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नई दिल्ली : केंद्र सरकार ने 18 सितंबर से संसद में विशेष सत्र बुलाया है। इस घटना की गंभीरता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि सभी दलों में आंतरिक विचार-विमर्श जारी है। चर्चा के मुताबिक ही सरकार ने एक देश-एक चुनाव पर चर्चा के लिए संसदीय समिति का गठन किया है। विपक्षी दल इस कमेटी पर हैरानी व्यक्त रहे हैं, लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि सत्र में इस पर कार्रवाई होगी या नहीं। राजनीतिक गलियारों में विशेष सत्र को किसी बड़े फैसले के रुप में माना जा रहा है। जहां तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव का सवाल है, तो यह मामला पुराना है।
ऐसा 1970 से पूर्व होता रहा है। भारत विश्व का सबसे बड़ा व मजबूत लोकतंत्र है, जहां लगभग एक अरब मतदाता हैं। चुनाव लोकतंत्र की आत्मा हैं। चुनाव का विषय सुधार का विषय हैं, यदि चुनाव एक साथ कराए जाएं तो इसके कई फायदे हो सकते हैं। अरबों रुपये के खर्च को बचाया जा सकता है। फिर भी इस विचार पर आपत्तियां भी उचित हो सकती हैं। यदि संपूर्ण चर्चा के बाद बिल पेश किया जाता है तो इससे देशों को लाभ हो सकता है। चुनाव प्रक्रिया में सुधार होना अति आवश्यक है, लेकिन इस निर्णय के पीछे मंशा क्या है, यह भी साफ होना चाहिए।
नि:संदेह देश को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने के लिए फिजूलखर्ची को कम करना होगा अन्यथा हमारा देश चुनावों का देश बनकर रह जाएगा। कभी लोकसभा चुनाव आते हैं, कभी विधानसभा, पंचायत, कभी शहरी, कभी उपचुनाव। देश की पहले लोकसभा चुनाव केवल दस करोड़ खर्च पर हुए थे। 2019 में यह खर्च बढ़कर आठ अरब को पार कर गया। एक रिपोर्ट के मुताबिक, सरकारी व गैर-सरकारी खर्चों को जोड़ा जाए तो यह खर्च 60 हजार करोड़ के करीब पहुंच जाता है। यदि चुनाव का आधा खर्च भी बचा लिया जाए तो देश के हजारों स्कूलों, अस्पतालों, सड़कों, पुलों की तस्वीर बदल सकती है।
विशेष रूप से दुर्गम पहाड़ी और रेगिस्तानी क्षेत्रों में सुरक्षा बलों की तैनाती और स्टाफ की तैनाती बहुत मुश्किल होती है। यदि यह निर्णय किसी राजनीतिक लाभ से ऊपर उठकर लिए जाएं तो अवश्य सुधार दिखेगा। बदलाव प्रकृति का हिस्सा है, फिर भी लोकतंत्र में असहमति और विरोध को भी स्थान दिया गया है। बेहतर होगा यदि सरकार व विपक्ष देश हित में बड़े निर्णयों के संबंध में सकारात्मक एवं जिम्मेदार व्यवहार का प्रमाण दें।
सोर्स -sachkahoon.com
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