सम्पादकीय

उपन्यास: Part 9- 20 मिनट

Gulabi Jagat
17 Sep 2024 1:14 PM GMT
उपन्यास: Part 9- 20 मिनट
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Novel: माँ के पैरों की मालिश बहुत देर तक करनी होती थी। कुछ एक्सरसाइज भी करवाने होते थे। माँ को 3 प्रकार की दवाइयां दी जा रही थी, सुबह जड़ी बूटी का रस, फिर कुछ घंटे बाद शुगर के लिए होमियोपैथी जो कि 10 साल से मां ले रही थी और शुगर कंट्रोल भी रहता था फिर एलोपेथी दवाई जो डॉक्टर से लेकर आई थी, घुटनों को ठीक करने के लिए। अब एक जड़ी और जुड़ गई उसमे जो हड्डी को जोड़ने के लिए दिए जाते थे, क्योंकि बॉल की स्थिति भयावह थी। हर हफ्ते या 15 दिन में माँ का शुगर चेक करना होता था। खाने का भी विशेष ध्यान रखना होता था।
मिनी से माँ की हालत देखी नही जाती थी। उसे लगता था कि मैं चाहे जितना भी काम करूँ पर कम से कम चलती-फिरती तो हूँ । एक बुजुर्ग महिला बिस्तर में 7 महीने से तड़प रही है, आखिर उनके ऊपर क्या बीत रही होगी ? वो भी मेरी माँ । ये सोच-सोचकर मिनी तड़प जाती थी। शिकायत करे भी तो किससे ? जितना बिगड़ना था वो तो बिगड़ ही चुका था। जिस दिन से मां को लेकर आई थी उस दिन से केवल फिजियोथेरेपिस्ट के सामने ही भैया से बात हुई थी। उसके बाद कभी न उनका फोन आता था न ही मिनी की हिम्मत हुई कि उन्हें कुछ बताए।
घुटने को सीधे करने के लिए मां को हाई डोज़ के इंजेक्शन भी हफ्ते-हफ्ते में लगवाने होते थे। मिनी का हौसला चरम स्थिति में था। उसे लगता था बस एक बार मां के पैर सीधे हो जाय फिर वो ऑपरेशन करवा के रॉड डलवा के कैसे भी मां को चलने फिरने की स्थिति में ले आएगी।
मिनी का दिन रात सिर्फ और सिर्फ मां के खयाल में ही बीतता था और सिर्फ खयाल ही नही उसे अपने बाकी काम भी ईमानदारी से करने होते थे। उसे इस बात का डर होता था कि अगर मैं 20 मिनिट के अंदर स्कूल नही पहुँच पाई तो अगले दिन से वो भी सुविधा नही मिलेगी फिर मां का क्या होगा ये सोचकर वो हर हाल में 20 मिनिट के अंदर स्कूल पहुच ही जाती थी। इस 20 मिनिट के अंदर स्कूटी से 1 km की दूरी तय करके घर आना, 3 ताले खोलना, मां की जरूरते पूरी करना, अगर मां का बिस्तर खराब हो गया है तो उसे साफ करना, अगर तबियत सही नही तो दवाइयां देना, मां को पानी वगैरह दे के फिर से 3 ताले लगाकर स्कूल पहुचना होता था।
चाहे कड़कती धूप हो, चाहे बरसता पानी हो, चाहे कुछ भी हो उसे मां के पास हर हाल में पहुचना होता था। कभी मां की हालत देखी नही जाती थी तो आँसुओ की झड़ी लग जाती थी। अब तो स्कूल से आना और जाना भी आँसुओ की बरसात के साथ होता था। आते वक्त लगता था पता नहीं मां किस हाल में होगी, और जाते वक्त लगता था ये मां की क्या हालत हो गई? समझ नही आता था कि जिस महिला के काम को देखकर सारे लोग दंग रहते थे, कभी उनकी ऐसी हालात भी होगी ये समझ से परे था।
एक दिन ऐसा भी था जब मां पूरे मोहल्ले के लोगों के घर का पापड़ बनवा के आती थी। बड़ी, बिजौरी, अरसा, देहरौरी , चिप्स, चाकोली, अचार, लाइबरी, रखिया पपची, पेठा, सलोनी, खाजा, पपची, मां से जो बनवा लो ,उन्हें कभी आलस नही आता था। मां कभी बैठकर रह ही नही पाती थी। घर की पूरी सफाई अपने हाथो से करने के बाद भी मां इतने काम आसानी से कर लेती थी। ये सारी बातें अब बीती हुई बाते हो चुकी थी और जो वर्तमान था वो कितना भयावह था। मिनी की आँखे जब चाहे तब बरसने लगती थी, और जब चाहे तब स्तब्ध हो कर आंसू रुक भी जाते थे। वो जीवन के किस दौर से गुज़र रही थी जहां अपनी मां को तड़पते देखने के अलावा कोई और रास्ता नही था। आखिर मां के सामने वो रो भी नही सकती, न ही अपने पति और बच्चों के ही सामने रो सकती ,न ही वो किसी को ये सच्चाई बता सकती परंतु रास्ते में जरूर आँसू टपका सकती थी क्योकि रास्ते में जो भावनाएं मां से मिलकर आने से मचलती तो आँसू भी तड़प कर आखों से बाहर आते थे।.......................क्रमशः

रश्मि रामेश्वर गुप्ता

बिलासपुर छत्तीसगढ़

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