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- अब कहीं अधिक सुनियोजित...
यह धरना नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में दिया जा रहा था। हालांकि इस कानून को पारित करते समय संसद में और संसद के बाहर यह स्पष्ट किया गया था कि इसका किसी भारतीय नागरिक से कोई लेना-देना नहीं और यह तो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उन प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए है, जो वहां से जान बचाकर भारत आ चुके हैं।
बुद्धिजीवियों के एक तबके ने जानबूझकर किया दुष्प्रचार
यह नागरिकता देने का कानून था, न कि छीनने का, फिर भी कांग्रेस और कुछ अन्य दलों के साथ मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक तबके ने जानबूझकर यही दुष्प्रचार किया कि यह कानून भारतीय मुस्लिमों के खिलाफ है। लोगों को भड़काने के लिए इस कानून को एनआरसी से जोड़ा गया, जो केवल असम में लागू किया गया था और वह भी शीर्ष अदालत के आदेश पर। इस सुनियोजित दुष्प्रचार के कारण ही शाहीन बाग में नागरिकता कानून के विरोध में सड़क पर बैठे लोगों का दुस्साहस और बढ़ा। इसी के साथ देश के दूसरे हिस्सों में भी शाहीन बाग जैसे धरने होने लग गए।
धरना के चलते स्थानीय बच्चों का स्कूल जाना हो गया था दूभर
शाहीन बाग इलाके में जिस प्रमुख सड़क को घेर कर धरना दिया जा रहा था, उसका इस्तेमाल हर दिन लाखों लोग करते थे। सड़क पर कब्जा होने से लोगों को अपने गंतव्य तक पहुंचने में घंटों की देरी होती थी। धरने के कारण शाहीन बाग के दुकानदारों का व्यापार चौपट हो गया और स्थानीय बच्चों का स्कूल जाना दूभर हो गया, लेकिन प्रदर्शनकारियों और उन्हें समर्थन देने वालों के कान पर जूं नहीं रेंगी। उलटे कुछ और दल एवं संगठन अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने शाहीन बाग पहुंचने लगे।
दंगे भड़काने के लिए बाहर से पैसा आने का अंदेशा
ऐसे भी आरोप सामने आए कि धरने पर बैठे लोगों को पैसे दिए जाते थे। सच जो भी हो, इसमें दोराय नहीं कि धरने पर बैठे लोगों के दिमाग में सरकार के खिलाफ जहर घोलने का काम किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि ठीक उस समय भीषण दंगे हुए जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दिल्ली में थे। इससे देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर असहज होना पड़ा। इन दंगों की परतें खुल रही हैं और वे यही बता रही हैं कि किस तरह कुछ लोगों ने हिंसा फैलाने की साजिश रची। हैरानी नहीं कि जैसे दंगे भड़काने के लिए बाहर से पैसा आने का अंदेशा है, वैसे ही शाहीन बाग का धरना जारी रखने के लिए भी बाहर से धन आया हो। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि शाहीन बाग धरने और दिल्ली दंगों में जिस संगठन का नाम सामने आया, उसी का नाम हाथरस में हिंसा फैलाने की साजिश रचने के सिलसिले में आया है।
करीब डेढ़ सौ याचिकाएं सुनने को तैयार था उच्चतम न्यायालय
उच्चतम न्यायालय ने यह तो कह दिया कि सड़क पर धरना देना ठीक नहीं, लेकिन उसे इस पर भी कुछ कहना चाहिए था कि आखिर संसद से पारित कानून के खिलाफ ऐसा धरना कितना उचित था, क्योंकि ऐसे धरने देना तो एक तरह से कानून हाथ में लेना है। यह धरना इसके बाद भी दिया जा रहा था कि उच्चतम न्यायालय नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ दायर करीब डेढ़ सौ याचिकाएं सुनने को तैयार था। उच्चतम न्यायालय को सोशल मीडिया के साथ मीडिया के उस हिस्से की भूमिका पर भी गौर करना चाहिए था, जिसने लोगों को गुमराह किया। इस सवाल का जवाब भी मिलना चाहिए कि आखिर धरने पर बैठे लोगों से बात करने के लिए वार्ताकार क्यों नियुक्त किए गए? क्या इससे सड़क कब्जाने वालों का दुस्साहस नहीं बढ़ा?
बाहर से पैसे लाकर देश में अशांति फैलाने का सिलसिला नया नहीं है। यह दशकों से चला आ रहा है। पंजाब का खालिस्तानी आतंकवाद हो या कश्मीर का आतंकवाद अथवा मध्य भारत में सक्रिय नक्सलवाद, इन सबके पीछे बाहर से आए पैसे की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता।
कई संगठनों को विदेशी चंदा मिलने की अनुमति हुई रद
राष्ट्रीय जांच एजेंसी के मुताबिक भीमा कोरेगांव की हिंसा में पकड़े गए लोगों के तार नक्सली संगठनों से जुड़े हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं, जिन्हें बाहर से भी मदद मिल रही थी। ऐसे तत्वों पर लगाम लगाने के लिए ही हाल में भारत सरकार ने कई संगठनों को विदेशी चंदा मिलने की अनुमति रद की है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि अब असहमति दर्ज कराने और राजनीतिक आंदोलन चलाने के नाम पर देश में अशांति और अराजकता फैलाने का काम कहीं अधिक सुनियोजित तरीके से होने लगा है।
व्यापारी और किसान के बीच के करार का एक प्रारूप भी कृषि मंत्रालय बना रहा है।
वंचित वर्गों में अलगाव की भावना पैदा कर हिंसा फैलाने का काम
छोटी-छोटी घटनाओं को लेकर धरना- प्रदर्शन के जरिये सड़कों पर अराजकता की जाती है। ऐसे आयोजनों को राजनीतिक- गैर राजनीतिक संगठन समर्थन देने दौड़े चले आते हैं। वे सत्तारूढ़ दलों को दलित, आदिवासी विरोधी करार देने में समय नहीं गंवाते। उन्हें इसमें कामयाबी इसलिए मिल जाती है, क्योंकि वंचित एवं पिछड़े वर्गों के साथ अन्याय-उत्पीड़न की घटनाएं सामने आती ही रहती हैं। नि:संदेह ऐसी घटनाएं रुकनी चाहिए, लेकिन यह खतरनाक है कि उनकी आड़ लेकर वंचित वर्गों में अलगाव की भावना पैदा करने हिंसा फैलाने और विभिन्न वर्गों में वैमनस्य बढ़ाने का काम किया जाए। फिलहाल ऐसा ही हो रहा है।
भारत ने टीकाकरण में प्रगति की है।
यह एक नए तरह की किंतु बेहद खतरनाक राजनीति है। इसमें पहले झूठे आरोपों के जरिये सोशल मीडिया पर तूफान खड़ा किया जाता है, फिर सड़कों पर अराजकता फैलाई जाती है। यह सिर्फ भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में हो रहा है। सोशल मीडिया इस अराजक राजनीति का खास हथियार है। उच्चतम न्यायालय ने सही कहा कि हम इंटरनेट के दौर में जी रहे हैं, जहां लोग डिजिटल माध्यम से बिना नेतृत्व के ही एकजुट होकर आंदोलन का स्वरूप देने में सक्षम हो गए हैं। चूंकि सोशल मीडिया का बेजा इस्तेमाल हो रहा है, इसलिए उस पर नियंत्रण के तौर-तरीके विकसित करने होंगे। इसलिए और भी, क्योंकि सोशल मीडिया कंपनियां गंभीरता का परिचय नहीं दे रही हैं। वे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के अनुचित इस्तेमाल के साथ इस तकनीक का दुरुपयोग होने भी दे रही हैं। इसके चलते जो माध्यम जानकारी पाने, संवाद करने और अपनी बात पहुंचाने का जरिया है, वह अब कई समस्याएं खड़ी कर रहा है।