सम्पादकीय

समय की रेत पर

Subhi
16 Dec 2022 6:02 AM GMT
समय की रेत पर
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इस माहौल में जब शैक्षणिक विकास की किरणों का सूर्योदय नहीं हुआ था और लोग-बाग अपनी जीवन पद्धति में इसके तत्त्व दर्शन से दूर थे, तो लोग कम, लेकिन ज्यादा सटीक शब्दों में जीवन मर्म से जुड़ी अपनी अभिव्यक्ति करते थे। इस विधा के मायने, उद्देश्य और निहितार्थ सकारात्मक सह सुधारात्मक संदेशों से सराबोर होते थे।

अशोक कुमार: इस माहौल में जब शैक्षणिक विकास की किरणों का सूर्योदय नहीं हुआ था और लोग-बाग अपनी जीवन पद्धति में इसके तत्त्व दर्शन से दूर थे, तो लोग कम, लेकिन ज्यादा सटीक शब्दों में जीवन मर्म से जुड़ी अपनी अभिव्यक्ति करते थे। इस विधा के मायने, उद्देश्य और निहितार्थ सकारात्मक सह सुधारात्मक संदेशों से सराबोर होते थे।

कही हुई बातों को 'कहावत' के रूप में मान्यता थी, जबकि हर कही हुई बात कहावत के दर्जे से अलग थी। वैसे पद जिसमें ज्ञान और अनुभव की बात किसी विशेष तौर-तरीके से प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने की कला हो, उसे 'कहावत' की श्रेणी में रखा गया था। ग्रामीण परिवेश ऐसी कहावतों की जन्मस्थली होते थे, जो कालचक्र की परिवर्तित परिस्थितियों में अब आधुनिकता की भेंट चढ़ गए हैं। बचपन में सुनी गई अनेक कहावतों में 'लोहे का चना चबाना', 'चोर की दाढ़ी में तिनका', 'काला अक्षर भैंस बराबर' जैसे बोल आज भी स्मृति कोष में संग्रहित हैं।

यों हिंदी साहित्य के स्कूली पाठ्यक्रम में कहावत और मुहावरा के अध्याय आज भी पहले की तरह हुआ करते हैं। ग्राम्य जीवन से बुनियादी वास्ता रखने के कारण कहावतों की दुनिया में घर के आंगन में हमेशा एक कहावत 'खेर से कपूर तक' सुनने को मिलता था। इसके अर्थ में एक बड़े दायित्व बोध से जुड़े संदेश हुआ करते थे, जिसके विस्तृत दायरे में गृह-पुरुष या गृहिणी घर की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति, यानी उसके क्रय और इंतजाम के लिए उत्तरदायी हुआ करते थे।

यह कार्य निर्वहन घर के वरिष्ठ जनों के जिम्मे हुआ करता था, जो अपनी बजटीय सीमा में हर माह गृहस्थी के आवश्यक चीजों का प्रबंधन किया करते थे। पहले संयुक्त परिवार की परिधि में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण सभी की जरूरतों के हिसाब से उनके लिए चीजों का जुगाड़ जटिल हुआ करता था, लेकिन अनुभव में निपुण परिवार प्रमुख पूरी दक्षता और शांत चित्त से ससमय समस्त सामग्रियों की व्यवस्था कर लिया करते थे।

घर के किसी सदस्य के परदेस में नौकरी या व्यवसाय से प्राप्त मासिक राशि घर के खर्चे के लिए पर्याप्त हुआ करते थे, लेकिन गांव में अधिकतर लोगों की आय के साधन उनकी निजी खेती-बारी ही होती थी, जिससे वे बमुश्किल अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करते थे। वे हमेशा मुफलिसी में रहते थे। फिर भी घर के ऐसे अभिभावक बिल्कुल परिपक्व, धैर्यशील, शांत भाव और समन्वय के प्रतीक हुआ करते थे, जो समाज में साख और विश्वसनीयता से लैस भी रहा करते थे।

'खेर से कपूर' तक की व्यवस्था में माहिर ऐसे लोग पारिवारिक सदस्यों के प्रात: जागरण से रात्रि शयन तक उनकी मूलभूत जरूरतों की चीजों में यथा जलपान, दिन-रात के भोजन सहित गोधूलि बेला में चने-चबेने की व्यवस्था में तल्लीन हुआ करते थे। वर्तमान आधुनिक माहौल में इस गतिविधि को हम समावेशी व्यवस्था कह सकते हैं। भारत गांवों का देश प्रारंभ से रहा है। आज बाजारवाद के विस्तृत विकल्प की तुलना में उस समय चीजों की पूर्ति क्रय-विक्रय का केंद्र स्थानीय प्रखंड, थाना या अनुमंडल स्तरीय बाजार हुआ करता था। कुल मिलाकर सांसारिक कर्तव्यों से बंधे घर के प्रधान सेवा की डोर को शांत चित्त मन हो बड़ी मजबूती से थामे रहते थे।

वर्तमान भौतिक समय के नब्ज को जरा टटोलें तो ज्ञात होता है कि संयुक्त परिवार के विखंडन से निर्मित एकल परिवार आज दोराहे पर ठिठका हुआ दिखता है। ऐसे परिवार आज 'खेर से कपूर तक' के जुगाड़ में बाजारवाद के विस्तृत चकाचौंध में भले निपुण और होशियार दिख रहे हों, लेकिन उस मेले की भीड़ में अकेलेपन के आभासी अवसाद से भी वह पीड़ित है। आज जीवन चक्र की आधुनिक समस्त आवश्यकताओं की फेहरिस्त लंबी हो चुकी है। भाग-दौड़ की बदहवासी ने उसके लिए अनेक आनलाइन क्रय-विक्रय के संसाधन मुहैया करा दिए हैं।

मोबाइल में सिमटा बाजार हमारी हर जरूरत यानी 'खेर से कपूर तक' की हर सामग्री तैयार कर रखी है। चार से छह इंच के स्क्रीन स्पर्श यंत्र ने जीवन के वास्तविक मंत्र को कैद कर रखा है। कभी घरेलू चीजों की खरीद के पूर्व सामग्री को छूकर, देखकर, आसपास की दुकान से भाव मोल जानकर गुणवत्ता के आधार पर संतुष्ट होकर ही लोग खरीदारी करते थे। क्रेता और विक्रेता के बीच अदृश्य एक साख की पूंजी शाश्वत हुआ करती थी, जब पैसे की कमी में उधारी का लोक प्रचलन मायने रखता था।

आज दरवाजे तक सामान पहुंचाने के प्रचलन ने हमारे समय की बचत अवश्य की है, क्योंकि जीवन पथ की लंबी यात्रा के लिए हमारे पास अवकाश की कमी हो गई है। बुनियादी सवाल यही है कि पूर्व परंपरा के बदले स्वरूप में आधुनिक बाजारवाद के जिस रूप में हम स्थायी ग्राहक बन चुके हैं, क्या बचत किए समय में कुछ ऐसे आख्यान गढ़ सकते हैं, जो भावी संतति के लिए सार्थक तत्त्व लिए प्रेरक हों!


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