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भोपाल के अलावा बैतूल जिले के मुल्ताई थाने में भी इसी संबंध एफआईआर दर्ज कराई गई है।
गणतंत्र दिवस के दिन किसानों की ट्रैक्टर परेड के दौरान हुई हिंसा को भड़काने का आरोप लगाते हुए छह पत्रकारों और कांग्रेस के सांसद शशि थरूर के खिलाफ उत्तर प्रदेश के नोएडा और मध्य प्रदेश के भोपाल में राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कराया गया है। नोएडा में वरिष्ठ पत्रकारों और थरूर के खिलाफ दर्ज मुकदमे में आंदोलन में हिंसा भड़काने, आपत्तिजनक और भ्रामक खबरें फैलाने का आरोप लगाया गया। भोपाल के अलावा बैतूल जिले के मुल्ताई थाने में भी इसी संबंध एफआईआर दर्ज कराई गई है। नोएडा में दर्ज मामले में कहा गया है कि इन लोगों ने गलत सूचना सोशल मीडिया पर डाली और दंगा भड़काने की साजिश की। तो यह सीधा राजद्रोह है! वह भी तब जबकि एक पत्रकार ने अपने ट्विट में सुधार कर लिया था।
पुलिस ने जो कहा उसे भी अपने ट्विटर पर डाल दिया था। प्रश्न यह है कि गणतंत्र दिवस के दिन जो हिंसा हुई, उस दिन जिस तरह कई तरह की खबरें आ रही थी, उस माहौल में किसी पत्रकार ने अगर कोई ऐसा ट्वीट कर दिया, जो मान लिया जाए कि तथ्यात्मक नहीं था, तो भी क्या उसे किसी खास साजिश का हिस्सा समझा जाना चाहिए? क्या यह दुर्भाग्य की बात नहीं है कि राजद्रोह से संबंधित कानून का सरकार इस तरह इस्तेमाल करें। यहां मुद्दा यह नहीं है कि ऐसा करने वाली सरकार किस पार्टी की है। बेशक, ऐसे मामले पहले भी हुए थे। लेकिन क्या उसका संदेश यह होना चाहिए कि ऐसा हमेशा जारी रहेगा?
इसलिए इन मुकदमों के बारे में एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के इस बयान से सहमति जताई जा सकती है कि ये एफआईआर "डराने-धमकाने, प्रताड़ित करने और दमन" का प्रयास हैं। इसलिए ये मांग जायज है कि एफआईआर तुरंत वापस लिए जाएं और मीडिया को बिना किसी डर के आजादी के साथ रिपोर्टिंग करने की इजाजत दी जाए। आरोपी पत्रकारों का कहना है कि प्रदर्शन वाले दिन घटनास्थल पर मौजूद चश्मदीदों और पुलिस की ओर से अनेक और परस्पर विरोधी सूचनाएं मिली थीं। पत्रकारों के लिए यह स्वाभाविक बात थी कि वे इन जानकारियों की रिपोर्ट करें। इसमें कुछ भी असामान्य नहीं था- खासकर अगर बाद में गलती सुधार ली गई, तब इस मसले को इतनी अहमियत देने की जरूरत नहीं थी। लेकिन यह आम समय नहीं है, तो फिर सामान्य की अपेक्षा रखना भी शायद बेबुनियाद है।
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