सम्पादकीय

Old Pension Scheme: सरकारी ढांचे से जुड़े लोगों को ही बुढ़ापे में आर्थिक सुरक्षा कवच अनिवार्य क्यों है?

Gulabi Jagat
26 March 2022 5:07 AM GMT
Old Pension Scheme: सरकारी ढांचे से जुड़े लोगों को ही बुढ़ापे में आर्थिक सुरक्षा कवच अनिवार्य क्यों है?
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नई राष्ट्रीय पेंशन योजना यानी एनपीएस और पुरानी पेंशन को लेकर सरकारी कर्मचारी आंदोलन के मूड में हैं
डा. अजय खेमरिया। नई राष्ट्रीय पेंशन योजना यानी एनपीएस और पुरानी पेंशन को लेकर सरकारी कर्मचारी आंदोलन के मूड में हैं। इसी सिलसिले में कई कर्मचारी संगठनों ने अगले सप्ताह 28-29 मार्च को हड़ताल का आह्वान किया है। बुनियादी रूप से यह मामला अब राजनीतिक हो गया है। हाल के विधानसभा चुनावों में भी इसकी गूंज सुनाई दी थी। एनपीएस और पुरानी पेंशन योजनाओं के गुण-दोषों पर चर्चा करने के स्थान पर राजनीतिक रूप से यह ऐसा मुद्दा बन गया है, जो सीधे-सीधे वोटों के गणित से जुड़ गया है। सवाल यह है कि केवल सरकारी ढांचे से जुड़े लोगों को ही बुढ़ापे में आर्थिक सुरक्षा कवच अनिवार्य क्यों है? क्या देश के हर नागरिक को ऐसी सामाजिक सुरक्षा के दायरे में नही होना चाहिए। कई देशों में पहले से ही ऐसे पेंशन प्रविधान हैं।
भारत में पेंशन का मुद्दा सामाजिक सुरक्षा के मानकों पर कभी खरा नहीं रहा है। सरकारी कोष से एक बड़ा हिस्सा उच्चाधिकारियों की पेंशन पर खर्च होता रहा है। इसकी तार्किकता का परीक्षण भी किसी प्रशासनिक सुधार आयोग ने नहीं किया। मसलन एक परिवार को लाखों की पेंशन हासिल होती है और उसी महकमे के बाबू को मामूली राशि। एनपीएस से पूर्व पेंशन में विसंगतियों की भरमार थी। 2004 में आए एनपीएस माडल को समावेशी बताकर पेश किया गया, लेकिन नतीजे कुछ और ही कहानी कहते हैं। पुरानी पेंशन एकमुश्त राशि की मासिक गारंटी देती थी, जो सेवानिवृत्ति के समय कर्मचारी के अंतिम मूल वेतन पर 50 प्रतिशत थी। एनपीएस ऐसी गारंटी नही देती। यहां बुनियादी सवाल यह है कि पुरानी पेंशन करदाताओं की कीमत पर कुछ लोगों को आर्थिक सुरक्षा क्यों दें? दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या सरकारों के लिए 17 साल पुरानी मौजूदा योजना से बाहर आना इतना आसान है, जैसा कि राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री दावा कर रहे हैं।
बंगाल को छोड़कर सभी राज्यों ने एनपीएस को अपने यहां लागू कर रखा है, क्योंकि पेंशन राज्य का विषय है और केंद्र सरकार इसे राज्यों पर थोप नही सकती। वामदलों ने 2004 में इसका विरोध तो किया, लेकिन रोचक तथ्य यह है कि केरल और त्रिपुरा में वाम शासित सरकारों ने भी इसे बनाए रखा। स्टालिन, केसीआर और जगनमोहन रेड्डी से लेकर नवीन पटनायक तक सबने इस पर आपत्ति तो खूब की, लेकिन सत्ता में आने के बाद इसे हटाया नहीं। उत्तर प्रदेश के हालिया विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने पुरानी पेंशन बहाली का मुद्दा छेड़ा, लेकिन राज्य में नई पेंशन योजना भी उसकी सरकार ने ही लागू की थी। अखिलेश यादव के एलान के बाद राजस्थान और छत्तीसगढ़ की कांग्र्रेस सरकारों ने भी पुरानी पेंशन की ओर कदम बढ़ाए। इन घोषणाओं का असर यह हुआ कि दो चरणों के बाद उत्तर प्रदेश के कर्मचारियों ने सपा के पक्ष में मतदान किया। इस बीच केंद्र ने स्पष्ट किया है कि पुरानी पेंशन बहाल करने का उसका कोई इरादा नहीं। ऐसे में कुछ अहम सवाल हैं कि क्या पुरानी पेंशन को लेकर निर्णय लिया जाना इतना आसान है? सवाल यह भी है कि पिछले 17 वर्षों में राज्यों ने इस मामले में कोई दिलचस्पी क्यों नहीं दिखाई? एकाएक राजनीतिक कारणों से इस मुद्दे ने क्यों तूल पकड़ा?
देश मे इस समय एक करोड़ 54 लाख कार्मिक एनपीएस से जुड़े हुए हैं। करीब छह लाख करोड़ रुपये की राशि इस मद में निवेश की जा चुकी है। इसका 85 प्रतिशत सरकारी प्रतिभूतियों, एलआइसी, यूटीआइ और एसबीआई में लगा है। शेष 15 प्रतिशत खुले बाजार में निवेश है। हर माह करीब नौ हजार करोड़ रुपये का अंशदान एनपीएस में जाता है। यदि इसे एक झटके में बंद कर दिया जाएगा तो इस व्यवस्था को कैसे चलाया जाएगा? अगर राज्य सरकारें एनपीएस को बंद करती है तो जो रकम जमा हो चुकी है, उसे कैसे उपयोग में ला पाएंगी, क्योंकि पेंशन फंड रेगुलेटरी अथारिटी के साथ इन सरकारों ने 30 साल के अनुबंध किए हुए हैं। इन तकनीकी पहलुओं पर ध्यान दिए बिना राज्य सरकारें अगर पुरानी पेंशन को बहाल करती है तो मामला और उलझ सकता है। इसका समाधान तब तक संभव नहीं जब तक केंद्र सरकार इस पर उदारता के साथ नीतिगत कदम न उठाए। जहां केंद इन्कार कर चुका है, वहीं महाराष्ट्र, तमिलनाडु और बिहार सहित कई राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने निर्धारित प्रविधानों के अनुसार एनपीएस में अंशदान भी नहीं किया है। जाहिर है कि अगर ये राज्य पुरानी पेंशन पर लौटते हैं तो एनपीएस का गणित और गड़बड़ हो जाएगा। एक अनुमान के अनुसार पुरानी पेंशन बहाल करने वालों राज्यों पर करीब 7.5 प्रतिशत का अतिरिक्त वित्तीय बोझ संभावित है, जो पहले से ही वित्तीय रूप से कमजोर राज्यों के लिए मुश्किल खड़ी करेगा।
पुरानी पेंशन के पक्ष में यह तर्क भी दिया जा रहा है 2005 में नियुक्त कर्मचारियों का रिटायरमेंट 2030 में आरंभ होगा। इसलिए राज्य सरकारों पर तत्काल इसका बोझ नही आएगा। राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री इस घोषणा में आगे इसलिए रहे, क्योंकि वहां अगले साल चुनाव होने हैं। जाहिर है मामला चुनावी राजनीति से जुड़ा है। हैरानी की बात यह है कि इस योजना को संप्रग शासन काल में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आकार दिया गया और अब वही पार्टी इस पर राजनीतिक कारणों से पलट रही है। व
(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)
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