सम्पादकीय

पुराना कानून बनाम नया बिल, डिजिटल शक्तियों से कसेगा कानून का फंदा

Gulabi Jagat
9 April 2022 1:22 PM GMT
पुराना कानून बनाम नया बिल, डिजिटल शक्तियों से कसेगा कानून का फंदा
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किसी भी देश और समाज में शांति व्यवस्था बनाए रखने की सर्वाधिक आवश्यक शर्त यह है
डा. संजय वर्मा। किसी भी देश और समाज में शांति व्यवस्था बनाए रखने की सर्वाधिक आवश्यक शर्त यह है कि अपराधों पर अंकुश लगाया जाए। इसके लिए कानून का सहारा लिया जाता है। कानून तोडऩे वालों और असामाजिक तत्वों की पहचान और धरपकड़ करते हुए उन्हें समुचित दंड दिया जाता है। इस संबंध में सामान्य अनुभव यह है कि कानून तोडऩे वाले, कानून बनाने वालों से दो कदम आगे ही रहते हैं। इतना ही नहीं, जब भी कोई नई कानूनी व्यवस्था बनाई जाती है तो वे (कानून-भंजक) उसका कोई न कोई तोड़ अवश्य निकाल लेते हैं।
ऐसे में नई तकनीकों ने काफी हद तक बदलाव किया है। हाल के दशकों में तकनीक पर हमारी निर्भरता और तकनीक में रह गए छल-छिद्रों ने अपराधी मंसूबे वाले तत्वों को अपराध करने के दो हाथ और दे दिए हैं। ऐसा इसलिए भी हुआ कि एक ओर कानून लागू करने वाला तंत्र तकनीकी बदलावों के साथ तालमेल बिठाने में सुस्त साबित हुआ, जबकि अपराधियों ने खुद को तकनीकी दक्षता से लैस कर लिया। इसके अलावा, एक बड़ी समस्या अपराध नियंत्रण संबंधी हमारे कानूनी प्रविधानों के सौ साल से ज्यादा पुराना हो जाने की है। इधर केंद्र सरकार ने लोकसभा में जो आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) विधेयक, 2022 (क्रिमिनल प्रोसिजर आइडेंटिफिकेशन बिल, 2022) पारित कराया है, उसे वास्तविकताओं से तालमेल बिठाने की कोशिश कहा जा सकता है। हालांकि देश के अनेक विपक्षी दलों को इसे लेकर अपने ऐतराज हैं। इसमें विरोध के कुछ बिंदु भी हैं। परंतु वर्तमान आवश्यकताओं को देखते हुए इसे ऐसी कोशिश माना जा सकता है जिससे अपराधों पर लगाम लगाने में काफी मदद मिल सकती है।
तकनीकी तौर पर मुकम्मल : क्रिमिनल प्रोसिजर (आइडेंटिफिकेशन) बिल, 2022 का सबसे उल्लेखनीय पहलू इसका तकनीकी रूप से मुकम्मल होना या कहें कि वर्तमान समय के तकनीकी संजाल को समझते हुए अपराध नियंत्रण का पुख्ता प्रयास करना है। इसके जरिये हमारी पुलिस को कुछ मामलों में संदिग्धों और ज्यादातर अपराधियों की पहचान से जुड़े रिकार्ड इलेक्ट्रानिक तरीके से जमा करने और डाटा बेस के माध्यम से दूसरी एजेंसियों से साझा करने की इजाजत मिलेगी। यानी इस विधेयक के कानून में बदलने और लागू होने पर पुलिस संदिग्धों और अपराधियों की पहचान के जैविक सबूत भी ले सकेगी।
सरकार के दावे के अनुसार नए विधेयक से पुलिस को यह शक्ति मिलने वाली है कि वह अपराधियों की फोटो के अलावा उनकी अंगुलियों की छाप (फिंगरप्रिंट), पैरों-तलवों की छाप (फुटप्रिंट), हथेलियों की छाप, आंखों के आइरिस और रेटीना का बायोमीट्रिक डाटा और खून, वीर्य, बाल और लार आदि तमाम प्रकार के जैविक (बायोलाजिकल) नमूने ले सकेगी। हस्ताक्षर, लिखावट या अन्य तरह का डाटा भी लिया जा सकेगा। इनके अलावा, पुलिस को ब्रेन मैपिंग करने का अधिकार भी होगा। ये सारे रिकार्ड 75 वर्षों तक सुरक्षित रखे जा सकते हैं और अदालत से बरी होने या फिर सजा काट लेने की स्थिति में इन्हें खत्म किया जा सकता है या मिटाया जा सकता है। साथ ही इस पूरे डाटा का डिजिटलीकरण करके उसे केंद्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के डाटा बेस में जमा किया जाएगा। इस डाटा को इलेक्ट्रानिक तौर पर साझा करने की स्थिति में रखा जाएगा, ताकि देश में कहीं भी जरूरत पडऩे पर इसे तुरंत भेजा जा सके। इस व्यवस्था के लागू होने पर किस तरह का व्यवस्थागत परिवर्तन आ सकता है, इसे चीन के एक उदाहरण से समझा जा सकता है।
डिजिटल स्कैनिंग का फायदा : चीन में मोबाइल का नया सिम लेने के लिए सितंबर 2019 से चेहरे की अनिवार्य स्कैनिंग के कायदे का ऐलान किया गया था। इस बारे में चीन की सरकार का कहना था कि इसके लिए जिस फेशियल रिकाग्निशन तकनीक यानी चेहरे की पहचान करने वाली स्कैनिंग का इस्तेमाल किया जाएगा, उसका एक बड़ा उद्देश्य लोगों के अधिकारों की सुरक्षा करना है। यह कानून लागू करने से पहले वर्ष 2018 में फेशियल रिकाग्निशन तकनीक से 60 हजार की भीड़ वाले एक कंसर्ट यानी विशेष कार्यक्रम के बीच में एक भगोड़े को चीन की पुलिस ने खोजकर पकड़ लिया था।
एक दावा यह भी है कि भारत में दिसंबर, 2019 में दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित हुई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक रैली में शामिल होने आए लोगों के चेहरों को फेशियल रिकाग्निशन साफ्टवेयर के इस्तेमाल से स्कैन किया गया था। स्कैनिंग से मिले चेहरों का मिलान दिल्ली पुलिस ने अलग-अलग विरोध प्रदर्शनों के दौरान बनाए गए वीडियो में दर्ज हुए चेहरों से किया। इस तकनीक के इस्तेमाल का उद्देश्य रैली में मौजूद लोगों में से ऐसे तत्वों की पहचान करना था जो पहले किसी मामले में संदिग्ध रह चुके हों। ऐसे में कानून तोड़ सकने वाला कोई संदिग्ध रैली में नहीं आए, यह सुनिश्चित करने के लिए फेशियल रिकाग्निशन के इस प्रयोग ने साफ कर दिया था कि देश में तकनीक के बल पर कानून-व्यवस्था बनाने के काम में तेजी आएगी। क्रिमिनल प्रोसिजर (आइडेंटिफिकेशन) बिल, 2022 इसी कड़ी में अगली महत्वपूर्ण पहल है।
विरोध के तर्क : हम अभी यह नहीं कह सकते कि तदर्थ समिति (स्टैंडिंग कमेटी) के पास भेजे जा रहे इस विधेयक में ऐसी कितनी कमियां हैं, जिनका दुरुपयोग हो सकता है। फिर भी विपक्ष ने जिन मुद्दों को उठाया है और जो चिंताएं प्रकट की हैं, उन पर गौर अवश्य करना होगा। मानवाधिकार के पैरोकार और कुछ एक्टिविस्ट भी इस बिल को असंवैधानिक बताते हुए इसका विरोध कर रहे हैं। विरोध कई मुद्दों पर है। जैसे कांग्रेस का तर्क है कि यह विधेयक मुख्य रूप से उस सिद्धांत के खिलाफ है जिसके तहत किसी व्यक्ति को दोषी साबित होने तक निर्दोष माना जाता है। साथ ही इसमें जिस तरह व्यक्ति की नापजोख और डाटा लेकर उन्हें रिकार्ड में रखने का प्रविधान किया गया है, उससे यह विधेयक संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के सीधे उल्लंघन का मामला बनता है। इस बाबत ज्यादा खतरा यह है कि इस विधेयक की आड़ में पुलिस को दी गई शक्तियों का वह दुरुपयोग कर सकती है।
कुछ राजनीतिज्ञों का यह तर्क है कि यह विधेयक लोगों की निजता के अधिकार में खलल डालता है। चूंकि अभी हमारे देश में डाटा सुरक्षा के मानकों का अभाव है, ऐसे में इसकी क्या गारंटी है कि जिन लोगों का जैविक और डिजिटल डाटा इसमें लिया जाएगा, वह पूरी तरह सुरक्षित रहेगा। सरकार को इस आशंका का भी हल खोजना होगा कि जैविक नमूने लेने के बहाने कहीं डीएनए सैंपल जमा करने की पहल तो नहीं हो रही है, जो कि एक गैरकानूनी गतिविधि है। हालांकि इस संबंध में मानवाधिकारों के हनन का मामला उठाने वालों से गृह मंत्री अमित शाह का यह पूछना वाजिब लगता है कि जो लोग मानवाधिकार की दुहाई दे रहे हैं, वे जरा पीडि़त के अधिकारों के बारे में चिंता करते तो बेहतर होता। हालांकि इस संबंध में एक आशंका तो गैरवाजिब नहीं लगती कि जैविक (बायोलाजिकल) सैंपलों को तो अत्यधिक ठंडे तापमान में रखने की आवश्यकता होती है। हमारे देश में थानों की जो हालत है, उसमें जुटाए गए जैविक सैंपल एनसीआरबी को सौंपने तक कितने सुरक्षित रहेंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। सच तो यह है कि देश में व्यापक पुलिस सुधार करना और अदालतों में लंबित लाखों मामलों को सुलझाना ऐसे नए कानून लागू करने से ज्यादा जरूरी हैं।
पुराना कानून बनाम नया बिल : इसमें कोई संदेह नहीं कि देश में अभी भी ब्रिटिश शासन के दौरान वर्ष 1920 में बना जो कानून लागू है, वह आज की स्थितियों में प्रासंगिक नहीं रहा है। थाने की फाइलों में सिमटे इस कानून में मजिस्ट्रेट के आदेश पर पुलिस अधिकारियों को अपराधियों के फिंगरप्रिंट, फुटप्रिंट और तस्वीरें लेने की अनुमति थी। तात्पर्य यह है कि 1920 के कानून में सैंपल जमा करने का आदेश देने का अधिकार मजिस्ट्रेट के पास है। जबकि नया विधयेक इस शक्ति को सब इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारी के अधिकार क्षेत्र में लाता है। यही नहीं, मौजूदा कानून (1920) में गिरफ्तार किए गए उसी व्यक्ति के सैंपल लिए जा सकते है, जिसे न्यूनतम एक साल की कड़ी सजा मिली हो। ऐसे में यदि किसी व्यक्ति के अन्य अपराधों में शामिल होने की आशंका है, तो उसके सैंपल लेकर उसकी गतिविधियों या कहीं आने-जाने की साइबर पड़ताल, छानबीन और मिलान नहीं हो सकता है। इसके बरक्स नए विधेयक में किसी भी दंडनीय अपराध के तहत गिरफ्त में आए आरोपी या अदालत में दोष साबित होने पर अपराधी का जैविक (बायोलाजिकल) और शारीरिक (फिजिकल) डाटा लिया जा सकेगा।
नए बिल के तहत अगर किसी को एहतियात के लिए भी हिरासत में लिया जाए तो भी उसके सैंपल लेने की इजाजत होगी। इससे अपराधों और अपराधियों पर प्रभावी तरीके से अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। सच्चाई यह है कि 1920 का कानून आज से 50 या 60 साल पहले तक जरूर कुछ प्रासंगिकता रखता भी था, लेकिन जब से अपराध साइबर दायरों में पहुंच गया है, सौ साल पहले की कानूनी शक्तियां उनके आगे निस्तेज और निरूपाय हो गई हैं। अपराध से संबंधित ऐसे असंख्य किस्से हैं जो बताते हैं कि एक राज्य में अपराध करने के बाद अगर कोई व्यक्ति अपनी थोड़ी-बहुत वेशभूषा और शारीरिक पहचान में मामूली परिवर्तन करते हुए देश के किसी अन्य हिस्से में रहने लगे, तो दशकों तक पुलिस न तो उस तक पहुंच पाती है और न उसकी पहचान सुनिश्चित कर उसे अपराध का दंड दिला पाती है। राज्यों के बीच पुलिस तंत्र के बीच आपसी सहयोग, पूछताछ, दबिश, रिमांड, सबूतों की पुष्टि जैसे मामलों में अभी इतने झोल हैं कि ज्यादातर अपराधी कानून की खामियां उठाकर साफ बच निकलते हैं, जबकि पीडि़त पक्ष कानून की दुहाई देता और हाथ मलता रह जाता है।
लोकसभा और राज्यसभा में इस बिल पर हुई बहस के दौरान गृह मंत्री अमित शाह की ओर से दिए गए आंकड़े मौजूदा कानून की कमियों का साफ संकेत करते हैं। गृह मंत्री ने बताया कि वर्ष 2020 में हत्या के 44 प्रतिशत, दुष्कर्म के 39 प्रतिशत और हत्या के प्रयास के 24 प्रतिशत मामलों में ही दोषियों को सजा मिली। तात्पर्य यह है कि हत्या के 56 प्रतिशत मामलों और दुष्कर्म के 61 प्रतिशत मामलों में दोषियों को सजा नहीं मिली। अगर इंसाफ की यही दर आगे भी रहती है, तो हमारी न्याय व्यवस्था के प्रति लोगों के डगमगाते भरोसे को लेकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ऐसे में यह नया विधेयक नई उम्मीद लेकर आया है।
[एसोसिएट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी, गे्रटर नोएडा]
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