सम्पादकीय

उपन्यास: Part 11- घना जंगल

Gulabi Jagat
19 Sep 2024 11:00 AM GMT
उपन्यास: Part 11- घना जंगल
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Novel: फरवरी का महीना बीत गया, मार्च का महीना बीत गया, अब माँ को बिस्तर पर रहते 8 महीने हो चुके थे। साल तो कब का बदल चुका था। जिन्हें भी पता चलता कि मां की तबियत सही नही तो जरूर घर आते । मां से मिलते, बातें करते । मां को भी अच्छा लगता था। माँ के घुटने बिल्कुल लोहे जैसे स्थिति में थे जो सीधे होने का नाम ही नही लेते थे। अगर मिनी को माँ के बिस्तर का चादर भी बदलना होता था तो धीरे से मां को एक तरफ करवट दिला कर दूसरी तरफ का चादर बदलती फिर दूसरी तरफ करवट दिलाकर पहली तरफ चादर बिछाती। ऐसे ही बिस्तर पर मां के नित्य कर्म, मां को ब्रश करवाना, मां को नहलाना , मां के बालों को धोना सब कुछ बिस्तर पर ही करना होता था। बिल्कुल बच्चों की भांति परंतु मां बच्ची नही थी। नहलाकर मालिश करना। खाना खिलाना , दवाइयां देना सब कुछ नियम से हो रहा था। न ही मां के पैर सीधे हो रहे थे न ही मिनी हार मानने को तैयार थी।
एक दिन पतिदेव के मित्र जिन्हें ये अपना छोटा भाई मानते है और मिनी को भी वो बिल्कुल छोटे भाई की तरह ही लगते हैं , अपने पिता जी के साथ घर आये। उनके पिता जी को नाड़ी का ज्ञान था। उन्होंने मां की नाड़ी को देखकर बताया कि मां बिल्कुल स्वस्थ है और मां के लिए और भी कुछ किया जा सकता है। बिल्कुल घरेलू सम्बन्ध होने के कारण उन्होंने पतिदेव को बताया कि आपको थोड़ा सा कष्ट और उठाना होगा। यहां से लगभग 50 कि.मी. की दूरी पर एक गांव है, वहां जाने के लिए आपको घना जंगल पार करना होगा। रास्ता सुनसान होता है इसलिए आपको सावधानी रखनी होगी। वहाँ एक वैद्य रहते हैं। उनसे आपको दवाई पूछनी होगी। हो सकता है उस दुर्लभ दवाई से मां के घुटने सही हो जाए।
शुक्र है कि पतिदेव अधिकारी के पद पर रहे तो उन्हें आसपास के हर रास्ते का ज्ञान था। दूसरे दिन सुबह बाईक से मिनी पति के साथ वैद्य के पास जाने के लिए निकली। जैसे -जैसे गांव के पास आते गए जंगल की सघनता बढ़ती चली गई। बिल्कुल सुनसान जगह। ऐसा जंगल लाइव मिनी ने इस तरह खुद सफर करते हुए पहली बार देखा था। अप्रेल का महीना था । महुए पेडों से झर रहे थे। पतिदेव बताते हुए जा रहे थे -"मिनी! आपको पता है, हमे यहां से जल्दी निकलना होगा।"
मिनी ने पूछा- "क्यों ?"
पतिदेव ने कहा - "ये पेड़ देख रही हो, इसके नीचे महुए झरते हैं, जिसकी खुशबू से इन्हें खाने के लिए यहां भालू नीचे उतरते हैं।"
मिनी को सुन के डर लग गया। उसने तो कभी महुए के पेड़ को नज़दीक से देखा भी नही था। उसके मुँह से सहसा निकल गया- "बापरे!"
फिर आगे कहने लगे - "वैसे डरने की बात नहीं है, क्योकि अधिकांश महुए तो अब तक झर चुके होंगे पर यहाँ कभी-कभी शेर भी आते हैं।"
मिनी की आंखे डर में फैलती जा रही थी। जंगल की सघनता बढ़ती चली जा रही थी। अब तो पहाड़ी भी दिखाई देने लगे थे। बिल्कुल सुना रास्ता। मिनी की तो हालत डर में खराब होती चली जा रही थी। उसे लग रहा था कि ये कितने अच्छे हैं। ऐसे दुर्गम स्थान पर भी आने को तैयार हो गए। इनके मन में मां के प्रति कितना प्रेम है, ये जानकर मिनी मन ही मन द्रवित होने लगी।
दोनो जंगल की खूबसूरती भी निहारते जा रहे थे। कभी भय होता था , कभी किसी दृश्य को देखकर आनंद आ रहा था पर बाईक से नीचे उतरने की भूल बड़ी रिस्की हो सकती थी क्योकि वहाँ सही में जंगली जानवरो का खतरा था और सबसे बड़ी बात कि वहाँ आस-पास मदद करने के लिए चीखने से भी किसी के आने की दूर-दूर तक कोई संभावना नही थी।........................ क्रमशः
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