सम्पादकीय

तेल की आग

Subhi
7 July 2021 3:46 AM GMT
तेल की आग
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देश के आधे से ज्यादा राज्यों में पेट्रोल सौ को पार कर गया। तीन राज्यों में डीजल भी सौ के पार चला गया।

देश के आधे से ज्यादा राज्यों में पेट्रोल सौ को पार कर गया। तीन राज्यों में डीजल भी सौ के पार चला गया। ऐसा पहली बार हुआ है जब ईंधन के दाम इस तरह आसमान छू रहे हैं। आए दिन पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने से जिस कदर महंगाई बढ़ रही है, उससे केंद्र और राज्य सरकारों के भीतर कोई चिंता दिखाई न देना हैरान करता है। देखने से ऐसा लगता है जैसे दामों को काबू करने में सरकारें लाचार हों। पर ऐसा है नहीं। हकीकत तो यह है कि पेट्रोल और डीजल के दाम सरकारी खजाना भरने का जरिया बन गए हैं। सोलह बार मई और सोलह ही बार जून में सरकारी तेल कंपनियों ने पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाए। दाम भले पांच पैसे से तीस-पैंतीस पैसे ही बढ़ाए जा रहे हों, लेकिन इनका एकमुश्त असर भारी हो गया है। इस साल यानी सिर्फ छह महीने में पेट्रोल करीब सोलह रुपए और डीजल साढ़े पंद्रह रुपए तक महंगा हो गया। ऐसे में आम आदमी की जुबां पर अब यही सवाल है कि अब और कितने दाम बढ़ेंगे? क्या पेट्रोल-डीजल सवा सौ-डेढ़ सौ के आंकड़े को छू जाएगा?

इस वक्त जैसे हालात हैं, उनमें पेट्रोल और डीजल के दामों में कमी के आसार दूर-दूर तक नहीं दिखते। तेल कंपनियों का तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल महंगा होने की वजह से दाम बढ़ाना मजबूरी है। अगर वाकई ऐसा है तो फिर कच्चा तेल जब बहुत ही सस्ता था, तब फिर उपभोक्ताओं के लिए पेट्रोल-डीजल सस्ता क्यों नहीं हुआ? इसी से साबित होता है घरेलू बाजार में इनके दाम बढ़ाने का अंतरराष्ट्रीय बाजार से दामों से कोई संबंध नहीं है। इसके लिए पिछले डेढ़ दशक के दो आंकड़ों पर गौर करना होगा। 2015-16 में कच्चा तेल छियालीस रुपए सत्रह पैसे प्रति बैरल के भाव खरीदा गया था। यह एक दशक में सबसे कम भाव था। इसी तरह 2020-21 में चवालीस रुपए बयासी पैसे प्रति बैरल के भाव से खरीदा गया जो पिछले डेढ़ दशक का न्यूनतम भाव था। लेकिन दोनों ही बार उपभोक्ताओं को कोई राहत नहीं दी गई। उल्टे, केंद्र और राज्य सरकारों ने जनता की जेब से पैसा निकालना और खजाना भरना जारी रखा। अभी एक लीटर पेट्रोल के खुदरा दाम में बत्तीस रुपए नब्बे पैसे केंद्र का कर और तेईस रुपए के आसपास राज्यों का कर है, जो हर राज्य में अलग-अलग है।

महामारी के कारण देश वाकई संकट से गुजर रहा है। अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई है। और कब पटरी पर आ पाएगी, कोई नहीं जानता। महंगाई और बेरोजगारी ने लोगों को रुला दिया है। दूसरी लहर की मार ने उद्योग-धंधों को और चौपट कर डाला। और सबसे चिंताजनक तो यह कि इस साल मई में कमोबेश एक करोड़ वेतनभोगी व कामगारों को नौकरी से हाथ धोना पड़ गया। डीजल महंगा होने से रोजमर्रा के इस्तेमाल वाली हर वह चीज महंगी होती जा रही है जो एक गरीब भी काम में लेता है। रसोई गैस, दूध, सब्जी के दाम से लेकर भाड़ा तक महंगा हो गया है। अगर इस मुश्किल वक्त में भी पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ते रहे तो लोगों के लिए रोटियों के लाले पड़ने लगेंगे। लेकिन इतना होने पर भी सरकारें पेट्रोल, डीजल पर अपने हिस्से के कर में कहीं कोई कटौती करने को राजी नहीं दिखतीं। जाहिर है, सरकारें संकट में भी अवसर तलाश रही हैं। इससे बड़ा जनविरोधी रवैया और क्या हो सकता है!


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