- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- परिवारवाद का रोग सिर्फ...
परिवारवाद का रोग सिर्फ कांग्रेस तक ही नहीं, कई अन्य दल भी जनसेवा के नाम पर दे रहे हैं बढ़ावा
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | अजय झा | लगभग सभी शहरों में ऐसी दुकान देखने को मिल ही जाती है जिसके साइन बोर्ड पर आपको लिखा दिखेगा कि वह दुकान सैकड़ों सालों से चल रही है. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी और फिर तीसरी पीढ़ी को इसके लिए तैयार किया जाता है और वह दुकान चलती रहती है. दिल्ली के चांदनी चौक और जामा मस्जिद के इलाके में तो ऐसी दुकानों की भरमार है, खासकर जहां खाने पीने का सामान मिलता है. पीढ़ियों से उनका अलग स्वाद और मसालों का सीक्रेट फॉर्मूला लोगों को इतना भाता है कि खाने वाले उंगलियां चाटते दिखते हैं. इसके अलावा कपड़ों की दुकान और सोने-चांदी के गहनों की भी खानदानी दुकान होती है. ग्राहकों का उन दुकानों पर अन्य दुकानों के मुकाबले ज्यादा विश्वास होता है.
लेकिन क्या खानदानी नेताओं पर भी लोगों का ज्यादा विश्वास होता है? यह सवाल इसलिए क्योंकि भारतीय राजनीति में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जो अपने जीवन काल में अपने परिवार से ही अपने उत्तराधिकारी को चुन लेते हैं और पार्टी की कमान अपनी अगली पीढ़ी को सौंप देते हैं. आईये एक नज़र डालते हैं ऐसी पार्टियों और खानदानी नेताओं पर.
मोतीलाल नेहरू से शुरू होती है देश में परिवारवाद की जड़
जब राजनीति में बात परिवार को बढ़ावा देने की हो तो इसमें सबसे ऊपर कांग्रेस पार्टी (Congress Party) का नाम आता है. कांग्रेस पार्टी का गठन 1885 में हुआ और पहली बार इलाहाबाद (जो अब प्रयागराज हो गया है) के मशहूर वकील मोतीलाल नेहरु 1919 में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए. उस समय मोतीलाल नेहरु को आभास भी नहीं रहा होगा कि एक दिन कांग्रेस पार्टी पर सिर्फ उनके परिवार का ही आधिपत्य होगा और उनकी पांचवी पीढ़ी भी पार्टी अध्यक्ष बनेगी. नौ वषों के अंतराल में बाद मोतीलाल नेहरु दोबारा 1928 में अध्यक्ष चुने गए और अगले वर्ष 1929 में परिवारवाद की विधिवत नीव पड़ गयी, जब मोतीलाल के पुत्र जवाहरलाल नेहरु को अध्यक्ष चुना गया. फिर 1936 और 1937 में जवाहरलाल नेहरु लगातार दो बार अध्यक्ष चुने गए. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शुरू के वर्षों में नेहरु सरकार चलाने में व्यस्त रहे और पार्टी अध्यक्ष कोई और होता था. पर 1951 में नेहरु ने एक व्यक्ति एक पद के नियम की अवहेलना करते हुए खुद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बन गए और इस पद पर लगातार चार वर्षों तक रहे.
नेहरू के बाद इंदिरा ने थामी कांग्रेस की कमान
जैसे मोतीलाल नेहरु ने अपने बेटे जवाहरलाल को राजनीति में आगे बढ़ाया, ठीक उसी तरह जवाहरलाल नेहरु ने अपनी बेटी इंदिरा गांधी को. इंदिरा पहली बार 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष बनीं. 1964 में जवाहरलाल नेहरु की मृत्यु के बाद लगने लगा था कि परिवारवाद का पूर्ण विराम लग जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं. नेहरु के बाद लालबहादुर शास्त्री भारत के दूसरे प्रधानमंत्री बने. नेहरु की मृत्यु के बाद शास्त्री प्रधानमंत्री बने और उनकी सरकार में इंदिरा गांधी को केन्द्रीय मंत्री बनाया गया. दुर्भाग्यवश प्रधानमंत्री पद पर शास्त्री मात्र 19 महीने ही रहे और उनकी रहस्यमय ढंग से ताशकंद में मौत हो गई. शास्त्री के बाद 1966 में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं और इंदिरा गांधी की पार्टी पर कब्ज़ा करने की चाह के कारण 1967 में कांग्रेस पार्टी का विभाजन हो गया.
अब प्रियंका गांधी के बेटे रेहान की बारी है
इंदिरा गांधी मजबूत होती गयीं और सरकार तथा पार्टी पर उनका शिकंजा कसता चला गया. वह खुद प्रधानमंत्री रहीं और उनके करीबी कांग्रेस अध्यक्ष बने. इमरजेंसी के बाद 1977 में कांग्रेस पार्टी पहली बार चुनाव हारीं. चूंकि वह अब प्रधानमंत्री नहीं थीं, लिहाजा 1978 में इंदिरा गांधी ने पार्टी की कमान अपने हाथों में ले ली. 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई पर वह कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर अपने आखिरी दिनों तक बनी रहीं. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी और उसके बाद एक व्यक्ति दो पद का सिलसिला इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी ने आगे बढ़ाया.
इंदिरा गांधी ने पहले अपने छोटे बेटे संजय गांधी को अपना उत्तराधिकारी बनाया था. अगर 1980 में संजय गांधी की एक हवाई दुर्घटना में मृत्यु नहीं हुई होती तो राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी शायद राजनीति में आते ही नहीं. इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बने, 1989 में कांग्रेस पार्टी एक बार फिर से चुनाव हार गयी पर राजीव गांधी 1991 में अपनी मृत्यु तक कांग्रेस अध्यक्ष बने रहे.
अगले सात वर्षों तक नेहरु-गांधी परिवार का कोई सदस्य ना तो प्रधानमंत्री था ना ही कांग्रेस अध्यक्ष
सोनिया गांधी का पद के लिए लालच तब सामने आया, जब पार्टी में उनके खास लोगों ने बगावत कर दी और पार्टी अध्यक्ष सीताराम केसरी को पहले बाथरूम में बंद करने और उसके बाद कांग्रेस मुख्यालय से खदेड़ कर सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया. सोनिया गांधी ने रिकॉर्ड कायम किया और लगातार 19 वर्षों तक 1998 से 2017 तक कांग्रेस अध्यक्ष पद पर रहीं. सोनिया गांधी ने एक नियोजित तरीके से अपने बेटे राहुल गांधी को राजनीति में आगे बढ़ाया. राहुल 2004 में सांसद चुने गए और पार्टी में पहले उन्हें महासचिव और फिर उपाध्यक्ष पद दिया गया. 2017 में सोनिया गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे कर राहुल गांधी को गद्दी सौंप दी. परन्तु 2019 का चुनाव हारने के बाद, जिसमें राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के खिलाफ प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे, राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया.
पिछले लगभग दो वर्षों से सोनिया गांधी कांग्रेस पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष हैं और तैयारी है कि राहुल गांधी को एक बार फिर से वह पार्टी की कमान सौंप दें. अगर राहुल गांधी फिर से 2024 के चुनाव में कांग्रेस को जीत दिलाने में विफल रहे और फिर से वह कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देंगे तो उनकी जगह उनकी छोटी बहन प्रियंका गांधी को दुकान की गद्दी, माफ़ कीजिएगा, कांग्रेस पार्टी की कमान मिलेगी. चूंकि राहुल गांधी कुंवारे हैं, इसलिए प्रियंका गांधी के बेटे रेहान वाड्रा की ट्रेनिंग भी अभी से शुरू हो गयी है. रेहान वाड्रा का नाम अब रेहान राजीव वाड्रा कर दिया गया है, ताकि लोगों को पता रहे कि वह नेहरु-गांधी परिवार की छठी पीढ़ी हैं.
जम्मू-कश्मीर से पंजाब तक है परिवारवाद की दुकान
एक परिवार द्वारा किसी दुकान की तरह पार्टी को चलाना जहां एक पीढ़ी के बाद अगली पीढ़ी गद्दी संभाल लेती है, यह सिर्फ कांग्रेस पार्टी तक ही सीमित नहीं है. जम्मू और कश्मीर में कांग्रेस पार्टी से अलग हो कर शेख अब्दुल्ला ने अपनी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस बनायी जिसमे उनके बाद उनके पुत्र फारूख अब्दुल्ला और उनके बाद फारुख के बेटे उमर अब्दुल्ला पार्टी अध्यक्ष रहे. तीनों राज्य के मुख्यमंत्री भी रहे. उन्हीं की तरह कांग्रेस पार्टी से अलग हो कर मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने पीडीपी नामक अपनी पार्टी बनायी जिसके वह अध्यक्ष रहे और उनके बाद उनकी बेटी महबूबा मुफ़्ती पीडीपी अध्यक्ष हैं. दोनों राज्य के मुख्यमंत्री भी रहे और अब महबूबा मुफ़्ती की बेटी इल्तिजा मुफ़्ती की ट्रेनिंग चल रही है ताकि भविष्य में वह पीडीपी की गद्दी संभाल सकें.
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल पर एक लम्बे समय से बादल परिवार का कब्ज़ा चला आ रहा है. पहले प्रकाश सिंह बादल अध्यक्ष रहे और बाद में पार्टी अध्यक्ष का पद अपने बेटे सुखवीर सिंह बदल को सौंप दिया. सरकार में प्रकाश सिंह बादल मुख्यमंत्री और सुखवीर सिंह बादल उपमुख्यमंत्री रहे. इसी तरह महाराष्ट्र में शिवसेना, जिसकी स्थापना बाल ठाकरे ने की थी, वहां भी परिवारवाद का ही वर्चस्व है. ठाकरे जीवन पर्यंत पार्टी के अध्यक्ष रहे और उनके बाद पार्टी अध्यक्ष उनके बेटे उद्धव ठाकरे बने. उद्धव ठाकरे अब शिवसेना अध्यक्ष और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं और उद्धव ठाकरे का बेटे आदित्य ठाकरे उनकी सरकार में मंत्री हैं और जब भी जरूरत पड़े पार्टी की कमान संभालने को भी तैयार हो चुके हैं.
उत्तर से लेकर दक्षिण तक राजनीति में पैर जमाए हुए है परिवारवाद
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने जनता दल से अलग हो कर अपनी खुद की समाजवादी पार्टी नाम की दुकान खोल ली, जिसके सबसे पहले वह अध्यक्ष रहे और अब उनके बेटे अखिलेश यादव पार्टी अध्यक्ष हैं. बाप और बेटे दोनों ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. पड़ोसी राज्य बिहार में लालू प्रसाद यादव ने भी जनता दल से अलग हो कर अपनी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया, जिसके वह अध्यक्ष रहे और अब उनके छोटे बेटे तेजश्वी यादव पार्टी चला रहे हैं. लालू और उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनी और तेजश्वी बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे हैं.
लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव भी बिहर के मंत्री रह चूके हैं और लालू की बड़ी बेटी मीसा भारती भी राज्य सभा सदस्य हैं. बिहार में ही जनता दल से अलग हो कर राम विलास पासवान ने अपनी पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी का गठन किया. अपने जीवन काल में ही उन्हों ने अपने बेटे चिराग पासवान को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था. दोनों सांसद थे, पासवान केंद्रीय मंत्री और चिराग एलजेपी अध्यक्ष. पासवान की पिछले वर्ष मृत्यु हो गयी और अगर चिराग ने बिहार चुनाव में गलत फैसला नहीं लिया होता तो पिता की जगह वह केंद्र में मंत्री होते. एलजेपी का विभाजन हो गया और पासवान के छोटे भाई पशुपति पारस ने बागवत करके खुद को लेजेपी अध्यक्ष मनोनीत किया और अब वह केंद्रीय मंत्री भी हैं.
दक्षिण भारत में जनता दल से अलग हो कर पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा ने जेडीएस (जनता दल सेक्युलर) नाम की पार्टी बनाई और बाद में पार्टी की कमान अपने बेटे कुमारस्वामी को सौंप दी जो कर्नाटक के मुख्यमंत्री भी बने. कर्नाटक के पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार का डीएमके पर लम्बे समय से कब्ज़ा रहा है. करूणानिधि पार्टी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री रहे, बाद में बेटे स्टालिन को पार्टी की कमान सौंप दी, स्टालिन करुणानिधि सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे और अब वह डीएमके के अध्यक्ष और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री हैं. स्टालिन के बेटे उदयनिधि पार्टी के उभरते नेता हैं और अब विधायक भी हैं. पिता के बाद डीएमके संभालने को उनकी फिलहाल ट्रेनिंग चल रही है. वही तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) नाम की अपनी पार्टी बनायी, 2014 में वह तेलंगाना के पहले और अब तक के एकलौते मुख्यमंत्री हैं, स्वयं पार्टी के प्रेसिडेंट हैं और पुत्र के.टी. रामाराव पार्टी के चेयरमैन. पिता की सरकार में मंत्री भी हैं और चंद्रशेखर राव की बेटी के. कविता भी राजनीति में सक्रिय हैं. 2014 में लोकसभा सांसद चुनी गयी और 2019 में चुनाव हारने के बाद अब वह विधान परिषद् की सदस्य हैं. यानि, तेलंगाना में चंद्रशेखर राव परिवार की दुकान चलती रहेगी.
आंध्र प्रदेश में किस तरह अपने ससुर एन.टी. रामाराव को हटा कर चंद्रबाबू नायडू ने तेलुगूदेशम पार्टी पर कब्ज़ा कर लिया वह सभी को पता है. नायडू मुख्यमंत्री रहे और तेलुगुदेशम पार्टी के अध्यक्ष हैं, उनके बेटे एन. लोकेश पार्टी के महासचिव हैं और पिता की सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं. वह तैयार हैं कि जब भी मौका मिले तो पिता के बाद पार्टी वह चलाते रहेंगे.
जिनकी अपनी संतान नहीं वहां भी परिवारवाद
दो महिला नेता– उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अविवाहित हैं. अपना बच्चा नहीं है तो क्या हुआ अपने भतीजों को अपना उत्तराधिकारी बना दिया है. मायावती की बहुजन समाज पार्टी में उनके भतीजे आकाश आनंद उभरते हुए नेता हैं जिसे बुआ मायावती अपने उत्तराधिकारी के रूप में ग्रूम कर रही हैं. वहीं ममता बनर्जी का भतीजा अभिषेक बनर्जी लोकसभा के सदस्य हैं और बुआ की पार्टी तृणमूल कांग्रेस में राष्ट्रीय महासचिव के तौर पर ममता बनर्जी के बाद दूसरे सबसे बड़े पदाधिकारी हैं. अभिषेक की ट्रेनिंग पूरी हो चुकी है और अगर कभी ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा या वह केंद्र की राजनीति में आ जाएं तो अभिषेक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री होंगे. यह लिस्ट बहुत लम्बी है.
सवाल है कि अगर राजनीति जनता की सेवा के लिए है तो फिर परिवारवाद को बढ़ावा देने का क्या औचित्य है? सचाई है कि जनता की सेवा की आड़ में राजनीति एक पेशा बन चुका है और जैसे कोई व्यापारी या उद्योगपति अपने बेटे या किसी अन्य परिवार के सदस्य को अपनी जगह लेने के लिए ट्रेनिंग देता है उसी तरह राजनीति में भी परिवारवाद को बढ़ावा दिया जाता है. इसमें से बहुत सारे ऐसे नेता हैं जो या तो किसी और प्रोफेशन में फ्लॉप हो चुके हैं या उन्हें राजनीति करने के सिवा कुछ और आता ही नहीं है. एक पुश्तैनी दुकान पर ग्राहकों का भले भी भरोसा ज्यादा रहता हो, पर यह विवाद का विषय हो सकता है कि क्या राजनीति की पुश्तैनी दुकान पर भी जनता का उतना भी भरोसा रहता है? शायद नहीं, कांग्रेस पार्टी की हालत देखते हुए तो फिलहाल ऐसा ही लगता है.