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By: divyahimachal
भारत में ‘एक देश, एक चुनाव’ की संभावनाओं को खंगालने के लिए जो समिति बनाई गई है, वह कई सवालों और अद्र्धसत्यों पर आधारित है। पहली बार पूर्व राष्ट्रपति को किसी समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। रामनाथ कोविन्द देश के राष्ट्रपति के रूप में सभी पक्षों के ‘महामहिम’ थे। वह सभी के अभिभावक थे, लिहाजा सत्ता और विपक्ष उनके लिए बेमानी थे। ऐसी सामान्य अवधारणा राष्ट्रपति को लेकर होती है। बेशक वह पांच साल तक भारत के राष्ट्रपति रहे, लिहाजा उनकी संवैधानिक निष्ठा और उनके ज्ञान पर कोई सवाल नहीं किया जा सकता। यदि समिति की रपट भाजपानुमा आती है, तो पूर्व राष्ट्रपति पर भी सवाल उठेंगे। वह आलोचनाओं के घेरे में भी होंगे। ऐसी स्थिति देशहित में नहीं मानी जा सकती। सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रपति कोई सरकारी काम नहीं करते। उन्हें आवश्यकता भी नहीं है। सेवामुक्त होने के बाद भारत सरकार राष्ट्रपति को केंद्रीय कैबिनेट मंत्री के स्तर का सरकारी आवास देती है। भरा-पूरा स्टाफ और सचिव की सेवाएं भी मिलती हैं। चिकित्सा सेवाएं और इलाज आदि नि:शुल्क होते हैं और इन तमाम सुविधाओं के अलावा, अच्छी-खासी पेंशन भी दी जाती है। राष्ट्रपति के रूप में कोविन्द जी देश के प्रथम नागरिक रहे हैं। पूरा देश उनका घर है। वह किताब लिखें तथा विभिन्न सामाजिक-शैक्षिक मंचों पर जाकर युवा पीढ़ी को संबोधित करें, ताकि देश के बारे में उनके भीतर जागृति पैदा की जा सके और उनके भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया जा सके। ऐसे राजनीतिक विरोधाभासों वाले मुद्दे की समिति की अध्यक्षता स्वीकार करने की विवशता क्या थी? इसके अलावा, किसी पूर्व प्रधान न्यायाधीश अथवा सर्वोच्च अदालत के पूर्व न्यायाधीश और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त या मौजूदा चुनाव आयुक्त को समिति में क्यों नहीं स्थान दिया गया? समिति में पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त और वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष आदि को स्थान क्यों दिया गया है?
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, पूर्व सांसद गुलाम नबी आजाद और सर्वोच्च अदालत के वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे आदि उसी लकीर पर ठप्पा मार सकते हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी तय करेंगे। दरअसल ‘एक देश, एक चुनाव’ का मुद्दा ज्यादातर संवैधानिक और कानूनी है, लिहाजा न्यायाधीशों और चुनाव आयुक्तों की भूमिका अपरिहार्य है। बहरहाल इस समिति के निष्कर्षों की रपट देखना और पढऩा ही अब देश के आम आदमी की भी नियति है। ऐसी कई रपटें सरकार के संग्रहालयों में मौजूद होंगी, लेकिन उन पर कोई अमल नहीं किया गया। कोविन्द कमेटी की रपट का भी हश्र क्या होगा, हम आज कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि जो निर्णय किया जाना है, वह प्रधानमंत्री ने तय कर ही लिया होगा! देश के प्रधान न्यायाधीश रहे जस्टिस वेंकटचलैया ने भी तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को एक रपट सौंपी थी, जिसका मुख्य सारांश यह था कि देश का संघीय ढांचा बदला नहीं जा सकता। एक पुराना प्रसंग भैरोसिंह शेखावत का भी याद आता है, जब उन्होंने उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा दिया था। तब के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह शिष्टाचार मुलाकात करने गए थे। उन्होंने पूछा था कि राजनीति में आपका 50 सालों से अधिक का अनुभव है, लिहाजा कुछ बताएं कि देशहित में क्या किया जाना चाहिए? शेखावत जी का संक्षिप्त और सटीक जवाब थे-एक साथ चुनाव कराए जाएं। दूसरे, बेहद छोटी पार्टियों पर पाबंदी लगा दी जाए, क्योंकि उनसे राजनीतिक व्यवस्था ‘भ्रष्ट’ होती है। दरअसल यह मुद्दा बहुत पुराना है, लेकिन 1967 के बाद समूचा सिलसिला बिगड़ गया। बहरहाल अब तो कोविन्द कमेटी की रपट का इंतजार करना होगा।
Rani Sahu
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