- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- कूटनीति पर सियासत
कूटनीति एक सीधी-सरल लकीर नहीं है। टेढ़े-मेढ़े और पथरीले रास्ते होते हैं। अनचाहे संवाद भी अपरिहार्य हैं। कूटनीति पर सरकार के फैसलों और नीतियों को लेकर सियासत तार्किक नहीं है, क्योंकि मसले घरेलू नहीं, अंतरराष्ट्रीय होते हैं। बेशक भारत सरकार में राजनीतिक नेतृत्व बदल जाए, लेकिन विदेश नीति और कूटनीति में कमोबेश निरंतरता रहती है। भारत के प्रधानमंत्रियों ने पाकिस्तान के साथ युद्धों के बावजूद संवाद और समझौते किए हैं। इतिहास साक्षी है। जब वाजपेयी सरकार के दौरान विमान का अपहरण कर लिया गया था और यात्रियों की जिंदगी के एवज में मसूद अज़हर जैसे खूंख्वार आतंकी को रिहा करने का सौदा करना पड़ा था, तालिबान से तब भी बातचीत और सौदेबाजी करनी पड़ी थी। विपक्ष ने एकजुट होकर सरकार के निर्णय का समर्थन किया था। तब सोनिया गांधी नेता प्रतिपक्ष थीं। 1989 में देश के गृहमंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की अपहृत बेटी को छुड़ाने और सकुशल घर-वापसी के बदले में आतंकियों से बात करनी पड़ी थी और आतंकी जेल से रिहा भी किए गए थे। मौजूदा संदर्भ में तालिबान नेता शेर मुहम्मद अब्बास के साथ कतर में भारत के राजदूत दीपक मित्तल के संवाद को भारत सरकार का आत्म-समर्पण न मानें और न ही सियासी दुष्प्रचार करें। यह देशहित में नहीं है। भारत विभाजित नहीं लगना चाहिए।
divyahimachal