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- भ्रष्टाचार का फंदा
Written by जनसत्ता: भ्रष्टाचार के विरुद्ध सरकारें चाहे जितना कड़ा रुख अपनाने का संकल्प दोहराएं, पर हकीकत यही है कि इसमें लगातार बढ़ोतरी दर्ज हो रही है। अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षणों में भी भारत में यह समस्या नासूर की तरह दर्ज होती है। हर साल कुछ बढ़ोतरी के साथ। इसके पीछे बड़ी वजह राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी बताई जाती है। हर पार्टी चुनाव के वक्त भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाती है, विपक्षी दल सत्ता पक्ष के भ्रष्टाचारों का चिट्ठा खोल कर बैठ जाते हैं। मगर सत्ता में आते ही, वे भी उसी रंग में रंग जाते हैं।
वही हर ठेके में कमीशनखोरी का पुराना दस्तूर चलता रहता है। कर्नाटक का ताजा मामला भी उससे अलग नहीं माना जा सकता। वहां के एक ठेकेदार ने आत्महत्या कर ली। मौत से पहले लिखा कि ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री केएस ईश्वरप्पा ठेके में चालीस प्रतिशत कमीशन मांग रहे थे और न देने की वजह से उसका भुगतान लटकाया हुआ था। इसे लेकर स्वाभाविक ही विपक्ष हमलावर हो उठा है। कहा जा रहा है कि संदिग्ध स्थिति में मृत पाए गए ठेकेदार का संबंध सत्तापक्ष से था। मगर ईश्वरप्पा ने विपक्ष के आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि वे मृत ठेकेदार को जानते तक नहीं और उसका उनकी पार्टी से कोई संबंध नहीं था।
बताया जा रहा है कि कर्नाटक के कुछ गावों के लोगों ने सड़कें, नाली, फुटपाथ वगैरह बनवाने की मांग की थी, तब मंत्री ने उन सब कामों का ठेका यह कहते हुए दे दिया कि बजट की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। उनके वादे पर संबंधित ठेकेदार ने अपनी तरफ से करीब चार करोड़ रुपए खर्च कर दिए। फिर जब भुगतान की मांग करने लगा, तो मंत्री ने उससे चालीस प्रतिशत कमीशन की मांग की।
यह प्रचलित कमीशन से बहुत अधिक था, इसलिए ठेकेदार देने से मना करता रहा। भुगतान न मिल पाने के तनाव में उसने खुदकुशी कर ली। खुदकुशी से पहले लिखे पत्र में सीधे-सीधे अपनी मौत के लिए ईश्वरप्पा को जिम्मेदार ठहराया। हालांकि किसी व्यक्ति के आत्महत्या से पहले लिखे नोट को गंभीर कानूनी साक्ष्य माना जाता है, मगर ईश्वरप्पा का कहना है कि इस तरह किसी के वाट्सऐप्प पर किसी के खिलाफ नोट लिख देने से उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता। हालांकि इस मामले में ईश्वरप्पा के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर ली गई है और उसमें उन्हें मुख्य आरोपी बनाया गया है। देखना है, जांच में क्या नतीजे सामने आते हैं।
हालांकि सरकारी ठेकों में कमीशनखोरी कोई छिपी बात नहीं है। यह एक दस्तूर जैसा बन गया है। इसलिए कई मामलों में कमीशन पहले से तय होता है। ठेका देने और लेने वाले उसी के अनुसार काम की लागत तय करते हैं। मगर जहां कमीशन की दर ठेकेदार की बचत में सेंध लगाने की कोशिश करती है, विवाद वहीं ज्यादा पैदा होते हैं। शायद कर्नाटक के मामले में भी यही हुआ हो।
पर यह मामला चूंकि सरकार और पार्टी की प्रतिष्ठा से जुड़ा है, इसकी सच्चाई कितनी उजागर हो सकेगी, कहना मुश्किल है। हालांकि वहां के मुख्यमंत्री ने इसकी निष्पक्ष जांच कराने को कहा है, पर यह तभी संभव है, जब सचमुच उनका इरादा ऐसा हो। ईश्वरप्पा ने पहले तो इस्तीफे से साफ इनकार कर दिया था, पर अब नैतिक आधार पर इस्तीफा देने को तैयार हो गए हैं। यह अच्छी नजीर है। उम्मीद है, मामले की जांच भी निष्पक्ष होगी।