सम्पादकीय

जश्न ही नहीं, फिक्र भी जरूरी

Rani Sahu
17 Aug 2022 3:26 PM GMT
जश्न ही नहीं, फिक्र भी जरूरी
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आजाद भारत 75 वर्षों का हो गया. जैसे दो सौ वर्षों की गुलामी के बाद मिली आजादी के वक्त गर्व हुआ था

by Lagatar News

Shyam Kishore Choubey
आजाद भारत 75 वर्षों का हो गया. जैसे दो सौ वर्षों की गुलामी के बाद मिली आजादी के वक्त गर्व हुआ था, वैसे ही आजादी के 75 वर्ष बिताना भी गर्व की बात है. आजादी के माहौल में हमारी दो पीढ़ियां गुजर गईं. बेशक, इन वर्षों में हमने बहुत तरक्की की. 75 वर्षों पूर्व के भारत में तरक्की के लिए कुछ विशेष था ही नहीं. जो था भी, वह चंद लोगों तक सीमित था. ब्रिटेन में पढ़े गिनती के आईसीएस और बैरिस्टर लोगों की ही थोड़ी-बहुत दखल थी. आजादी के बाद धीरे-धीरे तरक्की हर आम-वो-खास के दरवाजे तक पहुंची. जिसका जितना आंचल था, वह उतना ही उसके हाथ लगी. जाहिर है, छोटे आंचल वाले बहुत फायदा न उठा सके. कई तो बस सुनते या निहारते रह गए. ऐसे लोगों की तादाद अधिक है. आलम यह कि 130 करोड़ आबादी में से 80 करोड़ लोग खैरात पर गुजर-बसर कर रहे हैं. ऐसी खैरात, जो सरकार टैक्स के बतौर सबसे वसूल कर जीने-खाने लायक अनाज के रूप में उनको दे देती है.
लोकशाही में जैसा कि आम तौर पर होता है, बाकी 50 करोड़ में से कुछ परिवारों ने तरक्की का बड़ा हिस्सा अपने तक रोक-समेट लिया. सबसे बड़ा हिस्सा समेटनेवालों की तादाद इन 50 करोड़ में और कम, बहुत कम की रही. इसलिए जश्ने आजादी के साथ-साथ कुछ फिक्र भी करने की जरूरत आन पड़ी है, ताकि तरक्की के छींटे ही सही, उन लोगों पर भी पड़ें, जो वोट की समानता के नाम लहालोट होते रहे हैं.
बेशक, इसी आजादी ने हमें गणतंत्र यानी जम्हूरियत की ओर बढ़ाया. ऐसी जम्हूरियत जिसे 'जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा' संज्ञा दी जाती है, लेकिन कहा यह भी जाता है, 'जम्हूरियत वो तर्जे हुकूमत है, जिसमें बंदों को गिना करते हैं, तोला नहीं करते'. परिणाम सामने है. एक ओर गरीबी से भी नीचे 80 करोड़ आबादी, दूसरी ओर सरकारी खजानों के अरबों-अरब रुपये लेकर चंपत हो जाने वाले ललित मोदी, नीरव मोदी, मेहुल चोकसी, विजय माल्या, जयंतीलाल संदेसरा, सब्या सेठ, नीलेश पारीख, जतिन मेहता, रीतेश जैन, हेमंत गांधी आदि-आदि की जमात. तीसरी ओर साल-दर-साल पूंजी में दोगुनी-तिगुनी बढ़ोतरी करते जानेवाले अंबानी, अडाणी, नडार, पूनावाला, दमानी, मित्तल, जिंदल, बिरला, संघवी, कोटक आदि-आदि. चौथी ओर हमारा वोट लेकर हमारी सेवकाई के नाम पर कुछ किलो अनाज की खैरात देनेवाले भाग्यविधाता. पांचवीं ओर भाग्यविधाताओं के इशारों पर हुक्म चलानेवाले हुक्मरान. छठी और घरेलू सामान के लिए हर दिन अपनी जेब थोड़ी और मोटी कर बाजार जानेवाला कमाऊ वर्ग. छांटने लगें तो ऐसे ही कुछ और वर्ग मिल जाएंगे.
आजाद भारत में बेशक अब भूख से मौतें नहीं होतीं. होती भी हैं तो बहुत ही कम. स्कूलों का विस्तार गांवों तक हो गया है. अस्पताल या डिस्पेंसरियों का भी संजाल हमारे पास है. रोजी-रोजगार के लिए बैंकों के दरवाजे खुले हुए हैं. 75 साल पहले जिस भारत में सुई तक नहीं बनती थी, वहीं भारत अब वह सबकुछ बना रहा है, जो खुद को दुनिया के बाहुबली माने जानेवाले अमेरिका जैसे कुछ देशों में बनते हैं. अब किसी को न तो आईसीएस करने की जरूरत है, न ही वकालत करने के लिए ब्रिटेन की डिग्री की लेनी है. सारा कुछ अपने यहां उपलब्ध है. सबसे बड़ी बात, हम जिसे चाहें एक बटन दबा कर सरकार बना दे सकते हैं, जिसे न चाहें जमीन पर ला दे सकते हैं. ऐसी आजादी को सलाम करना तो बनता है.
Rani Sahu

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