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कोई भले ही यह कहता रहे कि सत्यमेव जयते। मगर किस सच की जीत, वह जो कल था, या आज है?
अक्सर कहा जाता है कि सच सार्वभौमिक यानी कि युनिवर्सल होता है। वह कभी नहीं बदलता। एक सच के लिए कोई दूसरा सच नहीं बोलना पड़ता, जबकि एक झूठ के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं। यह भी तो पता है कि सच के लिए हमेशा प्रमाण मांगे जाते हैं, गवाहों की जरूरत होती है, जबकि झूठ को ऐसा कुछ नहीं चाहिए। इसके अलावा वक्त के साथ सच की परिभाषा बदलती रहती है। एक जमाने तक संसार में एक ही सूरज है, यही सच था, लेकिन अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने बताया कि ऐसा कुछ नहीं है, सोलर सिस्टम में न जाने कितने सूरज हैं।
आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के इस दौर में हम देखते हैं कि सबके अपने-अपने सच हैं। कल तक जिन नायकों को सबका माना जाता था, आज वे सबके नहीं है। सब अपने-अपने नायक खोज रहे हैं, उनकी स्थापना और पूजा कर रहे हैं। यानी कि सच का निर्माण हो रहा है। यही नहीं सब कह रहे हैं कि उनका अपना सच ही सच है। इस सच की निर्मिति में बदले की भावना भी छिपी हुई है। आप कहते रहिए कि बदले से बदला उपजता है और घृणा से घृणा। कोई नहीं मानता।
इस परिदृश्य में देखें, तो स्त्रियों के अपने सच हैं। सदियों से वे सहती आई हैं। उनके लिए जिस सच का निर्माण किया गया था, वह था कि पैदा होते ही उन्हें अपने परिवार में यह दीक्षा दी जाती थी कि तुम्हें पराए घर जाना है। उस देहरी में जब घुसो, तो तभी निकलो जब तुम्हारी अर्थी उठे। आज कौन-सी स्त्री इसे मानने को तैयार है। वे अपना सच खुद बना रही हैं और उन्हें ताकत मिल रही है, उनकी शिक्षा, आत्मनिर्भरता और लोकतंत्र से। उनके वोट की कीमत है।
इसीलिए हर दल उनका बड़ा भारी हितू बनने की कोशिश करता है। यही बात हम दलितों के बारे में भी कह सकते हैं। सदियों से दलितों को जिस तरह से दबाया गया है, आज शिक्षा, आरक्षण से मिलने वाले अधिकार और नौकरियों ने उन्हें इतना सचेत किया है कि वे हर पुरानी धारणा की धज्जियां उड़ा रहे हैं। वे कह रहे हैं कि उनका सच वह है, जो उन्हें दिखाई दे रहा है। बाकी सब झूठ है। वे ब्राह्मणों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। ब्राह्मणों की सुनें, तो वे कहते हैं कि वे भला शोषक कैसे हो सकते हैं।
न उनके पास कभी जमीन रही है, न ही राजपाट। पुराने जमाने से हर कहानी की शुरुआत यहीं से होती है कि एक गरीब ब्राह्मण था। अब तो वे सत्ता के केंद्रों से भी बाहर हैं। चुनावों के वक्त कोई पूछ ले, तो पूछ ले, वरना न रोजगार है, न ही सरकार की तरफ से मिलने वाले कोई वजीफे, अन्य अधिकार या शिक्षण संस्थानों में एडमीशन की सुविधा ही। इसी तरह के सच अन्य जातियों और हिंदू, मुसलमान, सिखों और ईसाई आदि के हैं। वे तमाम राजनीतिक परिस्थितियों को देखकर अपने-अपने सच बना रहे हैं।
राजनीतिक दल भी हर जाति और धर्म के वोट पाने के लिए उनके सच को सच मान रहे हैं। हर चुनाव के दौरान ये सच बदल भी रहे हैं। पुराने सच झूठ साबित हो रहे हैं और कई झूठ सच भी बन रहे हैं। आप जिसे झूठ कह रहे हैं, होगा वह आपके लिए झूठ। जो उसे सच मान रहे हैं, उन्हें झूठा कैसे कहा जा सकता है। ध्यान से देखिए, तो ताकतवर का सच अलग है और कमजोर का अलग। यह संख्या बल से निर्धारित हो रहा है कि किसका वोट ज्यादा, तो उसी का सच, सच और बाकी सब झूठ।
इसे एक उदाहरण से यों भी समझा जा सकता है कि महलों में रहने वाले सपने देखते हैं कि काश, वे भी कच्चे घरों में मिट्टी की सौंधी गंध पा सकते। जो कच्चे घरों में रहते हैं, वे उनसे जल्दी से जल्दी निजात पाना चाहते हैं। जो मिट्टी का घर अमीर के लिए आकर्षक है, वही गरीब के लिए आफत की जड़। सच के सार्वभौमिक होने की अवधारणा सिर के बल खड़ी है। कोई भले ही यह कहता रहे कि सत्यमेव जयते। मगर किस सच की जीत, वह जो कल था, या आज है?
सोर्स: अमर उजाला
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