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नेपाल में सत्ता संघर्ष का मौजूदा दौर बुधवार (12 मई) को शुरू हुआ, जिस दिन
नेपाल में सत्ता संघर्ष का मौजूदा दौर बुधवार (12 मई) को शुरू हुआ, जिस दिन पशुपति नाथ मंदिर के मुख्य समन्वयक ने कोविड -19 महामारी के चलते अपने जीवन में सबसे बड़ी संख्या में शवों को श्मशान घाट पर जलते हुए देखा। उस दिन के आखिर में चूंकि सभी दावेदार विभिन्न गुटों में बंटे थे, इसलिए संसद में बहुमत हासिल करने में नाकाम रहे। नतीजतन राष्ट्रपति बिद्यादेवी भंडारी ने प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली को फिर से प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया, क्योंकि उनके समर्थन में सबसे ज्यादा 61 सांसद थे।
नेपाल के चुनाव में अभी दो वर्ष का समय है। आने वाले दिनों में ओली अपनी स्थिति मजबूत बना सकते हैं। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्रियों-माधव कुमार नेपाल और झलनाथ खनाल के नेतृत्व वाले माओवादियों के एक धड़े को पहले ही विभाजित कर दिया है। वह आगे कम्युनिस्ट और गैर-कम्युनिस्ट दोनों पार्टियों को विभाजित कर सकते हैं। अगर कलह जारी रहती है, तो जल्द चुनाव कराना ही एकमात्र विकल्प होगा। गरीब लोगों के संक्रमण और मौतों को बढ़ाने के लिए लगभग पूरी तरह से राजनीतिक अस्थिरता और नीतिगत अपंगता जिम्मेदार है। एक गणतंत्र और एक संसदीय लोकतंत्र के रूप में नेपाल कभी भी स्थिर रहने में सक्षम नहीं हुआ, बल्कि अनिश्चित काल तक भारी कलह और राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहा है।
पूरी दुनिया में कोविड संक्रमण और सियासत एक-दूसरे में घुलमिल गई है, जिसमें बड़ी संख्या में दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी सत्ता में हैं। नेपाल का मामला केवल इस मायने में भिन्न है कि यह सत्तारूढ़ वामपंथी जातीय-राष्ट्रवादियों की बदौलत संकट में आ गया है, क्योंकि वे रूढ़िवादी की तरह ही हैं, और मार्क्स व माओ के अनुयायी हैं। दस मई को ओली के विश्वासमत हारने के बाद नेपाली कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-एमसी और जातीय समाजवादी पार्टी के एक धड़े ने राष्ट्रपति भंडारी से संविधान के अनुच्छेद 76 (2) को लागू करने का आग्रह किया, ताकि नई सरकार के गठन के लिए मार्ग प्रशस्त हो सके। लेकिन जब दावेदार संसद में बहुमत हासिल करने में नाकाम रहे, तो उन्होंने फिर से ओली को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया।
हाल के घटनाक्रमों की कड़ी पिछले साल की घटना से जुड़ी है, जब 20 दिसंबर को नेपाल एक राजनीतिक संकट में फंस गया, जब राष्ट्रपति भंडारी ने सत्तारूढ़ नेपाली कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के भीतर चल रहे सत्ता संघर्ष के बीच सदन को भंग कर दिया और 30 अप्रैल और 10 मई को प्रधानमंत्री ओली की सिफारिश पर नए चुनाव कराने की घोषणा की। सदन को भंग करने के ओली के कदम का उनके प्रतिद्वंद्वी प्रचंड के नेतृत्व में एनसीपी के एक बड़े हिस्से ने विरोध किया। फरवरी में शीर्ष अदालत ने ओली द्वारा एक झटके में भंग सदन को बहाल कर दिया, जो चुनावों की तैयारी कर रहे थे।
सोमवार को राष्ट्रपति कार्यालय ने कहा कि उन्होंने नेपाल के संविधान के अनुच्छेद 76 (2) के अनुसार, बहुमत वाली सरकार बनाने के लिए पार्टियों को आमंत्रित करने का फैसला किया है। द हिमालयन टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, सरकार गठन में मदद के लिए माधव कुमार नेपाल और झलनाथ खनाल के नेतृत्व में सीपीएन-यूएमएल गुट के सांसदों को भी प्रभावित करने की उम्मीद है। कोई भी राजनीतिक दल अभी 271 सदस्यीय सदन में अकेले बहुमत से अपनी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में नेपाल कांग्रेस की सरकार बनाने के प्रयास विफल हो गए थे, क्योंकि माधव नेपाल समूह ने प्रत्याशित रूप से इस्तीफा नहीं दिया था। 32 सांसदों वाली जनता समाजवादी पार्टी-नेपाल (जेएसपी-एन) की भूमिका एक समय में महत्वपूर्ण थी। यह पार्टी बंट गई है और केवल 15 सदस्य ही पार्टी के साथ हैं। एक धड़े के प्रमुख महानाथ ठाकुर ने कथित तौर पर समर्थन करने से इन्कार कर दिया।
दूसरे धड़े का नेतृत्व उपेंद्र यादव कर रहे हैं। तराई आधारित पार्टियों की भूमिका पेचीदा रही है। ठाकुर एवं अन्य तराई आधारित समूहों ने संविधान की घोषणा के बाद नेपाल में भारत विरोधी भावना बढ़ने के बीच सीमा को अवरुद्ध करने की खातिर भारत को दोषमुक्त करने के लिए सारा दोष अपने ऊपर ले लिया। संविधान का विरोध कर रहे 60 से अधिक लोगों की जान चली गई थी और भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में इस मुद्दे को उठाया था। ठाकुर और उनकी पार्टी ने तब घोषणा की थी कि ओली तराई के लोगों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। नई स्थिति में रुख बदल सकता है। पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' के नेतृत्व वाली सीपीएन, जिसने वास्तव में ओली सरकार को गिराया था, ने भी सरकार बनाने का दावा किया था।
कुल मिलाकर, मुश्किल स्थिति मुख्य रूप से ओली के कारण आई, जिन्होंने सभी शक्तियों को अपने हाथों में केंद्रित कर लिया और बीच में पद छोड़ने की प्रतिबद्धता का सम्मान करने से इन्कार करते हुए पार्टी सहयोगियों को धोखा दिया। वह अपने साथ ताकतों का ध्रुवीकरण कर रहे हैं और अपने भड़काऊ बयान एवं कामकाज से बाहर अपना कद बढ़ाना चाहते हैं। उन्होंने नाकाबंदी के दौरान भारत पर निशाना साधा और नए क्षेत्रीय नक्शे जारी किए, जिसमें भारत के दावे वाले क्षेत्रों को नेपाल में दिखाया। फिर उन्होंने तीखा हमला बंद कर भारतीयों के प्रति सहमति दिखाई।
सत्ता में लौटकर ओली किस तरह की राजनीति करते हैं, यह नेपाल के लिए महत्वपूर्ण होगा, कम से कम निकट भविष्य में। वह माओवादियों-माधव नेपाल और खनाल के साथ सुलह कर सकते हैं, लेकिन प्रचंड के साथ उन्होंने जैसा व्यवहार किया, वैसे में ऐसा होना मुश्किल लगता है। अगर कम्युनिस्ट इकट्ठा होते हैं, तो नेपाली कांग्रेस को इंतजार करना होगा और दो साल दूर चुनावों के लिए अपनी रणनीति को आकार देना होगा। अफसोस की बात है कि सरकार और राजनीतिक दल राजनीतिक संकट में व्यस्त हैं, जबकि कोरोना वायरस मामलों में हाल में अनियंत्रित उछाल और मौत के कारण नेपाल ने वैश्विक मीडिया का ध्यान आकर्षित किया है। पूरे देश में ऑक्सीजन सिलेंडर, बिस्तरों, दवाओं और वेंटिलेटर की कमी है, जबकि हर दिन मृतकों की संख्या में नेपाल एक नया रिकॉर्ड स्थापित कर रहा है।
क्रेडिट बाय अमर उजाला
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