सम्पादकीय

अब सुधारों पर मंथन

Gulabi
11 Dec 2021 3:49 AM GMT
अब सुधारों पर मंथन
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यह राहत की बड़ी ख़बर है कि किसान आंदोलन को स्थगित कर दिया गया है
दिव्याहिमाचल.
यह राहत की बड़ी ख़बर है कि किसान आंदोलन को स्थगित कर दिया गया है। राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर धरनों के तंबू उखडऩे शुरू हो गए हैं। अराजकता, असंतोष और टकराव का दौर फिलहाल समाप्त हो गया है। किसान और उनके हमदर्द खुश हैं और जश्न मनाते अपने-अपने घर लौट रहे हैं। इसे न तो किसानों की जीत करार दिया जाए और न ही भारत सरकार की पराजय माना जाए। यह दोनों पक्षों के लिए सीख का समय है। कमोबेश भारत सरकार को अब व्यापक कृषि सुधारों पर मंथन शुरू करना चाहिए। सिर्फ विवादास्पद कानून बनाना ही सुधारों की बुनियाद नहीं है, बल्कि किसानों और उनसे जुड़े क्षेत्रों की भी स्वीकृति जरूरी है। अब तक के आंदोलन का निष्कर्ष यही है।
सरकार को विमर्श करना चाहिए कि जिस क्षेत्र की हिस्सेदारी देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 40-42 फीसदी थी, वह आज 15 फीसदी से भी कम क्यों हो गई है? किसान बहुत बड़ी संख्या में खेती छोड़ कर मजदूर बनकर शहरों की ओर पलायन करने को विवश क्यों हैं? क्या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के निर्देशानुसार हमारा देश चलेगा? किसान गांव छोड़ कर शहर में मजदूर बनने निकलेंगे, तो शहरों पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी। चूंकि भारत सरकार ने आंदोलित किसानों की सभी बुनियादी मांगें मान ली हैं। कृषि सचिव संजय गोयल के लेटरहैड पर लिखित आश्वासन भी जारी कर दिए गए हैं, तो अब सरकार को कृषि सुधारों पर व्यापक चिंतन-मनन करना चाहिए। यह समय की जबरदस्त ज़रूरत है। सरकार ने 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी। उनके सूत्रधार तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे। ऐसे सुधारों की घोषणा और उनके क्रियान्वयन की शुरुआत की गई थी कि वे आज भी जारी हैं। उनकी विपरीत सरकारों ने भी आर्थिक सुधारों को स्वीकार किया और लागू किया।
वे सामूहिक फैसले थे और देश कजऱ् तथा आर्थिक विपन्नता से बाहर आना चाहता था। देश लालफीताशाही और इंस्पेक्टरी राज से आतंकित था, लिहाजा खुली अर्थव्यवस्था, निजीकरण और नरम सरकारी तंत्र का स्वागत किया गया। इन तमाम प्रयासों का ही नतीजा है कि आज भारत 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के करीब है और विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है। अब किसानों की सबसे महत्त्वपूर्ण मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की है। सरकार ने एक कमेटी बनाने का वायदा किया है। 1967 के बाद पहला प्रयास होगा कि भारत सरकार, राज्य सरकारें, कृषि विशेषज्ञ और किसान एक ही मंच पर साझा विमर्श करेंगे और कृषि उत्पादों के मूल्य निर्धारण की गारंटी तय करेंगे। एमएसपी का गारंटी कानून, किसानों की सोच के मुताबिक, संभव होगा अथवा नहीं, हम अभी से कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते, लेकिन किसानों की आमदनी और अर्थव्यवस्था बढ़ानी हैं, तो फसलों के दाम कानूनी दायरे में करने पड़ेंगे। कुछ विशेषज्ञों के आकलन हैं कि इससे 1.5 लाख करोड़ रुपए से 3 लाख करोड़ रुपए तक का फायदा किसानों को हो सकता है। यदि प्रधानमंत्री मोदी कमोबेश 2024 तक भी किसान की आय में बढ़ोतरी का सिलसिला शुरू करा पाते हैं, तो उनका राजनीतिक वायदा भी पूरा होने लगेगा और कृषि के कारण अर्थव्यवस्था की विकास-दर भी बढ़ सकेगी। नतीजतन बाज़ार में किसानों के जरिए मांग और खपत के भी विस्तार होंगे। अंतत: लाभ सरकार के ही पक्ष में होगा।
हालांकि हम इसके पक्षधर नहीं हैं कि सरकार बाज़ार के नियमन के साथ-साथ उत्पादों के दाम भी तय करे। यह सरकार का संवैधानिक काम नहीं है, लेकिन अब यह एक व्यापक आंदोलन की मांग है। सरकार को ऐसे विरोध को शांत करना ही चाहिए। एक ताकतवर लॉबी है, जो एमएसपी की गारंटी के पक्ष में नहीं है। उसकी दलील है कि उससे अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी में बाधा आएगी। वर्ष 2000 से 2015 के बीच विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारें रही हैं, लेकिन किसानों को करीब 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा है, क्योंकि औसतन किसान को उसकी फसल पर एमएसपी ही नहीं मिला। किसान इस देश की करीब 50 फीसदी आबादी हैं, ऐसे वर्ग की मांग को खारिज नहीं किया जा सकता।
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