सम्पादकीय

यशपाल के बहाने

Rani Sahu
8 March 2022 7:04 PM GMT
यशपाल के बहाने
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एक ओर हिमाचल सरकार ने प्रदेश में लता मंगेशकर संगीत महाविद्यालय खोलने की घोषणा करके पर्वतीय वाद्य यंत्रों के सुर छेड़ दिए हैं

एक ओर हिमाचल सरकार ने प्रदेश में लता मंगेशकर संगीत महाविद्यालय खोलने की घोषणा करके पर्वतीय वाद्य यंत्रों के सुर छेड़ दिए हैं, तो दूसरी ओर क्रांतिकारी लेखक यशपाल की स्मृति में नादौन में बने साहित्य सदन को अपंग बनाया जा रहा है। साहित्य जगत ने उपर्युक्त सदन का इस्तेमाल इतर भूमिका करने की योजना का विरोध शुरू किया है। आश्चर्य यह है कि भाषा-संस्कृति विभाग ऑनलाइन कार्यक्रमों का गुलफाम बन कर यह भी भूल गया कि नादौन का सदन महज एक सरकारी भवन नहीं, आजादी में हिमाचल की भागीदारी और क्रांतिकारी यशपाल की विरासत में साहित्य के नजरिए को बांचने-जांचने का मील-पत्थर भी है। आश्चर्य यह कि विभाग शिमला में किताब घर की स्थापना से लेखकीय संपदा को प्रश्रय देता हुआ साधुवाद हासिल करना चाहता है, लेकिन यशपाल की साहित्यिक भूमिका को उजाड़ कर अपना नया रैन बसेरा स्थापित करना चाहता है। यह बिडंबना ही है कि लालचंद प्रार्थी और नारायण चंद पराशर के बाद हिमाचल का साहित्यिक वातावरण अब पहुंच और पहचान के पंजे में फंस गया है, जहां विभागीय शिरोमणि केवल सूचीबद्ध कार्यों में नजराने पेश कर रहे हैं।

ये नजराने आजकल ऑनलाइन कार्यक्रमों के पुष्पक विमानों में प्रदेश के बाहर से मजमून आयात करके ले आते हैं या कला एवं भाषा विभाग के पैनल पर विमर्श की चिंताओं में धर्म की जिज्ञासा और पुरातन परंपराओं का शंखनाद कहीं अधिक सुनाई दे रहा है। कहने को हिमाचल ने अपने मोहल्ले यह कह कर सजा लिए कि यहां कला, संस्कृति और भाषा विभाग एवं अकादमी के जरिए संस्कृति की हर पदचाप सुनी जाएगी, लेकिन भाषा के बिंदुओं और साहित्य के विभ्रम में सरकारी प्रश्रय का एक अजीब दरबार पैदा किया जाता रहा है। यही दरबार अपने हक के फैसले करता हुआ हिमाचल की पृष्ठभूमि, कलात्मक दृष्टि व सांस्कृतिक उजास को सृजनशीलता की परंपराओं में निरंतर उदास कर रहा है। आश्चर्य यह कि विभाग की पीठ पर मंदिरों के सरकारीकरण का भक्ति संगीत तो लाद दिया गया, लेकिन इसकी क्षमता व काबिलीयत के झरोखों से पवित्र उद्देश्य का क्षरण हो गया। इसी तरह सांस्कृतिक विरासत के हर चप्पे की निगरानी में विभागीय प्रेरणा व प्रोत्साहन के स्तंभ ढह रहे हैं। पारंपरिक मेलों की विरासत को पीछे छोड़कर अगर इनका संचालन बाजार की दृष्टि से हो रहा है, तो टमक की थाप, लोक कलाओं का प्रसार व छिंज की मिट्टी से कुश्ती का उद्धार कैसे होगा। भाषा विभाग के कविता पाठ में अगर श्रोताओं के कान दिखाई नहीं दे रहे हैं, तो सारी फरमाइश के पैमाने राजनीति के गिरवी क्यों न समझे जाएं।
विभाग से लेखक गृहों का पता पूछा जाए, तो ढेरों शर्मिंदगी के आलम में सारी वसंत सूखी हुई मिल जाएगी। क्या भाषा विभाग ने कभी शिक्षा महकमे व विभिन्न विश्वविद्यालयों के प्रांगण में जाकर यह सोचा कि साहित्य की पांत में नया संवाद पैदा किया जा सकता है या किसी किताब के बहाने साहित्यिक विमर्श की युवा उर्वरता पैदा की जा सकती है। क्या कला और कलाकारों के प्रदर्शन का फलक ऊंचा करने के लिए किसी प्रकार का राष्ट्रीय गीत-संगीत या लोक कला उत्सव मनाने की परंपरा शुरू की जाए। क्या मंडी व भरमौर के मंदिर परिसरों, कांगड़ा, सुजानपुर के किलों या धर्मशाला के राज्य स्तरीय शहीद स्मारक की गरिमामयी उपस्थिति को हिमाचल की लोक कलाओं के वैभव से जोड़ा जाए। विडंबना यही है कि कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग की आत्मा में केवल चंद पंक्तियां और साहित्य की प्रस्तावना ही रह गई है। ऐसे में भाषा विभाग को शिक्षा विभाग में समाहित करते हुए कला व संस्कृति का स्वतंत्र विभाग गठित किया जाए। बेशक लता मंगेशकर संगीत महाविद्यालय अब शिक्षा के नए आयाम स्थापित कर सकता है, लेकिन इसके साथ-साथ चंबा में कला महाविद्यालय तथा मंडी में सांस्कृतिक महाविद्यालय की रूपरेखा भी बननी चाहिए, जबकि प्रमुख मंदिरों को लोक कला केंद्र के रूप में संवारना होगा। बहरहाल, यशपाल साहित्य सदन को बिना छेड़े विभाग को यह साबित करना होगा कि इस भवन को प्रतिष्ठित संस्थान कैसे बनाया जाए। बजंतरियों के मानदेय में बढ़ोतरी के साथ लोक गायकों, विशेषकर ढोलरू गायकों को भी वित्तीय प्रोत्साहन देने की योजना शुरू करनी होगी।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल

Rani Sahu

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