- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- रेलवे का निजीकरण नहीं
आदित्य चोपड़ा: संसद का बजट सत्र चालू है जिसके दोनों सदनों में वार्षिक बजट के विभिन्न प्रावधानों पर चर्चा भी हो रही है। इसी क्रम में भारतीय रेलवे की अनुदान मांगों पर भी सत्ता व विपक्ष के सांसदों ने अपने विचार रखे परन्तु उच्च सदन में मौजूद विपक्ष के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे व पूर्व प्रधानमन्त्री श्री एच.डी. देवगौड़ा ने जिस प्रकार से रेल विभाग के कार्यों की समीक्षा की उससे लोकतन्त्र में संसद में होने वाली बहसों की महत्ता भी रेखांकित हुई। हालांकि श्री देवगौड़ा का जोर केवल अपने राज्य कर्नाटक की लम्बित पड़ी रेल योजनाओं पर ही रहा मगर श्री खड़गे ने रेलवे की देश के समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का जिस तरह खाका खींचा उससे उनकी उस दृष्टि का पता लगता है जिससे भारत में रेलवे को नये दौर में ले जाने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। श्री खड़गे का सबसे ज्यादा जोर इस बात पर था कि किसी भी सूरत में रेलवे का निजीकरण न किया जाये। उनकी इस चिन्ता का निवारण स्वयं रेल मन्त्री श्री अश्विनी वैष्णव ने चर्चा का उत्तर देते हुए किया और ऐलान किया कि रेलवे का निजीकरण करने की सरकार की कोई योजना नहीं है। श्री वैष्णव की इस घोषणा से अधिसंख्य देशवासियों ने चैन की सांस ली होगी क्योंकि किसी सरकारी जन सेवा में लगे विभाग का निजीकरण होने के बाद मिलने वाली सेवाएं या सुविधाएं बहुत महंगी हो जाती हैं जबकि रेलवे को भारत में गरीबों का रथ कहा जाता है। देश में आवागमन के लिए रेलवे ही सबसे सस्ता साधन माना जाता है। एक सामान्य भारतीय नागरिक रेलवे के माध्यम से कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सफर करने का सपना देख सकता है क्योंकि भारत में रेलगाड़ियों का शृंखलाबद्ध आवागमन उसे सस्ते में और सरलता से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचा देता है। श्री खड़गे मनमोहन सरकार के अंतिम वर्षों में रेलमन्त्री भी रहे हैं अतः उन्हें सभी रेल सम्बन्धित आंकड़ों की भी अच्छी जानकारी थी। उन्होंने यह रहस्य भी खोलने का प्रयास किया कि रेलवे का संचालन अनुपात (आपरेटिंग रेशो) लगातार बढ़ रहा है जिसकी वजह से इसका घाटा भी बढ़ता जाता है। इसे कम करने की जरूरत है। अर्थात अगर रेलवे को 100 रुपए कमाने होते हैं तो अब सरकार को उस पर 114 रुपए के लगभग खर्च करने पड़ते हैं जबकि दशक पहले तक यह राशि 95 रुपए के करीब ही होती थी। जबकि देशभर में रेलवे की साढे़ सात लाख करोड़ रुपए लागत की लम्बित परियोजनाओं की संख्या सैकड़ों में है। यह मुद्दा इसलिए महत्वपूर्ण है कि स्वतन्त्रता के बाद से रेलवे मन्त्रालय का राजनीतिकरण धीरे-धीरे होता गया और इसकी पराकाष्ठा तब हुई जब केन्द्र में सांझा सरकारों का गठन होना शुरू हुआ। सत्तारूढ सांझा मोर्चे के घटक दलों के नेताओं में रेलवे मन्त्रालय को लेने के लिए जमकर युद्ध भी होते देखा गया। एेसा भी देखने में आया कि रेलवे मन्त्रालय की बदौलत ही इस विभाग के प्रभारी घटक दल के मन्त्री अपनी राजनीतिक पार्टी भी चलाते रहे। 2004 में वाजपेयी सरकार के हटने के बाद जब कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार का गठन हुआ तो रेलवे मन्त्रालय को लेकर स्व. रामविलास पासवान और श्री लालू प्रसाद यादव के बीच खासा मनमुटाव बना रहा और बड़ी मुश्किल से श्री पासवान को रेलवे के अलावा दूसरा मन्त्रालय लेने के लिए मनाया जा सका। पासवान इसलिए जिद कर रहे थे कि वह पहले की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में रेलमन्त्री रह चुके थे। इस सरकार में रेलवे की लाटरी लालू जी के नाम खुल गई और उन्होंने रेल मन्त्रालय को तो वैसे घाटे से निकाल कर लाभ में चलाने का दावा किया मगर अपने क्षेत्र के लिए नई रेलगाडि़यों की बरसात कर दी। इससे पहले जब ममता दीदी की पार्टी वाजपेयी नीत एनडीए का हिस्सा थी तो उन्हें रेल मन्त्रालय दिया गया था। उन्होंने तब प. बंगाल मूलक रेलगाडि़यों की झड़ी लगा दी थी। अतः कहा जा सकता है कि रेलवे मन्त्रालय भारत में नेतागिरी चमकाने का भी अच्छा साधन बना रहा। संपादकीय :आयो-रे-योगी फिर आयो रे...रामपुर हाट में 'रावण लीला'इस्लामी अंगने में चीन का क्या काम!बाइडेन की 'युद्धक' नसीहतएकीकृत निगम से बदलेगी व्यवस्था125 वर्षीय पद्मश्री विजेता शिवानंद जी से सीखिए सफल जीवन का मंत्र2014 में सत्तारूढ़ होने पर मोदी सरकार ने इस उलझन को समाप्त किया मगर रेलवे के लिए इसके मन्त्री भी अदलते-बदलते रहे और अंत में दूसरे कार्यकाल में यह तय किया गया कि रेलवे के बजट को सामान्य वित्तीय बजट में समाहित कर दिया जाये जिससे इसके कामकाज में सुधार हो सके। भारत में रेलवे का इतिहास 170 साल पुराना है जब अंग्रेजों ने रेल लाइनें बिछाना शुरू किया था परन्तु 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के बाद इसमें ठहराव आया हालांकि तब तक अंग्रेजों ने पूरे भारत को (जिसमें आज का पाकिस्तान भी शामिल है) रेल लाइनों के माध्यम से लगभग जोड़ दिया था। परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने भारतीय रेलवे की 40 प्रतिशत सम्पत्ति 'चल' को मध्य एशिया के देशों में स्थानान्तरित कर दिया था। आजादी मिलने पर भारत का बंटवारा हो गया और पुनः 40 प्रतिशत के लगभग ही रेलवे की चल व अचल सम्पत्तियां पाकिस्तान के पास चली गईं। अतः भारत के पास एेसा रेलवे आया जिसका पुनरुद्धार करना जरूरी था और यह कार्य शुरू में सीमित वित्तीय साधनों को देखते हुए धीरे-धीरे किया गया। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर शुरू हो जाने के बाद रेलवे सेवाओं में गुणवत्ता देने का नया चरण शुरू हुआ तथा इसकी संचालन प्रणाली का आधुनिकीकरण करने का काम भी तेजी के साथ शुरू हुआ जिसके तहत रेलवे के गैर योजनागत खर्चों में कमी की दरकार हुई जिसकी वजह से इसमें काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या में कटौती का दौर शुरू हुआ। 1980 तक रेलवे के कर्मचारियों की कुल संख्या 18 लाख थी जो अब घटकर नौ लाख के करीब हो चुकी है और इनमें भी लाखों में ठेके पर काम करने वाले हैं। फिलहाल ढाई लाख से अधिक पद रेलवे में खाली पड़े हुए हैं।