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By: divyahimachal
औचित्य और अनुचित के बीच यूं तो महीन सा फर्क भी काफी सताता है, फिर भी सियासत के छबील अपनी खुशामद में संसाधनों की बेकद्री करते रहते हैं। हिमाचल में औचित्य को साबित किए बिना राजनीति ने ऐसी प्रतिस्पर्धा खड़ी कर दी कि लगातार सरकारों ने प्रदेश के सिर पर ऐसी विफलताओं की परिभाषा को स्थायी स्वरूप दे दिया। ऐसे में अनुचित की दुरुस्ती को यहां अपराध मान लिया या औचित्यहीनता के समानांतर ऐसे अनेक फलसफे चुन लिए। ताजातरीन उदाहरण मंडी में स्थापित किए गए एसपीयू विश्वविद्यालय के औचित्य को लेकर सामने आ रहा है, जहां उच्च शिक्षा के प्रबंधन की उचित कसौटी तय हो रही है। जिस तेजी से मंडी विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी, उससे स्थापित शिक्षण की परंपराएं भी चकित थीं। उस दौर की प्राथमिकता में नए विश्वविद्यालय को दौड़ाने की हर संभव कोशिश हुई और शिक्षा अपने बंटवारे की सतह पर हतप्रभ थी। चंद दिनों की मुनादी ने शिमला विश्वविद्यालय के अस्तित्व को इतना हलाल किया कि प्रदेश के कई बड़े महाविद्यालय भी चीख उठे।
हालांकि यह पहली बार नहीं हुआ। जब हमीरपुर में तकनीकी विश्वविद्यालय बना, तो प्रदेश के इंजीनियरिंग व बीएड कालेज उखड़ रहे थे। जब मंडी में मेडिकल यूनिवर्सिटी बन रही थी,तो अधिकांश सरकारी चिकित्सा महाविद्यालय उचित फैकल्टी के लिए तरस रहे थे। यह तो गनीमत है कि संस्कृत और डिजीटल विश्वविद्यालयों की खेप उतरी नहीं, वरना हिमाचल का किरदार तो आकाश में झंडों की तरह सिर्फ हवा के दम पर फहराना चाहता है। बहरहाल मंडी विश्वविद्यालय को ऐसी सीमा रेखा पर खड़ा किया जा रहा है, जिसे आगे सिर्फ तीन जिलों की शिक्षा की अमानत मिलेगी। भविष्य में मंडी, कुल्लू व लाहुल-स्पीति के कालेज ही इस विश्वविद्यालय के औचित्य को सिद्ध करेंगे। इसे हम अनुचित को सही करना मानें या औचित्य के हिसाब से देखें, लेकिन कुछ तर्क हमेशा ऐसे फैसलों के पक्ष तो कुछ विपरीत खड़े रहते हैं। जाहिर है मंडी विश्वविद्यालय को परिपक्वता हासिल करने के लिए कुछ समय लगेगा और इसी के साथ शिमला विश्वविद्यालय के पास अपने अतीत के संदर्भों को गांठने का अवसर रहेगा। शिमला बनाम मंडी विश्वविद्यालयों की होड़ ने सत्ता का नजरिया और शिक्षा के प्रति गंभीरता का आकलन किया है। शिमला विश्वविद्यालय से मंडी विश्वविद्यालय की उत्पत्ति से करीब चार दशक पूर्व ही धर्मशाला में विश्वविद्यालय का क्षेत्रीय अध्ययन केंद्र स्थापित हो चुका था, लेकिन इस संस्थान को राजनीति निगल गई।
इसी तरह धर्मशाला में आया केंद्रीय विश्वविद्यालय राजनीतिक हिस्सेदारी में हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में अपनी हद मुकर्रर करता रहा। जदरांगल की प्रस्तावित जमीन के बदले राज्य सरकार को तीस करोड़ जमा कराने हैं, लेकिन शिक्षा की दीवारों पर इसके हक में पोस्टर नहीं लगे। यह दीगर है कि दो या इससे कम संख्या वाले 117 प्राथमिक व 26 मिडल स्कूल सरकार को बंद करने पड़े हैं। अभी कई संस्थान डिनोटिफाई होकर अपने औचित्य की जंग लड़ रहे हैं। हिमाचल का राजनीतिक इतिहास हमें बार-बार सचेत कर रहा है कि औचित्यहीन फैसलों के कारण प्रदेश ने अपने आर्थिक संबल तोड़ डाले हैं। कितने ही औचित्यहीन स्कूल, कालेज, चिकित्सालय, दफ्तर तथा सरकारी उपक्रम संसाधनों की बर्बादी के चिडिय़ाघर बने हुए हैं, जहां जनता सिर्फ सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की तरक्की में राज्य की लाचारी का तमाशा देख रही होती है। हम भी इस लाचारी का तमाशा बन जाते हैं जब तथाकथित स्नातकोत्तर कालेजों में शिक्षा ग्रहण करके भी योग्यता के बाजार में असफल होते हैं। हमारे चिकित्सा संस्थान तो जिंदगी से बेरहम सौदेबाजी में हर मरीज को तमाशा बना देते हैं और जब पीजीआई चंडीगढ़ के डाक्टर पूछते हैं कि हिमाचल का चिकित्सा विभाग हर दिन मरीजों को रैफर करके आखिर क्या कर रहा है, तो यह प्रदेश का तमाशा है। आखिर हम बतौर राज्य कर क्या रहे और कहां है हमारा औचित्य। इसलिए अगर सुक्खू सरकार मंडी विश्वविद्यालय में अनुचित देख रही है, तो इसी धार पर अन्य विश्वविद्यालयों या उच्च शिक्षण संस्थानों के औचित्य पर पूरी ईमानदारी से और भी फैसले लेने होंगे, वरना कल कोई और आकर किसी अन्य संस्थान के औचित्य को गौण कर देगा।
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