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पूर्व विधायक एवं सीपीएस जगजीवन पाल के साथ हुई धप्पड़बाजी से जो कोहराम मचा है
दिव्याहिमाचल.
पूर्व विधायक एवं सीपीएस जगजीवन पाल के साथ हुई धप्पड़बाजी से जो कोहराम मचा है, उसे खंगालते हुए हिमाचल के कान कितना सुनेंगे या यूं ही इस घटनाक्रम से जनता एक तमाशबीन बनी रहेगी। ताज्जुब यह कि अब चुनाव की सूचना देते व्यवहार में राजनीति की गलियां खूंखार नजर आती हैं और आपसी वैमनस्य की पतवार से राज्य की भूमिका का भंवर निरंतर खतरनाक होने लगा है। कुछ इसी तरह ठियोग में बागबानी मंत्री के खिलाफ गो-बैक के नारे या लाहुल-स्पीति में सत्ता के प्रदर्शन के बीच मंत्री के खिलाफ दीवारें पोतने की कोशिश को क्या कहेंगे। समाज के लिए यह सत्ता का अंतिम वर्ष हो सकता है, लेकिन राज्य के लिए ऐसे उदाहरणों से चारित्रिक पतन की लज्जाजनक परिस्थिति खड़ी हो रही है। सत्ता को बटोरना और सत्ता की महत्त्वाकांक्षा में अपने पक्ष को सामने रखना, कमोबेश ऐसा मुकाबला है जिसकी कोई सीमा आंकी नहीं जा सकती। राजनीतिक उल्लंघन की एक ऐसी परिपाटी हिमाचल में भी घर करने लगी है, जिसके प्रारूप में खुन्नस है
सत्ता अब एक ऐसा पीढ़ीवाद है जो पांच साल के सारे लाभों में व्यवस्था के मुताबिक हाथी दौड़ाता है और इस तरह शागिर्दों की टोलियों में 'नमक हलालीÓ की नुमाइश होती है। देखना होगा कि जगजीवन पाल को थप्पड़ रसीद करने वाला शख्स नमक हलाली कर रहा था या विपक्षी आक्रोश की वजह को खारिज करने की बस यही वजह बची थी। हैरानी यह कि न हमारे आसपास किसी सार्थक बहस का विषय बचा है और न ही राजनीति के पास संघर्ष की कोई गाथा आगे बढ़ रही है। सत्ता से विपक्ष का टकराव कोई अनहोनी घटना नहीं, लेकिन आज की परिस्थिति में सबसे घातक परिदृश्य राजनीतिक सोच, समझ और आपसी विद्वेष के कारण ही पैदा हो रहा है। असल में जब जनता के अखाड़ों में प्रश्र कम पड़ जाएं तो ऐसी ही कुश्तियां होती हैं। दरअसल लोकतंत्र के मौजूदा दौर में मतदाता भी मसखरा हो गया है। आजादी के 74 वर्षों में नागरिक और मतदाता की अपेक्षाओं और कत्र्तव्यों में भारी अंतर आ गया है। नेताओं के लिए नागरिक शब्द अब खिसियानी बिल्ली जैसा है, जबकि वही शख्स बतौर मतदाता सारी जमीन खोद देता है। मतदाता के उद्बोधन में राजनीति सारी सर्कस करती है और यही सब हमारी आंखों के सामने हो रहा है। जहां तक हिमाचल में विकसित हो रही राजनीतिक संस्कृति का प्रश्र है, चारों ओर सत्ता के केंद्र बिंदु विकसित किए जा रह ेहैं। व्यपस्था भी एक तरह से सत्ता की प्राथमिकताओं को ढोने के सबब में ऐसी चाटुकार पद्धति है कि आम नागरिक साल दर साल हाथ जोड़े खड़ा यह अंतर नहीं देखता कि कौन पक्ष अच्छा है।
उसके लिए लोकतंत्र सिर्फ हुक्मरानों की पैदाइश में निजी स्वार्थ की परवरिश है। इसलिए आपसी द्वंद्व के बीच बंटती सत्ता के नजारे हर बार चेहरा बदल कर आते हैं, लेकिन रूह नहीं बदलती। सत्ता का श्याम, विपक्ष का श्वेत पक्ष नहीं हो सकता, लेकिन चुनावी अदलाबदली में मतदाता जरूर अंधकार से ही गुजर रहा है। उसके पास न समीक्षा और न ही टिप्पणी करने का वक्त है, क्योंकि कल किसी और नेता की गर्दन पर जब थप्पड़ की आवाज होगी तो भी उसे व्यवस्था के कान बहरे ही महसूस होंगे। उम्मीदों की झाड़ फूंक में वह हर बार मत बदल सकता है या किसी नए चुनावी चिन्ह और अपनी बेहतरी के लिए सत्ता बदल सकता है, लेकिन हकीकत यह है कि सत्ता के बंटवारे के लाभार्थी अब चौक-चौराहों से भी जनता के मूल प्रश्र चुरा कर घुड़कियां दे रहे हैं। जनता को बतौर नागरिक इन्हीं नेताओं का इस्तकबाल कभी किसी मंत्री की वेशभूषा में करना पड़ेगा या कभी इन्हें मंचों पर यह कहते सुनना पड़ेगा मानो वह कोई सिर धड़ की बाजी लगाकर खैरात बांट रहे हैं। सर्वमान्य न होते हुए या योग्यता की अति निचली पायदान से भी बेदखल होते हुए कल फिर किसी को चुना जाएगा या सत्ता के आगोश में अहंकार पालते हुए वह संघार करेगा, लेकिन तब तक मतदाता फिर से सामान्य नागरिक बन कर सिर्फ यह सोचेगा, 'यह क्या हो रहा है।
Gulabi
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