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भारतीयों को उनके अधिकार और सम्मान को वापस दिलाने में आगे बढ़ना चाहती है।
संविधान के अनुसार हिंदी राजभाषा भले ही है, पर यह राजभाषा शब्द ही उसके विरोध का स्थायी भाव बन गया है। आमजन राष्ट्र और राज-भाषा के विभेद को समझ नहीं पाता। लेकिन राजनीति जैसे ही इस तथ्य को उजागर करने की कोशिश करती है, गैर हिंदीभाषी राज्य और राजनीति इसके खिलाफ खड़ी हो जाती है। लगता है, मानो समूचा गैर हिंदीभाषी इलाका हिंदी विरोध में है।
संसदीय राजभाषा समिति में गृहमंत्री अमित शाह के हालिया संबोधन के बाद हिंदी विरोध में उठने वाली राजनीतिक आवाजों के पीछे भी विरोध का करीब पच्चासी साल पुराना वही डीएनए काम कर रहा है। हिंदी की बात जब भी होती है, द्रविड़ राजनीति इसके खिलाफ उठ खड़ी होती है। अब इसमें बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों की आवाज भी शामिल होने लगी है।
जमीनी स्तर पर हिंदी विरोध को लेकर वैसे हालात नहीं हैं, जैसे पिछली सदी के साठ के दशक में थे। तमिलनाडु की वह पीढ़ी अब बुजुर्ग हो चुकी है, जिसने द्रविड़ राजनीति के चक्कर में हिंदी का हिंसक विरोध किया था। हिंदी विरोध की राजनीति से उपजी हिचक ही रही है कि सत्ता में आने वाले राजनीतिक दल इसका सवाल पूरी ताकत के साथ उठाने से हिचकते रहे हैं।
इन अर्थों में गृहमंत्री अमित शाह को साहसी माना जाना चाहिए कि उन्होंने खुलकर हिंदी को अंग्रेजी की जगह राष्ट्र की संपर्क भाषा बनाने की वकालत की है। अमित शाह के मुताबिक, उत्तर पूर्व की आठ भाषाओं ने देवनागरी अपनाने का फैसला लिया है। बोडो, जेमी, किरबुक और अरुणाचल प्रदेश की स्थानीय भाषाओं द्वारा देवनागरी अपनाना मामूली बात नहीं है।
वैसे भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी को अपनाए जाने का विचार आज का नहीं है। विनोबा भावे लगातार इस कोशिश में रहे कि भारतीय भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें। 1972 में विनोबा ने कहा था, 'नागरी लिपि हिंदुस्तान की सब भाषाओं के लिए चले तो हम सब लोग नजदीक आ जाएंगे। खासतौर से दक्षिण की भाषाओं को नागरी लिपि का लाभ होगा।
वहां की चार भाषाएं अत्यंत नजदीक हैं। उनमें संस्कृत शब्दों के अलावा उनके अपने जो प्रांतीय शब्द हैं, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम के बहुत से शब्द समान हैं। वे शब्द यदि नागरी लिपि में आ जाते हैं, तो दक्षिण के लोग चारों भाषाएं पंद्रह दिन में सीख सकते हैं।' गांधी जी ने बेशक हिंदुस्तानी शब्द का प्रयोग किया था, लेकिन वह भी चाहते थे कि देश की संपर्क भाषा हिंदी ही बने।
वैसे भी दुनिया में भारत ही अकेला देश है, जहां संपर्क भाषा के तौर पर विदेशी अंग्रेजी भाषा है। यहां हमें यह भी याद करना चाहिए कि भारत में अंग्रेजी का इतिहास महज 162 साल का है। मैकाले की योजना के जरिये भारत में विधिवत अंग्रेजी की पढ़ाई 1860 में तब शुरू हो सकी, जब प्रथम स्वाधीनता संग्राम विफल हुआ। लिपि किस तरह संस्कृतियों को करीब लाती है, इसे देखने के लिए हमारे सामने दुनिया की दो लिपियों के उदाहरण हैं।
यूरोप की ज्यादातर भाषाएं रोमन लिपि का इस्तेमाल करती हैं, तो अरब देशों की भाषाएं अरबी लिपि का ही प्रयोग करती हैं। इसका असर यह है कि एक-दूसरे से अलग होने के बावजूद यूरोप के सभी देशों की संस्कृतियां और लोग सहज रूप से एक-दूसरे से जुड़े हैं और कुछ ऐसी ही स्थिति अरब देशों की संस्कृति और नागरिकों की है। विनोबा भावे अनुभव के दम पर कहा करते थे कि भारतीय भाषाओं में समानता है।
सिर्फ लिपियों की वजह से ही उनका परस्पर संबंध टूटा है और न तो भाषाएं एक बन पा रही हैं और न ही देश एक हो पा रहा है। गांधी जी का भी कुछ ऐसा ही विचार था। देश के करोड़ों लोगों के सशक्तीकरण की राह में सबसे बड़ी बाधा अंग्रेजियत ही है, जिसके असर में नौकरशाही और न्यायपालिका है। संसदीय विधायी कार्य भी इसी अंग्रेजियत के असर में अपनी भाषाओं से दूर हैं।
बिना थोपे ही हिंदी सिनेमा, टेलीविजन और बाजार के जरिये लगातार आगे बढ़ती गई है। ऐसे में अगर हिंदी संपर्क भाषा के तौर पर विकसित होती है, तो तय है कि अंग्रेजियत की राह में यह बड़ी बाधा होगी। पर सवाल यह है कि क्या राजनीति इसे स्वीकार करके आम भारतीयों को उनके अधिकार और सम्मान को वापस दिलाने में आगे बढ़ना चाहती है।
सोर्स: अमर उजाला
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