबूती और परिपक्वता के लिए सभी राजनीतिक दलों को आगे आना चाहिए और एक साथ चुनाव के विचार पर अमल सुनिश्चित करना चाहिए।


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