सम्पादकीय

बंगाल चुनाव में 'सोनार बांग्ला' और 'जय बांग्ला' बात कहने की नहीं, करने की है

Gulabi
20 March 2021 3:13 PM GMT
बंगाल चुनाव में सोनार बांग्ला और जय बांग्ला बात कहने की नहीं, करने की है
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खड़गपुर की रैली में प्रधानमंत्री ने कहा कि ये चुनाव सिर्फ मंत्री, मुख्यमंत्री को बदलने का चुनाव नहीं है, बल्कि

खड़गपुर की रैली में प्रधानमंत्री ने कहा कि ये चुनाव सिर्फ मंत्री, मुख्यमंत्री को बदलने का चुनाव नहीं है, बल्कि सोनार बांग्ला के निर्माण का संकल्प है. बीजेपी के दूसरे स्टार प्रचारक भी लगातार कह रहे हैं कि बंगाल को सोनार बांग्ला बना देंगे. पिछले महीने बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तो 'लक्खो सोनार बांग्ला' के नाम से पार्टी का कैंपेन भी लॉन्च किया, जिसका मतलब हुआ 'बंगाल को सोनार बांग्ला बनाना है'.


ये हमारे दौर की राजनीतिक विडंबना है कि हमें या तो स्वर्णिम इतिहास की ओर पलट कर देखने को कहा जाता है, या फिर 'स्वर्ण मृग' की ओर उंगली दिखाकर उसे पकड़ लाने का दावा किया जाता है. हम जाने-अनजाने सोने के उस काल्पनिक शहर एल्डोराडो (El Dorado) की भी तलाश करते हैं, जो अपने होने का निरर्थक भ्रम पैदा करता है. लेकिन, इतिहास को दोहराने के भ्रम में हम ये भूल जाते हैं कि कई बार बीता हुआ कल हमें निर्देशित भी करता है. तो क्या वाकई इतिहास हमें इस वक्त कोई निर्देश दे रहा है?
ओ मां, आषाढ़ में फूले धान के खेत!
1905 में अंग्रेजों ने 'बंग-भंग' यानी बंगाल का विभाजन किया. 1906 में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने 'आमार सोनार बांग्ला' की रचना की. गीत रचने का मकसद यही था कि दुनिया गांठ बांध ले, कोई भी भौगोलिक विभाजन बंगाल की आत्मा को विभाजित नहीं कर सकता.
गीत की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए.

"मेरा प्रिय बंगाल
मेरा सोने जैसा बंगाल,
मैं तुमसे प्यार करता हूं
सदैव तुम्हारा आकाश,
तुम्हारी वायु
मेरे प्राणों में बांसुरी सी बजाती हैं
ओ मां,
वसंत में आम्रकुंज से आती सुगंध
मुझे खुशी से पागल करती है,
वाह, क्या आनंद!
ओ मां,
आषाढ़ में पूरी तरह से फूले धान के खेत,
मैने मधुर मुस्कान को फैलते देखा है
क्या शोभा, क्या छाया,
क्या स्नेह, क्या माया!
क्या आंचल बिछाया है
बरगद तले
नदी किनारे-किनारे!"

भाषा एक तरह का अनुराग पैदा करती है और ज़रूरत पड़ने पर क्रांति की मशाल भी बन जाती है. गुरुदेव का गीत 'आमार सोनार बांग्ला' ऐसा ही एक बंगाली अनुराग था, जो बंगाल के एकीकरण को साकार करने के लिए क्रांति की मशाल भी साबित हुआ और 6 वर्षों के बाद बंगाल एक हो गया. सन 1911 के दिसंबर महीने में दिल्ली में एक दरबार हुआ, जिसमें जॉर्ज पंचम के सामने ब्रिटिश हुकूमत ने एक राजकीय घोषणापत्र जारी किया और बंगाल के एकीकरण का आदेश पारित हो गया. 1947 में बंगाल फिर एक बार धार्मिक आधार पर विभाजित हो गया. 1972 में जब 'पूर्वी बंगाल' पाकिस्तान से निकलकर बांग्लादेश राष्ट्र बना तो उसने इसी 'आमार सोनार बांग्ला' को अपना राष्ट्रगान बनाया.

जब फुलर जा रहा था, तब कौन रोया?
इस घटनाक्रम में सबसे अफ़सोस की बात ये है कि बंटवारे का जो बीज 1905 में बोया गया, उसे विषवृक्ष बनने से नहीं रोका जा सका. जिस जोसेफ बैमफील्ड फुलर को पूर्वी बंगाल और असम प्रांत का पहला लेफ्टिनेंट गवर्नर बनाया गया, वो खुलेआम 'मुस्लिम तुष्टिकरण' के बोल बोलता था और 'स्वर्णिम मुगल काल' की वापसी के सपने दिखाता था. (ये वही फुलर था जिसे मारने की जिम्मेदारी युगांतर पार्टी ने क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी को दी थी. फुलर ने बाद में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान गैस अटैक का पता करने वाले अलार्म का अविष्कार किया) जब फुलर ने लेफ्टिनेंट गवर्नर का पद छोड़ा तो उसके समर्थन में ऐसे मुस्लिम संगठनों ने प्रदर्शन भी किए, जो बंगाल विभाजन के हक में थे. साफ था बंगाल में एक तरफ 'आमार सोनार बांग्ला' गाया जा रहा था, दूसरी ओर विभाजन की विषबेल पनपने लगी थी.

पश्चिम बंगाल की राजनीति रैलियों में 'आमार सोनार बांग्ला' के जवाब में 'जय बांग्ला' को हथियार बनाया जा रहा है. तृणमूल कांग्रेस ने जब चुनावी सभाओं में 'जय बांग्ला' बोलना शुरू किया तो बीजेपी ने ये कहते हुए आपत्ति जताई कि ये तो बांग्लादेश का नारा है.

आचार वही, जो अत्याचार के विरुद्ध हो
दरअसल, 'जय बांग्ला' का नारा धार्मिक कट्टरता के धुर विरोधी रहे बांग्ला के 'विद्रोही कवि' काज़ी नज़रूल इस्लाम की कविता 'पूर्ण अभिनंदन' से लिया गया है. 1922 में लिखी गई इस कविता में एक जगह कहा गया है- 'जोय बांग्लार पूर्णोचंद्रो' यानी बंगाल के पूर्णचंद्र समान युवा तुम्हारी जय हो. इसी तरह 1942 के अपने एक लेख में नज़रूल लिखते हैं- बंगाल बंगालियों का है, बंगाल की जय हो, बंगालियों की जय हो.

नज़रूल ने अपनी कविता में साम्राज्यवाद और विदेशी अत्याचारियों के विरुद्ध लिखा. बांग्लादेश ने बाद में 'जय बांग्ला' को अपनी आज़ादी का नारा ज़रूर बनाया, लेकिन इसकी बुनियाद में अविभाजित भारत का संघर्ष ही था. इसलिए 'जय बांग्ला' के नारे को बांग्लादेशी बताकर इसे ख़ारिज करना उचित नहीं है.

'पंजाब सिंधु गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंग'
रविंद्रनाथ टैगोर का जन्म 1861 में हुआ. काज़ी नज़रूल इस्लाम 1899 में पैदा हुए. दोनों बांग्ला अस्मिता के प्रतीक भर नहीं हैं, बल्कि युगांतरकारी असर डालने वाले अमर रचनाकार हैं. रैलियों और राजनीति में उनके शब्दों का इस्तेमाल सिर्फ दिखावे के लिए नहीं होना चाहिए. बात शब्दों की नहीं, उनकी आत्मा को समझने की होती है. 'आमार सोनार बांग्ला' की रचना करने वाले गुरुदेव ने 'जन-गण-मन' भी लिखा. जब वो 'पंजाब सिंधु गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंग' लिखते हैं तो आज के दौर के लिए सबक ये है कि गुजरात कभी बंगाल के लिए 'बाहरी' नहीं हो सकता.

अच्छा होता कि चुनाव को नज़दीक देख अचानक 'मंदिर मार्ग' की ओर मुड़ जाने वाले नेतागण इस होली पर काज़ी नज़रूल इस्लाम की ये कविता अपने मंच से पढ़ते-

'अगर तुम राधा होते श्याम,
मेरी तरह बस आठों पहर तुम,
रटते श्याम का नाम.
चुपके-चुपके तुमरे हिरदय में
बसता बंसीवाला,
और, धीरे-धीरे उसकी धुन से
बढ़ती मन की ज्वाला.
पनघट में नैन बिछाए तुम,
रहते आस लगाए
काले के संग प्रीत लगाकर
हो जाते बदनाम.'

विवेकानंद को भुनाइए मत, अपनाइए
गुरुदेव का 'सोनार बांग्ला' और नज़रूल का 'जय बांग्ला' परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं. इसी बंगाल से निकलकर पूरी दुनिया को चमत्कृत कर दने वाले विवेकानंद ने कहा था कि 'जब तक करोड़ों लोग भूखे और वंचित रहेंगे तब तक मैं हर उस आदमी को गद्दार मानूंगा, जिसने गरीबों की कीमत पर शिक्षा तो हासिल की लेकिन, उनकी चिंता बिल्कुल नहीं की.' काश, चुनावी आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले मज़दूरी बढ़ाने की घोषणा करने वाली 'समझदार' सरकारें 'आमार सोनार बांग्ला' की ये पंक्ति समझ पातीं-

'मां, तोर बोदोनखानी मोलीन होले,
आमि नोयन जोले भाशी'

यानी 'मां, जब उदासी तुम्हारे चेहरे पर आती है, तो मेरी आंखें भी आंसुओं से भर आती हैं.'


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