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भारत में कुछ बातों में निश्चित रूप से तुरंत बदलाव की जरूरत है। उदाहरण के तौर पर इस बात के वैज्ञानिक साक्ष्य हैं
डॉ चन्द्रकांत लहारिया। भारत में कुछ बातों में निश्चित रूप से तुरंत बदलाव की जरूरत है। उदाहरण के तौर पर इस बात के वैज्ञानिक साक्ष्य हैं कि बच्चों में कोरोना की गंभीर बीमारी होने का खतरा बहुत कम होता है, फिर भी कई लोग स्कूल खोलने का पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं। दूसरी तरफ, जहां पर लोगों को सरकार से मांग करनी चाहिए, वहां पर वे शांत बने रहते हैं।
कोविड-19 की महामारी से पहले से ही देश का सरकारी स्वास्थ्य तंत्र कमज़ोर था। अगर बच्चों की ही बात करें तो वास्तविकता यह है कि भारत में हर साल करीब 2.5 करोड़ बच्चे पैदा होते हैं और उनमें से लगभग 7 लाख शिशु एक साल की उम्र तक पहुंचने से पहले ही मृत्यु का शिकार बन जाते हैं। अगर यही 2.5 करोड़ बच्चे सिंगापुर में पैदा होते, तो कुल शिशु मृत्यु 7 लाख की जगह करीब 40 हज़ार होती।
सिंगापुर और भारत में जो प्रमुख अंतर है, वह है स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता और गुणवत्ता का, जो कि भारत के अधिकतर राज्यों में बहुत ही कमजोर है। साथ ही भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता में असमानताएं भी हैं, जो दिखाती हैं कि देश के कई राज्यों में शिशु और मातृ मृत्यु दर कुछ अन्य राज्यों से 5 गुना तक अधिक है।
स्वास्थ्य तंत्र के कमज़ोर होने के मुख्य कारणों में से एक है कि लोग सरकारों से कभी अधिकार पूर्वक स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करने की मांग ही नहीं करते हैं। जब स्वास्थ्य सेवाओं के जरूरत आती है तो जिनके पास संसाधन होते हैं वे निजी क्षेत्र में चले जाते हैं, और गरीब आदमी, जिसके पास कोई और चारा नहीं होता, वही सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में आता है। गरीब आदमी न तो मांग कर पाता है और न ही उसकी कोई बात सुनी जाती है।
कोविड-19 की महामारी की शुरुआत यानी मार्च 2020 से ही, हमने कई नेताओं और नीति निर्धारकों से भारत के स्वास्थ्य तंत्र को मज़बूत करने के वादे सुने। लेकिन एक साल बाद, 2021 के अप्रैल और मई के महीनों में महामारी की दूसरी लहर में जो दुर्दशा देखी गई, वह दर्शाती है कि उन वादों का हश्र सभी पुराने वादों की तरह ही हुआ। फिर, पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के फ़िरोज़ाबाद में एक अज्ञात बीमारी, संभवत: डेंगू की वजह से 32 बच्चों की मृत्यु की खबरें आईं। ये खबरें, उन पुरानी खबरों की याद दिलाती हैं, जिनमें हम बच्चों की एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम जैसी बीमारियों या अस्पतालों में सुविधाओं की कमी से मृत्यु के बारे में कई वर्षों से सुनते आ रहे हैं।
यह ये भी दर्शाती हैं कि महामारी ही एकमात्र स्वास्थ्य समस्या नहीं है बल्कि अन्य स्वास्थ्य चुनौतियां समाधान के इंतज़ार में हैं। लेकिन नीति निर्माता हमेशा सिर्फ अल्पकालिक चुनौतियों पर ही ध्यान देते नज़र आते हैं। कोविड-19 और तीसरी लहर के संदर्भ में पीडियाट्रिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने के लिए कई चर्चाएं हो रहीं हैं। लेकिन जरूरत केवल कोविड-19 के लिए पीडियाट्रिक स्वास्थ्य सेवाएं बढ़ाने की नहीं है, बल्कि सभी बीमारियों और सभी आयुवर्ग के लिए देश के स्वास्थ्य तंत्र को सुदृढ़ करने की है।
कोविड-19 का संक्रमण भारत में कुछ कम हुआ है, लेकिन देश और विश्व अभी भी महामारी के मध्य में हैं। व्यक्तिगत स्तर पर हम सभी को सावधानी बरतनी है लेकिन अनावश्यक चिंता से बचना है। महामारी से लड़ने के लिए हमें अफवाहों और असत्यापित खबरों से बचना होगा और सरकारों को भी निर्णय वैज्ञानिक साक्ष्य का इस्तेमाल करते हुए लेने चाहिए। जैसे कि साक्ष्य बता रहे हैं कि कोविड-19 से गंभीर बीमारी का खतरा बच्चों को बहुत कम हैं, इसलिए स्कूल भी खुलने चाहिए। साथ ही, सरकारों को पिछले 18 महीनों और उससे पहले किए गए स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करने से जुड़े सभी वादों को पूरा करने की जरूरत है।
ऐसा न हो कि सरकारें सिर्फ कोविड-19 के बारे में बातें करती रहें और इस बीच अन्य बीमारियां फिर से फैलने लगें। अगर लोग सरकारों से मांग करें और उन्हें उत्तरदायी ठहराएं, तो संभव है भारत में भी मृत्युदर कम हो और देश में भी सिंगापुर जैसी स्वास्थ्य सेवाएं मिलने लगें।
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