सम्पादकीय

दरिया में दर्द का सागर

Rani Sahu
7 July 2022 6:56 PM GMT
दरिया में दर्द का सागर
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आपदा प्रबंधन के मुजरिम फिर कठघरे में और मौसम का गुनहगार अंदाज बरसात पर कालिख की बौछार कर रहा है

सोर्स- divyahimachal

आपदा प्रबंधन के मुजरिम फिर कठघरे में और मौसम का गुनहगार अंदाज बरसात पर कालिख की बौछार कर रहा है। मौसम का दानवीय चेहरा पहले ही परिवहन व्यवस्था की चीखें सुना गया था और अब कुल्लू घाटी के दिल में छेद करके डरा गया है। भारी बारिश ने पहाड़ को ढहाने की मुहिम क्या शुरू की सारी बूंदें एकत्रित होकर भयंकर बाढ़ के आगोश में एक साथ चार लोगों को भगा ले गईं जबकि एक अन्य भी इस बरसात के कोहराम में जीवन हार गया। आरंभिक बरसात के संकेत सही नहीं हैं। अब तक बारिश के तमाम कारणों में समाहित मौत का आंकड़ा अगर 49 तक पहुंच गया, तो हमारे इंतजाम कानों में रूई डाल कर बैठे हैं या आपदा प्रबंधन खुद बैसाखी पहन कर चल रहा होगा। कुल्लू के हादसे ने आंखें खोल दी हैं और हर दरिया दर्द का सागर बन कर डराने लगा है। हम आपदा को किसी न किसी हादसे में गिनते हैं, जबकि इसके प्रबंधन के लिए यह जरूरी है कि मौसम की विकरालता को रोकने का दायित्व मजबूत करें। पहाड़ दरक क्यों रहे हैं या नदियां बेकाबू क्यों हैं, यह सोचने समझने के विज्ञान की कुछ शर्तें हैं। जलवायु परिवर्तन की चादर के नीचे हमारे सारे पाप छिप नहीं जाते, क्योंकि मौसम की विकरालता में मानवीय दोष हमेशा परिलक्षित होते हैं। घूंघट ओढ़कर मौसम को देखना असंभव है और विकास के रिश्ते को बिना हिदायतों के जोड़कर भी क्षम्य नहीं हुआ जा सकता है। इस हमाम से समाज से सरकारी विभागों तक और उससे आगे हमारी नीतियों तक के दोष का निवारण आवश्यक है। हर बार मौसम के आगे हमारी लाचारी किसी सड़क, किसी खड्ड, किसी नदी या किसी पहाड़ को दोषी मान लेती है, लेकिन पूरे प्रदेश के विकास और विकास की जरूरतों को समझे बिना हम ऐसे हादसों से नहीं बच सकते। अब प्रश्न मौसम से बचने का भी नहीं रहा, बल्कि मौसम से बचाने का अधिक है।
हर जिला में बारिश के खतरों की अलग-अलग भौगोलिक परिस्थिति और विकास के गुण दोष हैं, तो इसी के मुताबिक आपदा प्रबंधन की मुस्तैदी, योजना व परियोजना भी चाहिए। उदाहरण के लिए पीछे एक बरसात ने नयना देवी की पहाड़ी को खतरे का जखीरा बना दिया, लेकिन आज तक मंदिर परिसर के बड़े भाग को बचाव की दृष्टि से सशक्त नहीं किया गया। पिछले साल धर्मशाला और शहर के आसपास की खड्डों ने भयंकर तबाही मचाई, लेकिन एक साल बाद भी हालात के जख्म रेत के ढेर पर सिसक रहे हैं। कुल्लू-मनाली के सफर की राह पर निकले पत्थर हर साल लौट आते हैं, लेकिन हम सलापड़ के पास ही सदियां खो देंगे। क्या हम किसी शहर या गांव की बनावट में बरसात के कहर से नहीं डरते। क्या हमें याद नहीं कि सोन खड्ड ने किस तरह धर्मपुर के बस स्टैंड को लगभग निगल लिया था। यहां हर नाले, हर खड्ड या हर दरिया का बरसाती मूड भयानक है, फिर भी हम इनके तटीकरण से वर्षों पीछे हैं या केवल योजनाएं बना कर राजनीति जोत रहे हैं।
हम बारिश को रोक नहीं सकते और न ही बादल के फटने की क्रिया को नियंत्रित कर सकते हैं, लेकिन बचाव के रास्ते तो खोज सकते हैं। जाहिर है हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने आपदा प्रबंधन पर जो सख्त हिदायतें दी हैं, उनका अब तक पालन हो जाना चाहिए था या विभाग कर्मठ होते तो अपने-अपने दायित्व से मौसम को संबोधित कर चुके होते। आश्चर्य तो यह कि पूरे हिमाचल में अतिक्रमण ने मौसम या बरसात की विकरालता बढ़ा दी है, फिर भी कार्रवाइयों के मकसद में न तो इजाफा और न ही ईमानदारी दिखाई देती है। प्राकृतिक जल स्रोतों, कूहलों, जल निकासी के रास्तों और प्रकृति के साथ हो रहे अतिक्रमण को रोके बिना हम आसमान के बिगड़े रुख को नहीं समेट सकते। कायदे से हर शहर के आपदा प्रबंधन के तहत बचाव के विकल्प तैयार होने चाहिए या बरसात की होल्डिंग कैपेसिटी के तहत सारे जल स्रोतों को सामाजिक व विभागीय जवाबदेही से जोड़ना पड़ेगा। शिमला में बरसात का एक युद्ध सीधे शहर के विस्तार और विकास से है। सोलन की भौगोलिक सीमा को लांघते अपार्टमेंट निर्माण के सबक हर बरसात को कोई आश्वासन नहीं दे पा रहे हैं, तो हमें समझना यह होगा कि आसमान से अगर एकसाथ सारे बादल जमीन पर उतर आए, तो हमारी तैयारी कैसी होनी चाहिए।
Rani Sahu

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